मौजूदा विधानसभा चुनावों में खासकर उ0प्र0 की सियासत में राजनैतिक पार्टियों में जिस नव मतदाता यानि युवा मतदाता को ऐन केन प्रकारेण अपने पाले में खींच ले जाने की स्वार्थपूर्ण लालसा दिख रही है वस्तुतः वह पूर्व में राजनैतिक दलों द्वारा सामान्य मतदाताओं को दिखाये गये दिवास्वप्न से कुछ ज्यादा नहीं है। दरअसल इस चुनाव के बाद एक नई बहस जरूर छिडनी चाहीए कि आखिर युवा है कौन ? राजनैतिक माता पिता के उत्तराधिकारी पुत्र या 42 वर्षीय राहुल गांधी सरीखे रियासती युवा जो दिखते युवा हैं पर समकालीन युवा की संवेदनाओं और आकांक्षाओं से कोसों दूर महज कागजी एजेण्डों में सोचते हैं। अगर सियासत की विरासत को जनता की अदालत में जगह बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाना ही है तो विभिन्न राजनैतिक संगठनों की नींव में काम करने वाले सामान्य युवा का क्या होना है?
दरअसल अधिकांश दलों ने इस चुनाव में ही नहीं पूर्ववर्ती चुनावों में भी किसी को कहीं से चुनाव लडाकर खासकर उनको जो 50 वर्ष से कम के हैं ये साबित कर देते हैं कि हमने युवा उम्मीदवार उतारे हैं। पर युवा मतदाता दलों के इस गोरखधंधे को समझने के अलावा इन्हें दरकिनार करने में पिछले पंचायत चुनावों से लगने लगे, जिसे पहले चरण के मतदान के दौरान शायद दलों ने भांप लिया है।
गौरतलब है कि पिछले दो दशकों से जिस राजनैतिक विरासत का युग आरंभ हुआ उसमें छात्रसंघों,मजदूर-कामगार यूनियनों और स्थानिय निकायों से निकलकर आने वाली जमात को पूरे राजनैतिक तंत्र ने जबर्दस्ती रोक रखा, जिससे न सिर्फ आक्रोश को रूपंातरित कर विरोध के बल पर जनता की बात मनवाने की संस्कृति लगभग खत्म हो चली है। अगर कुछ तेजी से बढा तो वह नेताओं के पुत्र-पुत्रियों की जनता व संगठन में स्वीकार्यता न होने के बावजूद धन व बल के दम पर प्रत्यारोपित किये जाने की परंपरा।
इस दौरान यह समझा में आने लगा कि छात्रसंघों को बंद करने वाले नेताओं की जमात के मन में आखिर क्या था ? यह आज साबित हो चला है कि उनमें वह वास्तविक भय था जिससे कभी भी कहीं किसी कोण पर युवा तुर्क व बागी सरीखे नाम निकल सकते हैं।
अब प्रतिनिधित्व देने की बात पर भी दलों में नेता पुत्रों और पुत्रियों की लंबी जमात है जिसे संगठन में पद से लेकर टिकट तक में प्राथमिकता की दरकार है, जिसने पार्टी संगठनों की नींव को धसकने की मुहाने पर ला खडा किया है क्योंकि भूमिका तय न हो पाने की दशा में और पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र के दरकने की दशा में असल युवा का बागी तेवर पार्टियों को धूल चटाने में भी कारगर साबित हुआ है।
मौजूदा चुनाव में पार्टियां या तो उम्र की आधी सीमा के बाहर खडे नेताओं को जबरिया युवा साबित कर रहीं हैं या अपने एजेण्डे को युवा उन्मुख बताने की होड में लगी हैं। पर युवा सच में खमोश है,वह यह जरूर सोच रहा है कि आखिर अगर हम सरकार बना सकते हैं तो सरकार बनाने में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं कर सकते? यह सवाल भी प्रासंगिक है कि सालों से झूठ का पुलिंदा साबित हो चुके चेहरों को हटाने के बजाय पार्टियां आखिर राजनैतिक शुचिता को बनाये रखने वाले नये तत्पर और तेज दिमाग साफ छवि के सामान्य नौजवानों को अपना नेतृत्व क्यों नहीं सौंपतीं?
समस्याओं और चुनौतियों पर मुखरित होने वाले युवा दरअसल तथाकथित अनुभव लेने के राजनैतिक कारखानों में वैश्विक विकास के दौर में अब उन महानेताओं की विश्वसनियता पर सवाल खडा करने लगे जो सालों तक झंडा बैनर लेकर चलने वाली नौजवान आबादी को एक खास उम्र के बाद प्रतिनिधित्व का मौका देते थे मसलन तब जब बडे नेता ये मान लेते थे कि अब फला व्यक्ति को और टहलाना और भीड का हिस्सा बनाना संभव नहीं।
कुल मिलाकर पांच राज्यों के चुनाव परिणाम यह साबित कर देंगे कि नव मतदाता महज नेताओं व पार्टियों की गोलमोल बातों और किताबी ऐजेण्डों में कितना फंसने वाला है। यदि सर्वाधिक मतदान के बाद कुछ अविस्मरणीय होने वाला है तो वह है कि आने वाले चुनावों से युवा कार्ड दलों के लिए महत्वपूर्ण जरूर बन जायेगा जिसमें जाति कम और जरूरत ज्यादा की राजनीति शामिल होगी।
पढाई से लेकर जीवन में महत्वपूर्ण चुनौतियों से लडाई को युवा बूढे बबूनों के बजाय खुद तय करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हे ये पता है कि चुनौतियां उनकी है और उन्हें अकेले ही इनसे निबटना है, ऐसे में दलों को पुरानी सीमाओं से परे नई लक्ष्मण रेखा खींचनी ही होगी जिसमें उम्र के पडाव से सियासत के मायने तय होंगें और संगठन से लेकर प्रत्याशिता तक में युवा की भागीदारी की मजबूरी को सभी दलों को स्वीकार करना पडेगा।
आनन्द शाही नौतन (नोटः लेखक राजनैतिक सामाजिक शोध एजेन्सी डी-वोटर्स के वरिष्ठ शोध अधिशाषी व भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश सह मीडिया प्रभारी हैं)
प्रदेश सह मीडिया प्रभारी-भाजयुमो
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