भारत में संसदीय प्रजातन्त्र है। इसमें राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष की अलग व्यवस्था होती है। राष्ट्राध्यक्ष अर्थात् राष्ट्रपति को नाममात्र का प्रधान माना जाता है। शासनाध्यक्ष अर्थात प्रधानमंत्री वास्तविक प्रधान माना जाता है। राष्ट्रपति से मंत्रिमण्डल की सलाह पर काम करने की अपेक्षा की गयी । यह संसदीय व्यवस्था के संविधान की महत्वपूर्ण विशेषता होती है। भारतीय संविधान के वर्तमान प्रावधान के अनुसार राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल की सलाह को एक बार पुर्नविचार हेतु वापस कर सकता है। दुबारा वह मंत्रिमण्डल की सलाह के अनुरूप काम करेगा लेकिन देश की सबसे बड़ी पार्टी काग्रेस की समस्या यह नही है। वह जानती है कि इस संबंध में राष्ट्रपति का अधिकार क्षेत्र सीमित है। सलाह या प्रस्ताव को एक बार लौटाने के अलावा वह कुछ नही कर सकता। ये बात अलग है कि राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार का निर्देश नैतिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकता हैं। मंत्रिमण्डल या संसद पर नैतिक दबाव बन सकता है। लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह है कि सभी संबंधित पक्ष नैतिकता को कितना महत्व देते है। वर्तमान परिवेश में इसको लेकर अधिक परेशानी नही हो सकती। नैतिकता का पक्ष न रूकावट है ना समस्या । समस्या गठबन्धन दौर से संबंधित है। किसी एक दल या निर्धारित गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत हासिल होने पर राष्ट्रपति के समक्ष विकल्प नही रह जाता । वह बहुमत प्राप्त दल या गठबन्धन के नेता को प्रधानमंत्री बनाने के किए आमंत्रित करेगा । यह संवैधनिक बध्यता है। किन्तु त्रिशुंक लोकसभा की स्थ्तिि में वह अपने विवेक का प्रयोग कर सकता हैं। इस समय सत्ता पक्ष के सामने यही बड़ी समस्या हैं। पूर्ण बहुमत की गारण्टी नही है। ऐसे मे कंाग्रेस अपने किसी शुभचिन्तक को इस पद पर पहुँचाने का प्रयास करेगी । लेकिन राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक -मण्डल में अपेक्षित बहुमत का अभाव है। कंाग्रेस चाह कर भी अपनी दम पर ऐसा नही कर सकती। उसे संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के अलावा अन्य पार्टियो का भी समर्थन हासिल करना होगा । अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रिय दल भी अन्ततः यही चाहेगे। इससे कई क्षेत्रिय दलों को संतुष्टि मिल सकती हैं। संसदीय शासन व्यवस्था का तकाजा है कि सर्वाधिक सक्षम व्यक्ति प्रधानमंत्री बने । राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी अलग तरह की है लेकिन सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली कंाग्रेस अलग ढंग का प्रयोग करने को तत्पर दिखायी दे रही हैं। राष्ट्रपति पद के लिए प्रणव मुखर्जी का नाम अवश्य अप्रत्याशित कहा जायेगा। संप्रग सरकार मे प्रधानमंत्री से भी अधिक सक्रिय नेता को राष्ट्रपति बनाना विचित्र होगा । प्रणव को सरकार का संकटमोचक माना जाता रहा । मनमोहन सिंह का अपना कोई राजनीतिक आधार नही है। प्रधानमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर होने के बावजूद उनकी निष्क्रियता ,उनका मौन ,चर्चा में आ जाता है। उनकी निर्णय क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगते रहें है। कैसी विडम्बना है कि वह प्रधनमंत्री बने रहेगें । जबकि प्रणव मुखर्जी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए चल रहा है। यदि काग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के मन मे यही चल रहा है, तब भविष्य मे उन्हे जवाबदेह होना पडे़गा । राष्ट्रपति बनने के प्रणव दलगत राजनीति से औपचारिक तौर पर ऊपर होगें। सरकार के समक्ष उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान में उनकी सक्रिय भूमिका का अभाव कंागे्रस को खटकेगा। मनमोहन ,चिदम्बरम ,एंटोनी आदि के लिए स्थ्तिि को सम्भालना कठिन होगा। देश के संवैधनिक इतिहास मे पहली बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सर्वाधिक सक्रिय व प्रभावशाली मंत्री का नाम भावी राष्ट्रपति के रूप मे चला है। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी का नाम चर्चा में सबसे आगे है। यह अनायास ही नही है। कांगे्रस हाईकमान को भी प्रणव के नाम पर अधिकतम सहमति बनने की उम्मीद है। वैसे कंाग्रेस या संप्रग अपने संख्याबल के आधार पर उन्हे निर्वाचित नही कर सकता । इसलिए भीतर -बाहर अनेक प्रकार के प्रयास चल रहे हैं। कंागे्रस का प्रयास इसी दिशा मे होगाा कि वह किसी ‘अपने‘ को राष्ट्रपति बनाये। कलाम ,हामिद ,कुरैशी के नाम भी दौड मे है, लेकिन कंागे्रस के लिए ये उस लिहाज से ‘अपने’ नही हो सकते। कुछ छेत्रीय दलो के नेताओ ने मुस्लिम उम्मीदवार का नाम अपने वोटबैंक समीकरण को ध्यान में रखकर चलाया । उनका मकसद यही तक सीमित है लेकिन वह एक हद से अधिक नही जा सकते। क्योकि वह जानते है कि ‘मोर्चा’ बनाकर भी वह अपनी पसन्द के व्यक्ति को राष्ट्रपति -भवन नही पहुचाँ सकते । ऐसा करने के लिए उन्हे भाजपा या राजग का सहयोग लेना होगा, जो भविष्य के समीकरण पर भारी पड़ेगा। ऐसे मे उन्हे संप्रग के साथ ही समझौते का रास्ता निकालना होगा। कलाम बेहतर विकल्प हो सकते थे । उन पर सहमति बनाई जा सकती है। लेकिन कंागे्रस का उनके साथ अनुभव ठीक नही रहा। वस्तुतः त्रिश्ंाकु लोकसभा की संभावना को ध्यान मे रखकर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का चयन अनुचित है। राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधनिक पद हैं इस पद पर पहुॅंचने के बाद वह दलगत सीमाओ से ऊपर हो जाता है। त्रिशंकु लोकसभा में भी उससे संविधान की भावना के अनुसार निर्णय लेंने की अपेक्षा की गयी है। ऐसा करके वह अपनें पद की गरिमा कायम रख सकता है। कांग्रेस को चहिए कि वह वर्तमान राजनीतिक स्थिति को ध्यान में रखकर आम सहमति से राष्ट्रपति के चयन का प्रयास करें।
केन्द्र में सक्षम सरकार चलाना और राष्ट्रपति पद हेतु सर्वमान्य चेहरे की तलाश कांग्रेस का दायित्व है। लेकिन अब तक की कवायद से लगता नहीं कि कांग्रेस दोंनो मसलों पर गम्भीर है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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