Archive | August 6th, 2015

भाषा और संस्कृति प्रथक प्रथक न होकर एक दूसरे के पूरक होते है।

Posted on 06 August 2015 by admin

भाषा और संस्कृति प्रथक प्रथक न होकर एक दूसरे के पूरक होते है। प्रत्येक बोली जो साहित्य में प्रयुक्त होने पर भाषा कहलाती है की अपनी एक भाषाई संस्कृति होती है और निश्चय ही प्रत्येक भाषा की संरचना में उसकी संस्कृति खास भूमिका तय करती है। संस्कृति वस्तुतः अत्यंत व्यापक आशय वोधक शब्द है जिससे संम्बधित सम्पूर्ण मानव समाज का अतीत,वर्तमान और भविष्य जुड़ा होता है। संस्कृति का निर्माण संस्कारों से होता है ठीक वैसे ही जैसे संस्कृतियाॅं समाज को संस्कारित करती हैं जो उसके आचार,विचार,दर्शन,सामाजिक संरचना,इतिहास,भूगोल, धर्म, पुरातत्व,साहित्य,कला,वाणिज्य आदि आदि सभी तत्व मिलकर सृजित करते हैं। ..और भाषा, संस्कृति एवं समाज को वाणी तो देती ही है,आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अभिव्यक्ति,संवाद और सामाजिक सरोकारों में महत्वपूर्ण उपक्रम भी प्रदान करती है। जहाॅं तक बंुदेली भाषा और संस्कृति का प्रश्न है तो यह नकारने का कोई कारण नहीं कि इसमें लोक निहित है जिससे यह और अधिक व्यापक संदर्भों तक विस्तरित होती .है। डाॅ0बासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं-‘लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है उसमें भूत,भविष्य,वतर्मान सभी कुछ संचित रहता है। लोक राष्ट् का अमर स्वरुप है,लोक कृत्स्नज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है।अर्वाचीन मानव के लिये लोक सर्वोच्च प्रजापति है। लोक ,लोक की धात्री सर्वभूत माता पृथ्वी और लोक का व्यक्तरुप मानव,यही हमारे जीवन का आध्यात्मिक शास्त्र है।’ लोक को प्रायःलोग सीमित अर्थों में लेकर अनर्थ करते हैं। इसे केवल संकुचित अंचल या  अनगढ़ या क्षेत्र विशेष या गाॅवों तक के परिवेश में संकुचित नहीं किया जा सकता। लोग तो इसे अनपढ़ों तक सीमित करके भी देखने लगे है। यह सही है कि सहजता और परम्परा इसमें सन्निहित होती है। पर परम्परा तब तक ही लोकहित में उचित होती है जब तक कि वह प्रासंगिक बनी रहे। उसमें तार्किकता और वैज्ञानिकता हो और समय षिला पर खरी उतरती रहे। यह कहा जाता है कि न सभी परम्परायें अच्छी होतीं हैं और न सभी बुरीं। विवेक से नीर क्षीर करना आवष्यक है। बंुदेली लोक संस्कृति इस द्रष्टि से अत्यन्त व्यापक और आज भी सर्वग्राह्य मानी जाती है। दरअसल बंुदेलखण्ड भारत के हृदय स्थल में रचा बसा एक भूभाग विशेष है। जो अत्यन्त प्रचीन भी है और महत्वपूर्ण भी। भारत की स्वतंत्रता, साहित्य और संस्कृति में इसका अविस्मरणीय योगदान रहा.है।  1943 में एक लेख ‘मधुकर’में श्री ष्यामाचरण राय ने ‘बंुदेलखण्ड का भूतल’लिखकर प्रतिपादित किया था कि जब इस भूभाग का नाम बंुदेलखण्ड नहीं था उसके बहुत पूर्व इस क्षेत्र की रचना और प्रचीनता के बारे में कहा गया कि पहले पहल, अनुमानतःचालीस-पैंतालीस करोड़ वर्ष पूर्व के कैम्ब्रियन काल से ,‘बंुदेलखण्ड नीस’ नाम कीं जल के उपर थल रुप में यह भारी चट्टानें भू भाग रुप में उपलब्ध थीं जो बाद में विविध नामों से जानी गईं।  दषार्ण,जेजाकभुक्ति आदि आदि। ग्यारहवीं सदी,लगभग 1055ई.में बनारस के हेमकरण गहरवार क्षत्रियों के, इस भूभाग में पदार्पण के बाद पंचम जो विध्ंयवासनी के कारण विंध्येला से बंुदेला उपाधि धारक बने, से बंुदेलखण्ड नाम चल पड़ा। जो वस्तुतःविंध्याचल के कारण ही नामित हुआ। अन्य किन्ही किंवदन्तियों के कारण नहीं-यथा देवी को तलवार से गर्दन काट चढ़ाने के कारण रक्त बूॅंदों से बंुदेला कहलाये…इत्यादि मनगढ़न्त बातें गले नहीं उतरतीं। भूवेत्ताओं ने भी माना है  कि हिमालय की उत्पत्ति विंध्याचल के बाद हुई। विंध्याचल हिमालय से पुराना है। इस तरह हिमालय से निकलने बाली नदियाॅं भी बाद में आईं और उन नदियों से प्रभावित संस्कृतियाॅं भी स्वाभाविकतौर पर विंध्याचली/विंध्येली या बंुदेलखण्डी के बाद ही उपजीं। इसलिये प्रमाणिकतौर पर यह कहा जा सकता है कि केम्ब्रियन काल की उपजी आज की बंुदेली पहले थी,अन्य अवधी,ब्रजी, भोजपुरी आदि बाद कीं हैं।  विंध्याचल जैसे महान पर्वत और यमुना,नर्मदा,चम्बल,केन,वेतवा,पहूज,धसान ,आदि दस सरिताओं का पावन जल जिस बंुदेलखण्ड को सिंचित करता हो इसलिये यह दशार्ण तो कभी,यजुर्होति या जेजाकभुक्ति आादि भी कहलाता रहा है,की गरिमा उपरोक्त तरह से अत्यंत प्राचीन,भव्य और व्यापक है।पौराणिक भगवान राम ने जहाॅ अपने जीवन के महत्वपूर्ण बारह वर्ष वनवासी के रुप में.चित्रकूट में यहाॅं बिताये हों,बंुदेलखण्ड के तुलसी ने जिन्हें अमरता दी , ओरछा में जो राम राजा बने हंों,कदाचित इसीलिये रहीम कह उठे थे-‘चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश, जा पर विपदा परत है सो आवत एहि देश।’ कृष्ण की कथायें बंुदेलखण्ड के ही सूरदास;जन्म बिलउआ ग्राम जिला ग्वालियर-बंुदेलखण्डद्धने रचीं थीं  चंदेलों ने जहाॅं शिल्प का विश्वप्रसिद्ध महाकाव्य खजुराहो गढ़ा हो,श्रमण जिन शिल्पियों ने जहाॅं सोनागिर, पपौरा,देवगढ़ ,बानपुर ,कुण्डलपुर जैसे महान और प्राचीन तीर्थ रचे हों, जगनिक ने आल्हा- उदल से शौर्यावतार वर्णित किये हों उस बुंदेलखण्ड के लोकगीत,लोक कथायें, लोक काव्य,लोक शिल्प,लोक विज्ञान भारत के हृदयस्थल में सतत अमृत प्रवाह संचरित कर देश के उत्कर्ष को कीर्तिमान प्रदान करते रहे हैं। दुर्गावती,लक्ष्मीबाई,अवन्तीबाई आदि बंुदेली.बालाओं के शौर्य की प्रतीक रहीं तो छत्रसाल, मधुकरषाह,बीरसिंह,मर्दनसिंह,बखतबली आदि आल्हा-उदल की शौर्य पताका फहराते रहे हैं।
बंुदेले हरबोलों ने इस संस्क्ृति का शाश्वत गुणगान किया है।लाला,हरदौल, कारसदेव,अकती, मामुलिया, जवारे,सुआटा,सुराॅंती आदि आदि अनेक लोकगाथायें बंुदेलखण्ड की अपनी संस्कृति के अभिन्न और प्रेरक अंग हैं। यहाॅ ही सभी कन्याओं के पैर छुये जाने की परम्परा रही है। उनमें देवी सा सृजन/जनन/ स्वरुप देखा जाता रहा है। नदियों को माॅं,कुआ पूजन,पेड़ों की अर्चना,नाग देवता, बानर में हनुमान और प्रकृति को आत्मीय आदर देना बंुदेलखण्डियों की स्वाभाविक संस्कृति रही है। जिन्हें यहाॅं के लोकगीतों ने सदियों से अपनी वाणी प्रदान की है। जनपदीय बोली अपने क्षेत्र के सामाजिक,राजनैतिक और सांस्कृतिक चेतना की माध्यम होती है। लोक संस्कृति गतिशाील होती है नदियों के प्रवाहित जल की तरह इसलिये इसमें सतत् परिवर्तन भी होता रहता है। चूॅकि प्रत्येक जनपद की भाषा उसके इतिहास और संस्कृति की साक्षी होती है इसलिये जनपदों की सीमाओं का निर्धारण उस लोक भाषा के क्षेत्र के निर्धारण से किया जाता है। भाषा वैज्ञानिक द्रष्टि से भी बंुदेली की अपनी स्वतंत्र सांस्कृतिक सत्ता रही है,विकासक्रम है और सत्त संभावनायें सन्निहित हैं।
1793 में सबसे पहले विलियम कैरे ने भारत आकर अपना भाषायी सर्वेक्षण प्रस्तुत किया था और अपनी 33 भाषाओं की सूची में बंुदेली भी सम्मिलित की थी तथा नमूना भी प्रस्तुत किया था। इसके बाद 1833-1843की मध्यावधि में मेजर रावर्ट लीच ने इस मध्य बंुदेलखण्डी क्षेत्र की हिन्दवी बोली का व्याकरण तैयार किया था। जार्ज ग्रियर्सन ने इनके बाद अपने भाषाई सर्वे में बुंदेली को स्वतंत्र भाषा बताते हुये इस पर महत्वपूर्ण काम किया था।
बंुदेली भाषा और साहित्य-वेदों के संस्कार बंुदेली को मिले हैं क्योंकि सभी आर्य  भाषाओं का मूल श्रोत वेदकालीन भाषायें मानी जातीं हैं। मध्यदेश की 17 मूल लोक भाषायें हैं जिनमें बंुदेली भी एक है और जिसके बोलने बालों की संख्या अनुमानतः दो-तीन करोड़ तो आजादी के आस पास थी जो किसी भी यूरोपियन देश के बराबर बैठती थी। यह अनुमानतः आज छैः करोड़ के आस पास हो चुकी है। आठवीं नवीं सदी में जब चंदेले इस भूभाग में अपनी सत्ता स्थापित करने में लगे थे तब उन्हे ं यहाॅं की आदिम जातियों से संघर्ष करना पडा था। इसलिये आज की बंुदेली नामित भाषा यानी तब की विंध्ययाटवी का विकास उसी के बाद प्रारंभ माना जाता है। यही कारण है कि उन दिनों की वाचिक परम्परा का प्रारंभ रायसों से हुआ । लोक में जब इतिहास तत्व समाविष्ट होता है तब वह राजसत्ताओं का लेखा जोखा मात्र नहीं देता वरन् लोक भावनाओं में गॅंुथ कर मिथकीय सर्जनाओं में परिवर्तित हो जाता है। बंुदेली में ऐसी रचनाओं का उद्भव रासो या राछरो/कटक/गाथा के नामों से जाना गया। विकसित होते होते  1183से 1192 में बंुदेली लोक भाषा ने प्रथम ‘आल्हखण्ड’जैसा महाकाव्य दुनिया केा दिया।  जो सैकड़ों वर्ष कण्ठों से कण्ठों में सुरक्षित रहा इससे इसकी जनप्रियता सिद्ध हुई। बुद्धिजीवियों द्वारा आल्हखण्ड इसीलिये वाचिक परम्परा में माना जाता है क्योकि तब लिखितरुप मेें नहीं यह नही था,बाद में इसे लिख कर सुरक्षित किया गया इससे कदाचित आॅंषिक परिवर्तन हुआ हो। इसे बंुदेली भाषा की बनाफरी बोली का महाकाव्य माना जाता है। सन् 1435 में विष्णुदास ने महाभारत महाकाव्य बंुदेली/भाषा में लिखित में रचा था। कहने का आशय मात्र यह कि आज की बंुदेली का उद्भव एक हजार वर्ष से काफी अधिक पहले तो हो ही चुका था। वेद कालीन संस्कृत के बाद,लौकिक संस्कृत को पाणिनी ने अष्टाघ्यायी नामक व्याकरण ग्रंथ में अनुशासित किया पर भाषा तो स्वाभाविक प्रवाह है अतःपाणिनीय व्याकरण की उपेक्षा करके आगे बढ़ने वाली लोक भाषाओं को‘प्राकृत’नाम दे दिया गया। 2000ईसा पूर्व से लेकर 500इ्र0र्पू0तक प्रथम प्राकृत भाषा का काल माना जाता है जिसे ग्रियर्सन ने भी अपने भाषाई सर्वे में स्वीकार किया है। महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध के भाषण इसी प्राकृत में मिलते है जिन्हे पाली या द्वितीय प्राकृत कहा जाता है। यह भाषायें भी जब अनुशासनबद्ध कर ,साहित्य की भाषायें बना कर बाॅंध दीं गईं तो अपभ्रंश नाम से पुनःलोक भाषायें नई राह पर चल पड़ीं। माके्र्रण्डेय ने इन अपभ्रशों को.व्याकरणबद्ध कर दिया और इनमें साहित्य सृजन होने लगा । परन्तु जन भाषायें अपभ्रंश रुप में पुनःलोक भाषाओं के रुप में प्रचलित हो गईं जिनसे आज की आधुनिक आर्यभाषाओं का विकास हुआ। इन भाषाओं का उद्भव निम्न 7 अपभ्रंशों से माना जाता है-1-शौरसेनी,2-पैशाची,3-ब्राचड़,4-खस,5-मागधी,6-अर्धमागधी ,7-महाराष्ट्ी  ।
उक्त में शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी,राजस्थानी तथा गुजराती का उद्भव हुआं। पश्चिमी हिन्दी  के अन्तर्गत खडी बोली,बाॅंगरु,बृजभाषा,कन्नैाजी और बंुदेली आतीं हैं। इस तरह बंुदेली का विकास,भारतीय आर्य भाषाओं की ही श्रेणाी में आता है। इसलिये बंुदेली को आधुनिक हिन्दी भाषा का बिगड़ा हुआ रुप नहीं कहा जाना चाहिये। क्योंकि आधुनिक हिन्दी का स्वरुप तो उक्त विभाजन में खड़ी बोली से  परिष्कृत और मानक हुआ है, जो बंुदेली की ही सहोदरा जैसी एक लोक भाषा है।उक्त बंुदेली भाषा की सामथ्र्य इसी से सिद्ध होती है कि 400वर्ष यह बंुदेलखण्ड की राज भाषा रही। छत्रसाल से लेकर बीरसिंह देव,लक्ष्मीबाई, मर्दन सिंह,बखतबली आादि के पत्राचार और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सम्पर्क के आदान प्रदान में बंुदेली भाषा ने उल्ल्ेाखनीय कार्य किया है।   बंुदेली साहित्य का अपना एक भूगोल और समृद्ध इतिहास भी रहा है। आल्हा मौखिक परम्परा से प्रारंभ हुआ और सैकडों वर्ष यह कण्ठों से कण्ठों में प्रचलित रहा जिससे इसमें परिवर्तन भी होते रहे पर बाद में लिखित भी आ गया।लेकिन आल्हा की छाया बाद के अनेकानेक वर्षों तक बंुदेली के सृजन पर बनी रही। विद्वानों का मत है कि आल्हा का प्रभाव रामचरित मानस तक पर पड़ा। इसी प्रवंधात्मक परम्परा में जगतराज विजय,अब्दुल समद की लड़ाई,वीरसिंह देव चरित,रतनबावनी, छत्रसाल बावनी,झााॅसी की रायसी आदि पर पड़ा और इनमें राजाओं पर केन्द्रित आख्यान वर्णित होते रहे। इनके साथ गाहा और गाथा की परम्परा मध्यकाल में खूब चली।सुरहिन की गाथा, मथुराबली की गाथा और धाॅधू की गाथाये आदि कालीन हैं। इनके साथ राछरों की परम्ंपरा बंुदेली में प्रचलित रही। इनमें ममत्व,स्नेह,श्रंगार,करुणा और परम्पराओं की मानवीय परम्परायें सतत बनी रहीं यथा ‘कजरियन कौ राछरौ’,‘चंद्रावलि कौ राछरौ’ आदि।यह प्रगीत काव्य की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। इनमें लोक विश्वास की प्रचुरता और मिथकीय परम्परायें ही मुख्य थीं।गीत रचना के रुप में आदि काल से लोक गीतों में अत्यधिक सृजन हुआ है। दिवारी गीत,राई गीत, फाग गीत,विवाह गीत जैसे अनेकानेक संस्कार गीत अपने छंांदसिक आधारों के लिये प्रचलित रहे हैं।इनमें अत्यंत विस्तृत दायरा काव्य सृजन का रहा है। कतिपय लोकगीतों के रचनाकार भी जाने गये यथा-प्रिया सखी,चैनदास,माधवसिंह,रुपनारायण, मोहनदास,दुर्गालाल, सुखदेव आदि उल्लेखनीय हैं। बंुदेली राजदरवारों के राजकवियों ने मध्यकाल में चरित,पौराणिक आख्यान, लोक प्र्रकृति के लोककाव्य में ग्राम्य लौकिकीकरण हुआ है। यह बंुदेली क्षेत्र का सृजन ग्यारहवीं से सत्रहवीं सदी के काल का रहा है। रीतिकालीन कवियों में भी लक्षण ग्रंथ,लोक काव्य बहुत रचे गये जिनमें कतिपय कवि तो बंुदेली के होते हुये भी हिन्दी साहित्य में स्थापित हो चुके हैं।यथा कवि केशवदास,पदमाकर,बिहारी, लाल, रायप्रवीण,ठाकुर,शिवनाथ,प्राणनाथ आदि आदि। इनकी मूल प्रवृत्ति बंुदेली ही रही पर इन्हें बृज के तो कभी खड़ी हिन्दी के खाते में डाला जाता रहां। हाॅं इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी अपने साहित्यिक सृजन के प्रभाव के कारण मूल धारा में जुड़े और साहित्यिक इतिहास में मील के पत्थर बन गयें। यों तो बंुदेलखण्ड में जन्में,पले,बढ़े और सृजनरत रहे तुलसीदास को सम्पूर्णरुप  से अवधी के खाते में जोड़ लिया गया जब कि रामचरितमानस में अवधी के साथ 40प्रतिशत से अधिक बंुदेली के शब्द हैं।
उन्नीसवीं सदी में बंुदेली का सृजन चरम पर हुआ जिसका श्रेय ईसुरी,गंगाधर व्यास और ख्यालीराम की त्रयी को है। इनका सृजन पूर्णतः बंुदेली को समर्पित रहा और जिस मानक बंुदेली में इन्होंने सृजन किया उसका ही प्रभाव है कि इनका काव्य सम्पूर्ण जनमानस का कण्ठहार बना रहा। फड़ साहित्य के माध्यम से गंगाधर व्यास आदि ने बंुदेली काव्य को लोकप्रिय बनाये रखा तो इ्रसुरी की फागें श्रंगार के माध्यम से जीवन में उल्लास और उष्मा से उर्जावान बनाने में कामयाब रहीं। ईसुरी ने जीवनदर्शन दिया तो हर विधा की फागें गाकर बुंदेली को शौष्ठव भी प्रदान किया। इनके बाद तो अनेक कवियों ने अपनी मातृभाषा बंुदेली को भाषा- सम्मान देकर सृजन किया और बंुदेली की श्रीवृद्धि होने लगी क्योकि अब तक मुद्रण की सुविधा उपलब्ध हो चुकी थी। खड़ी हिन्दी को परिनिष्ठित बनाकर मानक स्वरुप दिया जाने लगा था। उसमें बंुदेली जैसी लोक भाषाओं के शब्द लिये जाने लगे थे। स्वतंत्रता संग्राम में यद्यपि हिन्दुस्तानी और लोक भाषाओं में जनपदों को आजादी की क्रान्ति के लिये तैयार किया जाने लगा था जिसमें राष्ट्ीयता उन्हीं की भाषा में पिलाई जाना ही लक्ष्य था इससे निष्पक्षरुप से बंुदेली को अपना रंग मिलने से सहज वातावरण मिलने लगा था। घंश्याम दास पाण्डेय,छैल,घासीराम व्यास, नरोत्तम दास फिर बाद में रामचरण हयारण मित्र,चतुरेश आदि आदि अनेक कवि उभरकर सामने आ चुके थे। उन्नीसवीं सदी में बंुदेली में भी काव्य के विषय प्रासंगिक हो गये थे जिनमें स्वतंत्रता के साथ समाज सुधार,प्रकृति,पर्यावरण ,बाल विवाह,विधवा विवाह,हरिजन उद्धार,धार्मिक सदाशयता आदि जुड़ने लगे थे। बीसवीं सदी में तो कविसम्मेलन प्रारंभ भी हो चुके थे और स्थानीय भाषाओं में श्रोताओं को अपने गीत अपनी भाषा में सुनने की ललक बढ़ने लगी थी।                                                    हाॅं ,बंुदेली गद्य में अवश्य मध्यकाल के शिलालेख,पत्राचार,बीजक,दस्तावेज आदि के अतिरिक्त कुछ अधिक उपलबध नहीं हो रहा था। यद्यपि बंुदेली में गद्य बिल्कुल नहीं लिखा गया हो सो बात नहीं थी। इसका सोदाहरण उल्ल्ेख मैं अपनी कृति ‘मीठे बोल बंुदेली के ’में विस्तार से कर चुका हूॅं। ंसंक्षेप में हेमचंन्द्र शब्दानुशासन, शौरसेनी में पदम पुराण,आख्यान,प्राणनाथ के प्रणामी प्रवचन, अक्षर अनन्य का अष्टांग योग,वंशीधर की दस्तूर मल्ल्किा,गंगाराम मिश्र की चिंतामणि प्रश्न, रसिकमाल की अनन्य अलि,मीनराज प्रधान की हरितालिका कथा,नवलसिंह प्रधान की भारत वार्तिक आदि कृतियाॅं बंुदेली गद्य में ग्यारहवीं से सत्रहवीं सदी के दौरान सृजित हुईं। बंुदेली लोक कथाओं का तो विस्तृत भंण्डार है।बंुदेली नाटक और स्वाॅंग भी मिलते हैं।
यह सही है कि विदेशी मुगलों व अंग्रेजो के आक्रमणों एवं समय की सियासत के कारण बंुदेलखण्ड की तरह बंुदेली भाषा भी टूटी,बटी और विखरी इससे बोली जैसी बन कर रह गई,इससे एक भरपूर संस्कृति के विलुप्त होने के आसार नजर आने लगे। यद्यपि यह न तो संभव है और न उचित। हालाॅंकि जैसा मैं बता चुका हूॅ कि साहित्य सृजन कभी नहीं रुका पर प्रभावित अवश्य हुआ.।
आज आवश्यकता है ,बंुदेली जो क्षेत्रीय प्रभावों के कारण भदावरी,पंवारी ,खटोला, बनाफरी, गोंण्डी आदि आदि विविध सियासती बोलियों में विखरी है इन सभी रुपों को सम्मिलित कर मानकीकरण किया जावे और गद्य साहित्य में सृजन कर बंुदेली की श्रीवृद्धि की जावे। बंुदेली में साहित्य की अन्य विधाओं में भी सृजन किया जाना समीचीन होगा। जैसे बंगाली,मराठी,राजस्थानी,गुजराती आदि में आजादी के बाद निरंतर सृजन किया जा रहा है। पुराने विषय बदल रहे हैं,शैली बदल रहीं हैं, प्रतिमान बदल रहे हैं –यह सब प्रंासंगिकतायें बंुदेली मे ंहोना अवश्यक है। हिन्दी से बंुदेली की कोई प्रतिद्वंदिता नहीं है पर हिन्दी को व्यापक बनने के लिये बंुदेली जैसी लोक भाषाओं से अभी बहुत कुछ लेना शेष है।अतःजडें मजबूत बनीं रहें तो हिन्दी का बटवृक्ष भी फलता फूलता रहेगा। इसलिये बंुदेली की समृद्धता आवश्यक.है।
यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी में शिक्षा होने और पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से बंुदेली का प्रभाव घटा है,प्रयोग में व्यवहार में बंुदेली का चलन कम हो रहा है पर अपनी संस्कृति सुरक्षित रहे इससे बंुदेली का चलन व संरक्षण बनाये रखना भी आवश्यक है। 1930 में इसीलिये ओरछेश ने भाषा को फिर एक बार राज के लिये राज भाषा घोषित किया था।पं0बनारसीदास चतुर्वेदी आदि ने ‘मधुकर’ के माध्यम से बंुदेली का आन्दोलन भी चलाया था पर आजादी के बाद सब तिरोहित हो गया।
अखिल भारतीय बंुदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषदृ  भोपाल ने बंुदेली के विविधरुपों में गद्य की प्रथम कृति ‘बाॅंके बोल बंदेली के’ और बाद में बंुदेली के ललित निवंधों का ग्रंथ ‘मीठे बोल बंुदेली के’प्रकाशित कर बंुदेली की सामथ्र्य और संभावनाओं को उजागर कर ऐतिहासिक कार्य किया था। बंुदेली की सामथ्र्य को देखते हुये हिन्दी दिवस-2009 पर, राष्ट्ीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली ने बंुदेली के प्रतिष्ठित साहित्यकारों का बंुदेली भाषा अधिवेशन कर बंुदेली को पहली बार राष्ट्ीय पहचान दी थी। वर्तमान दशा और दिशा देखते हुये अखिल भारतीय बंुदेलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद् ने  5 एवं 6 दिसम्बर 2009 को बंुदेलखण्ड की प्राचीन राजधानी और बंुदेली के उर्जा केन्द्र ओरछा में बंुदेली के भाषाविदों एवं रचनाकारों की एक कार्यशाला बंुदेली के मानकीकरण पर सम्पन्न की थी जिसमें घ्वन्यत्माक,व्याकरण,समाजिक संरचनात्मक परिवेश और समस्त उपबोलियों केे आधार पर गंभीरता से विचार किया गया था। मानकीकरण का कार्य एक सत्त प्रक्रिया है जो जारी है । सागर विश्वविद्यालय के पूर्व भाषाविद् स्व0डाॅ0 भगवानदीन मिश्र के संयोजकत्व में 5सदस्यीय कमेटी का गठन एतदर्थ तब किया गया था जो विचार,सम्पर्क और मंथन कर अपनी क्रियान्वयन रिपोर्ट विगत कालिंजर कार्यशाला में प्रस्तुत कर चुकी थी। अनेक कार्यषालायें सम्पन्न कर यह कार्य गति पकड़ चुका है। सागर विश्वविद्यालय इस दिशा में महत्वपूणर््ा कार्य कर रहा है झाॅंसी,ग्वालियर,जबलपुर एवं भोपाल पिष्वविद्यालयों से अभी और अपेक्षायें हैं। बंुदेली का मानकीकरन और विविध आयामी सृृजन सत्त जारी है।मानक बंुदेली में एक ग्रंथ‘नीके बोल बंुदेली के’ प्रकाषित हो चुका है। अब तो बंुदेली का अन्तर्राष्ट्ीय सम्मेलन देष के बाहर नेपाल में हो चुका है और उसमें ‘बंुदेली के ललित निबंध’ ग्रंथ भी वहाॅं के राष्ट्पति द्वारा  लोकार्पित कराया जा चुका है। बंुदेली में समीक्षा और यात्रा वृतान्त का ग्रंथ ‘डगर बंुदेलीःनजर बंुदेली’भी हाल ही में प्रकाष में आ चुका है। कथा,उपन्यास,नाटकों पर काम हो रहा है अतः यह नहीं कहा जा सकता कि बंुदेली में विविध और समृद्ध साहित्य का अभाव है।  आजादी के बाद से बंुदेली को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान प्रदान करने की माॅंग की जा रही है। इससे बंुदेली भाषा को भी धारा 344/1 और 351 का लाभ मिल सकेगा। अर्थात् इससे केवल राष्ट्ीय स्तर पर पुरस्कार और हिन्दी षब्द कोष में बंुदेली के शब्द भी लिये जाते रहेगे। विडम्बना यह है कि अंग्रेजी की तरह हिन्दी से अपनी रोटियाॅं सेंकने बालों की भी कमी नहीं है । राज भाषा हिन्दी समर्थ हो इसके लिये कुछ नहीं करेंगे। न्यायालयों में,मेडिकल में,इंजिनियरिंग आदि में हिन्दी आये इसके लिये नहीं जुटेंगे। अहिन्दी अंचलों में हिन्दी में काम हो। दिल्ली में नाक के नीचे हिन्दी आये दिन अंग्रेजी से विस्थापित की जा रही है इसके लिये कुछ नहीं करेंगे। हाॅं तुलसी,सूरदास,केषव,ईसुरी के क्षेत्रों में लड़ेंगे, औरंगजेब बनेंगे कि जिसने ताजमहल बनाया उसी के हाथ काट लेंगे। जिन लोक भाषाओं से हिन्दी उपजी उन्हीं बंुदेली जैसी लोक भाषाओं का सृजन ,संवाद रोकेंगे। पर विचारें कि संविधान निर्माताओं ने आठवीं अनुसूची बनाई ही क्यों थी? लेकिन अन्य कमतर भाषायें 8वीं सूची में स्थान पा जायें- बोर्डो,संथाली,मैथली आदि, तो इन मठाधीषों को आपत्ति नहीं होती पर 6 करोड़ लोगों की मातृभाषा बंुदेली को आठवीं अनुसूची में स्थान मिलने में इन्हें आपत्ति है। हिन्दी का शब्द कोष एक निरंतर प्रक्रिया है। अतः आवष्यकतानुसार यदि इसमें देषज शब्द नहीं आयेंगे तो विदेषी आयेंगे। जो अधिक घातक है। जैसे इन दिनों देवनागरी की जगह रोमन चलाने की साजिष की जा रही है। यह हमें हानि पहुॅंचायेगी। पर बंुदेली का चलन हमें अपने भारतीय संस्कार देगा। इससे हिन्दी को क्षति होगी यह कहना नितांत भ्रामक है क्योंकि 8वीं सूची में स्थान मिलने से मात्र दो लाभ मिलने के अलावा इससे आगे और कुछ भी इससे नहीं होता। हाॅं ,हिन्दी बोलने बालों की संख्या कम न आॅंकी जावे इससे हमें केवल जनगणना के समय सतर्क रहना होगा। इसलिये बंुदेलखण्ड बाले अपनी मातृ भाषा जनगणना के समय, अपनी मातृ भाषा बंुदेली और व्यवहारिक भाषा हिन्दी , या हिन्दी ; बंुदेली द्धलिखावें। इससे हिन्दी भाषा बालों की संख्या भी प्रभावित नहीं होगी और बंुदेली जैसी सम्पन्न भाषा भी सिंचित होती रहेगी। बंुदेलखण्ड ने हिन्दुस्तान की आजादी में अर्थात देष बनाने में अगणित आहुतियाॅं दी हैं । देष के साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया है अतः बंुदेली कभी भी हिन्दी के लिये अवरोध नहीं बनेगी। इसलिये बिना किसी आषंका या भ्रम के अब आवष्यकता है कि अन्य लोक भाषाओं की तरह बंुदेली को केन्द्र सरकार आठवीं अनुसूची में स्थान प्रदान कर हमारा खोया गौरव लौटाये। गाॅंधी जी ने ही कहा था कि आजादी का मतलब है हम अपनी मातृ भाषा बोलने में षरमायें नहीं, उसे अपनायें। अतः हम सभी हृदय प्रदेष की एक भरी पूरी बंुदेली संस्कृति बचाने और इसे संरक्षण,संवर्धन और उन्नयन करने के लिये जुट जायें।

संदर्भ ग्रंथ-
1-बंुदेली लोक साहित्य,परम्परा और इतिहास-प्रो.नर्मदा प्रसाद गुप्त
2-मीठे बोल बंुदेली के एवं ‘नीके बोल बंुदेली के’- कैलाश मड़बैया
3-बंुदेली काव्य-डाॅ. हरगोविंद सिंह,
4-बंुदेलखण्ड की संस्कृति और साहित्य-रामचरण हयारण मित्र
5-परिनिष्ठित बंुदेली का व्याकरणीय अध्ययन न-डाॅ.रमा जैन,
6-बंुदेलखण्ड की संस्कृति-महेन्द्र कुमार मानव आदि
7-बंुदेली भाषा संस्कृति और साहित्य-डाॅ.कन्हैया लाल शर्मा कलश
8- मधुकर-जून 1943सं0पं बनारसीदास चतुर्वेदी

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
agnihotri1966@gmail.com
sa@upnewslive.com

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