Archive | विचार

साधक साधन और साघ्य - नरेन्द्र सिंह राणा

Posted on 27 July 2011 by admin

साधक-साधन और साध्य तीनों के लिए ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। साधक का स्वभाव भिन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न साधनाओं का आदेश दिया गया है। भिन्न साध्य वस्तुओं का अनुसरण भी किया जाता है। परन्तु स्थूल दृष्टि से नाना प्रकार के साध्य होने पर भी, सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि सब साधकों का साध्य एक ही है-’’वह एक साध्य आत्मतुष्टि है’’। एक उपनिषद में महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी सहधर्मिणी को यह समझाते हैं कि आत्मा के लिए सब कुछ है, आत्मा के लिए सुख है, दुख है, जीवन है, मरण है, धन है, पे्रम है। इसीकारण इस प्रश्न की गुरूता और प्रयोजनीयता बढ़ जाती है कि ’’आत्मा क्या है’’।

बहुत से ज्ञानी और ध्यानी यह कहते हैं कि आत्मज्ञान के लिए इतनी अधिक व्यर्थ की माथा पच्ची क्यों ? इन सब बातों के सूक्ष्म विचार मंे समय नष्ट करना पागलपन है। संसार के आवश्यक विषयों में लगे रहो और मानव जाति के कल्याण की चेष्टा करो। परन्तु संसार के लिए क्या-क्या विषय आवश्यक है तथा मानव जाति का कल्याण कैसे होगा, इन प्रश्नों का समाधान  भी आत्म ज्ञान के ऊपर ही निर्भर करता है। यदि ’’हम अपनी देह को आत्मा समझे ंतो हम उसकी तुष्टि के लिए, अन्य सभी विचारों और विवेचनाओं को तिलांजलि देकर स्वार्थ परायण नर पिशाच बन जायेंगे’’। न्याय अन्याय का कोई विचार न कर उसके मन के संतोष के लिए ही प्राणपण से चेष्टा करेंगे, दूसरों को कष्ट देकर उसे ही सुख देखें, दूसरों का अनष्ठि कर उसी का अभीष्ट करेंगे। यदि देश को ही आत्मवत् देखें तो हम एक बहुत बड़े देशभक्त होगें सम्भवतः इतिहास में अमर कीर्ति छोड़ जाएंगे, परन्तु अन्यान्य धर्माे का परित्याग कर दूसरे के दोषों का अनिष्ट कर सकते हैं, उनके धन का उनकी स्वाधीनता का अपहरण कर सकते हैं। यदि भगवान को आत्मा समझें अथवा आत्मवत् प्यार करंे तो दोनों एक ही बात हैं क्योंकि पे्रमचरम दृष्टि है- तो हम भक्त, योगी, निष्काम कर्मी बनकर साधारण मनुष्य के लिए अप्राप्त शक्ति जान या आनन्द उपभोग कर सकते हैं। यो यच्ध्द्ध स एवं सः जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही हो जाता है। मानव जाति चिरकाल से साधना करती आ रही है, पहले छोटे, फिर अपेक्षाकृत बड़े अन्त में सर्वोच्च पारत्पर साध्य की साधना करती हुई गन्तब्य स्थान श्री हरि के परमधाम को प्राप्त करने के लिए अग्रसर हो रही है। एक युग था जब मानवजाति केवल शरीर का साधन करती थी, शरीर साधन उस समय का युगधर्म था, अन्य धर्मो की अवहेलना करके भी उस समय शरीर का साधन करना श्रेय पथ माना जाता था। यदि वैसा न किया जाता तो जो शरीर धर्म साधन का उपाय और आधार है वह उत्कर्ष को प्राप्त न करता। उसीतरह एक दूसरे युग में स्त्री परिवार, कुल आदि जैसे की आधुनिक युग में जाति ही साध्य होती है। सर्वोच्च परात्पर साध्य परमेश्वर है भगवान है। भगवान ही सबके प्रकृत और परमात्मा है अतएव प्रकृत और परम साध्य है। इसलिए गीता जी में कहा गया है सब धर्मो का परित्याग कर मेरी शरण में आओ क्योंकि भगवान के अन्दर सब धर्मो का समन्वय हो जाता है, उन दयालु परमपिता का साधन करने पर वही हमारे भार ग्रहण कर हमें अपना यंत्र बनाकर, स्त्री, परिवार, कुल, जाति और मानव समष्टि की परम तुष्टि और परम कल्याण को सिद्ध करते हैं।

एक साध्य में नाना साधकों का भिन्न-भिन्न स्वभाव होने के कारण नाना प्रकार का साधन भी होता है। भगवत साधना का एक प्रधान उपाय है ’स्तव स्तोत्र’ स्तव स्तोत्र सबके लिए उपयोगी साधन नही है ज्ञानी के लिए ज्ञान और समाधि, कर्मी के लिए कर्म समर्पण श्रेष्ठ उपाय है ’’स्तव स्तोत्र’ भक्ति का अंग है - श्रेष्ठ अंग नहीं है क्योंकि अहैतुक पे्रमभक्ति का चरम उत्कर्ष है, वह पे्रम स्तव स्तोत्र के द्वारा भगवान के स्वरूप को आयत कर उसके बाद स्तव स्त्रोत्र की आवश्यकता को अतिक्रम कर उस स्वरूप में भोग में लीन हो जाता है। तथापि ऐसा कोई भक्त नहीं जो स्तव स्तोत्र किए बिना रह सके, जब अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती तब भी स्तव स्त्रोत के रूप में प्राणों का उच्चवास उमड़ पड़ता है। केवल इतना स्मरण रखना चाहिए कि साधन साध्य नहीं है। जो मेरा साधन है वह दूसरे का साधन नहीं भी हो सकता है। अनेक भक्तों में यह धारण बैठी हुई दिखाई देती है कि जो भगवान का स्तव स्तोत्र नहीं करते स्तोत्र सुनकर आनन्द प्रकट नहीं करते वे धार्मिक नहीं हैं। यह भ्रांति और ंसकीर्णता का लक्षण है। महात्मा बुद्ध स्तव स्तोत्र का पाठ नहीं करते थे, तदापि बुद्ध को कौन अधार्मिक कह सकता है। भक्ति मार्ग की साधना के लिए स्तव स्तो़त्र की सृष्टि की गई है। भक्त भी नाना प्रकार के होते हैं स्तव स्तोत्र के भी नाना प्रयोग होते हेैं। भक्त दुख के समय भगवान के पास रोकने के लिए सहायता मांगने के लिए उद्धार की आशा से स्तुति करते हैं अर्थात भक्त किसी भी मनोरथ सिद्धि की आशा से धनमान सुख, ऐश्वर्य, जय, कल्याण, भक्ति, मुक्ति इत्यादि के लिए संकल्प करके भगवान के सामने प्रार्थना करते हैं। इस तरह के भक्त बहुत बार भगवान को प्रलोभन दिखाकर संतुष्ट करना चाहते हैं। एक-एक व्यक्ति अभीष्ट सिद्धि न होने पर परमेश्वर के ऊपर क्रोधित हो जाते हैं उन्हें निष्ठुर प्रबन्धक इत्यादि कहकर और हय कहते हैं अब से मैं भगवान की पूजा नहीं करूगां, उन्हें कभी नहीं मानूगां। बहुत से लोग हताश होकर नास्तिक हो जाते हैं और यह सिद्धान्त बना लेते हैं कि यह जगत दुख का राज्य है अन्याय, अत्याचार का राज्य है भगवान नहीं है। यह दो प्रकार की भक्ति अज्ञ भक्ति है पर इसी कारण उपेक्षणीय नहीं है। क्षुद्र से ही महत् में मनुष्य ऊपर उठता है। अविधा का साधन विधा का प्रथम सोपान है। बालक भी अज्ञ होता है परन्तु बालक की अज्ञाता में माधुर्य है, बालक भी माॅं के पास रोने आता है, दुख का प्रतिकार चाहता उपद्रव  करता है। जगजननी भी अज्ञ भगत का सारा हठ और उपद्रव सहन करती है। जिज्ञासु भक्त किसी अर्थ सिद्धि के लिए या भगवान को संतुष्ट करने के लिए स्तवगान नहीं करते उनके लिए स्तव स्तोत्र केवल भगवान के स्वरूप की उपलब्धि तथा अपने भाव की पुष्टि का उपाय है। ज्ञानी भक्त को वह आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि उन्हें स्वरूप की उपलब्धि हो चुकी है, उनका भाव सुदृढ़ और सुप्रतिष्ठित हो गया है। उन्हें केवल भावोच्छवास के लिए स्तव स्तोत्र की आवश्यकता होती है। ’’गीता जी में कहा गया है कि इन चारों श्रैणियों के भक्त उदार है उपेक्षणीय नहीं है, सभी प्रभु के प्रिय है फिर भी ज्ञानी भक्त सर्वश्रेष्ठ है’’। क्योंकि ज्ञानी और भगवान एकात्म होते हैं। भगवान भक्त के साध्य है अर्थात आत्मरूप में ज्ञातव्य और प्राप्य है। ज्ञानी भक्त और भगवान में आत्मा और परमात्मा का संबंध होता है। ज्ञान पे्रम और कर्म इन तीन सूत्रों के द्वारा आत्मा और परमात्मा परस्पर आबद्ध होते हैं। जो कर्म होता है वह कर्म भगवत्त होता है। उसमें कोई प्रयोजन या स्वार्थ नहीं होता है, प्रार्थनीय कुछ भी नहीं होता। पे्रम होता है वह पे्रम कलह और अभिमान से शून्य होता है- निस्वार्थ, निष्कलंक व निर्मल होता है। जो ज्ञान होता वह शुष्क और भाव रहित नहीं होता, गम्भीर तीव्र आनन्द और पे्रम से पूर्ण होता है। साध्य एक होने पर भी जैसा साधक होता है वैसा ही साधन होता है उसी तरह भिन्न-भिन्न साधक एक ही साधन का भिन्न-भिन्न प्रयोग करते हैं।

गुरूप्रसाद।
वर्तमान में उ0प्र0 भाजपा के मीडिया प्रभारी हैं।
लखनऊ, मो0 9415013300

——————————-
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

राहुल की किसान संदेश यात्रा लाचारी या चमत्कारी - नरेन्द्र सिंह राणा

Posted on 13 July 2011 by admin

हमारा भारत कृषि प्रधान देश है। किसान भारत की आत्मा है। मेरे देश की धरती सोना उगलती है। जमीन और किसान का मांॅं-बेेेटे जैसा संबंध होता है। किसान समस्याओं से घिरा है, सरकारी उत्पीड़न का शिकार हो रहा है। उसकी जमीन को जबरन छीना जा रहा है। मना करने पर उसको जेल में डाला जा रहा है। भारत की आत्मा को गोली मारी जा रही है। उनके साथ देने वालों को भी अपराधी घोषित किया जा रहा है। उनकी महिलाओं के साथ दुव्र्यहार किया जा रहा है। किसान हताश है, निराश है लेकिन सरकार और बिल्डर के अन्याय के विरूद्ध एकजुट है। उनकी इसी एकजुटता के कारण मौके की नजाकत को भांपतेे हुए  राजनैतिक दल उनके बीच जा रहे हैं। हाल ही में कांगे्रस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने किसानों का दर्द जानने, उनकी समस्याओं से रूबरू होने, उनसे हमदर्दी जताने और अपनी राजनीति चमकाने आदि को केन्द्र में रखकर चार दिनों तक पश्चिम उ0प्र0 के जनपदों में किसान संदेश यात्रा की। आमजन की भाषा में इस यात्रा को कांगे्रस ने शुद्ध रूप से अपना राजनैतिक वजूद बचाने के लिए किया है। पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह पूर्ण रूप से इसका उद्देश्य भी स्पष्ट है। यात्रा के चार दिनों तक कांगे्रसियों की बाॅंछे खिली रही पुनः कुछ मुरझाने सी लगी हैं। मीडिया जगत को भी इस दौरान भारी भरकम पैकेेज विज्ञापन के रूप में समाचार दिखाने के लिए मिला होगा। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। लखनऊ से लेकर दिल्ली तक कांगे्रसी नेता, मंत्री जो अभी तक राहुल गांधी को भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ताकतवर व बड़े कद का बताते रहे वह अब चापलूसी की दुनिया में अपना नाम रोशन करने के लिए राहुल गांधी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समान बताने लगे। वे शायद भूल गए कि बैरिस्टर गांधी ने कोट पैन्ट उतारकर अपने शरीर पर एक धोती मात्र लपेटी और महल व उसके ऐशोआराम को छोड़कर झोपड़ी में अपना बसेरा बनाया। उन्होंने इन्द्रियों को वश में करने की इसी ताकत के बल पर अंगे्रजों की हुकूमत को अहिंसावादी रास्ते से नाकों चने चबवाते हुए देश से चलता किया। जिस राहुल गांधी के नाम के पीछे जो गांधी लिखा है वह भी महात्मा गांधी ने ही नेहरू खानदान को दिया था। वरना आज राहुल के नाम के पीछे क्या लिखा होता उसका भगवान ही मालिक है। इस संदेश यात्रा पर कुछ बड़बोलो की चुप्पी जरूर आश्चर्यचकित करती है। उसके पीछे कोई बड़ी योजना या कठोर संदेश जरूर छिपा होगा। वैसे इस यात्रा में राहुल गांधी ने पूरे आयोजन में किसी स्थापित केन्द्रीय व राज्य स्तरीय नेता को परदे के पीछे भी भागीदारी नहीं करने दी। संभवतः यह रणनीति राज्य में जंग खाई टीम के तेवरों और रवैयों को देखते हुए बनाई गई। टीम राहुल में इस दफा किसी को अपने परछाई तक नहीं बनने दिया। उनके चक्कर में दो लोगों को हवालात की हवा जरूर खानी पड़ी। एक को हाथ मिलाने की कोशिश में तो दूसरे को मीडिया में इण्टरब्यू देने के चक्कर में। पहले शख्स पेशे से डाक्टर हैं और दूसरे किसान नेता हैं। डाक्टर हरि किशन शर्मा पुत्र बनवारी लाल शर्मा अपने घर से आ रहे थे। साथ में धर्मपत्नी भी थी, रास्ते में राहुल दिखे तो वह अपनी गाड़ी रोककर उनसे हाथ मिलाने चल दिए। उनका कसूर यह था कि वे लाइसेन्सी रिवाल्वर लगाए थे। अगर गैर लाइसैन्सी रखे होते तो पुलिस उनको पहचानती होती और उनको जाने देती लेकिन लाइसेन्सी रिवाल्वर लगाना उनको महंगा पड़ा। निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने के आरोप में मुकदमा दर्ज हुआ पत्नी ने खाट खड़ी की होगी वह अलग से। शर्मा जी जमानत कराकर बाहर आए। अब शायद दोबारा राहुल गांधी को गलियों में घूमने वाला साधारण नेता नहीं जानने की भारी भूल कभी नहीं करेंगे। भारत के प्रधानमंत्री नियुक्त करने वाली सोनिया गांधी का बेटा समझकर दूर ही रहेंगे क्योंकि राजनीतिज्ञों के हाथी के दाॅंत होते हैं जो दिखने में कुछ और खाने में कुछ और होते है। दूसरे किसान नेता मनबीर सिंह तिवतिया जी भट्टा पारसौल में हुई घटना के बाद से पुलिस से बचे हुए थे अब राहुल गांधी के चक्कर में फंस गए हैं। छपास के महारोग जैसी लाइलाज बीमारी के शिकार भी हो गए किसान नेता तिवतिया जी। राहुल उनके लिए राहु साबित हुए। वह जेल में पड़े हैं। प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष को लगा कहीं उनकी पार्टी पर किसान संदेश यात्रा के दौरान किसान नेता को पकड़वाने का कोई आरोप न लगा दे। अतः उन्होंने बिना विलम्ब किए  तिवतिया की गिरफ्तारी को असंवैधानिक करार दे दिया। कई रोज से अखबारों में छपने का अवसर भी नहीं मिल पा रहा था। उन्हें अच्छा मौका हाथ लगा और उन्होंने उसका पूरा लाभ उठाया। राहुल ने कहा उ0प्र0 में दलालों की सरकार है, यह किसानों की जमीन छिनने में दलाली कर रहे हैं। जमीन की पूरी कीमत न मिलने का जो विरोध करता है उसे गोली से उड़ाया जाता है। कृपालपुर गाॅंववासियों ने किसी भी कीमत पर जमीन न देने की बात कही है लेकिन जे0पी0 वाले जिन पर माया सरकार विशेष रूप से मेहरबान है, जबरन जमीन पर काम करवा रहे हैं। गांव कंसेरा की सरोज देवी अपनी व्यथा सुनाते हुए रो पड़ी। उसकी जुबानी माया सरकार के जुल्म की कहानी कह रही थी, जमीन नहीं दी तो बेटे के पासपोर्ट में अड़गा लगा दिया है। उसके बेटे को विदेश में नौकरी के मौके मिल रहे हैं इस स्थिति में वह क्या करे ? उत्पीड़न की शिकार एक महिला ने प्रदेश की महिला मुख्यमंत्री को उनके राज की सच्चाई का जो आइना दिखाया है। वह उनके कुशासन के भ्रष्टाचार, दलालों से साठ-गांठ व सरकारी आतंक को दर्शाने के लिए काफी है। सत्ता के नशे में मदहोश देश की एकता व अखंडता को निजी स्वार्थो के लिए ताक पर रखने वाली पार्टियों ने एक दूसरे को झूठा करार दिया। बसपा ने कहा उल्टा चोर कोतवाल को डांटे कांगे्रस को चोर और अपने को कोतवाल कहा इससे भारतीय जनता पार्टी की जो दोनों दलों के बारे में धारणा है वह सही साबित हो गई। भाजपा ने कांगे्रस, सपा व बसपा के मूल में भ्रष्टाचार भरा बताया है। भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री पूर्व सांसद किरीट सोमैया ने पे्रसवार्ता कर मायावती सरकार पर 2 लाख 54 हजार करोड़ की जनता के धन की लूट के आरोप लगाते हुए प्रमाण सहित एक पुस्तक जारी की है। जनपद नोयडा मात्र में डा0 सोमैया के अनुसार अब तक 40 हजार करोड़ के जमीन घोटाले का प्रमाणित दस्तावेज प्रेस को जारी किया। प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही के नेतृत्व में इसीप्रकार चीनी मिलों के हजारों करोड़ के घोटाले को भी जनता की अदालत में रखा है। भाजपा महामहिम राज्यपाल उ0प्र0 को घोटालों से अवगत करा चुकी है और उनसे सरकार के विरूद्ध कठोर कार्रवाई की मांग की है। निकट भविष्य में पार्टी महामहिम राष्ट्रपति तथा माननीय न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाएगी। कांगे्रस को यू0पी0 में औधें मुंह गिरे दो दशक से ज्यादा हो गया बेशक पिछले लोकसभा चुनाव में उनको विपक्षी दलों की खामियों के कारण कुछ सफलता मिली थी जो उसके बाद हुए उपचुनाव में केन्द्रीय मंत्रियों के परिजन व पसन्दीदा उम्मीदवारों की करारी हार के कारण चारों खाने चित हो गई। बढ़ती कमरतोड़ महंगाई, भ्रष्टाचार, पेट्रोल व डीजल के दाम, किसानों के खाद के दाम, उनकी फसल का उचित मूल्य न मिलना आदि सवाल यक्ष प्रश्न की तरह केन्द्र सरकार के समक्ष मौजूद हैं। किसान बचेगा तो देश बचेगा। युवराज की यह यात्रा कांगे्रसी लाचारी को चमत्कार में बदल पाएगी यह समय बताएगा।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

“जैव विविधता मनाना” जैव विविधता के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस के अवसर पर

Posted on 23 May 2011 by admin

उत्तर प्रदेश राज्य जैव विविधता बोर्ड ने आज जैव विविधता के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया. एक राष्ट्रीय सम्मेलन अवसर था जो वन अधिकारी, वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, गैर लाभ संगठनों और मत्स्य पालन, कृषि, बागवानी और पशुपालन जैसे अन्य विभागों के प्रतिनिधियों ने भाग लेने पर आयोजित किया गया. जैव विविधता के लिए इस वर्ष के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के लिए विषय हैवन जैव विविधता“. यह महत्वपूर्ण है के रूप में पिछले वर्ष 2010 जैव विविधता का अंतर्राष्ट्रीय साल थी और यह 2011 वर्ष वन अंतर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित किया गया.

संयुक्त राष्ट्र संघ भी 2020 तक किया गया है 2011 की घोषणा करने के लिए जैव विविधता के लिए अंतर्राष्ट्रीय दशक हो. के बारे में 400 प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया. इसके अलावा भारत विश्व का भूमि क्षेत्र के 2-4%, पानी के 4% शामिल है, लेकिन वनस्पतियों और पशुवर्ग की दुनिया का रिकॉर्ड प्रजातियों में से 8% करने के लिए घर. भारत में वन आवरण 23.8% के बारे में है लेकिन उत्तर प्रदेश के एक जंगल के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 9.01% की कवर किया है.

इस अवसर पर मुख्य अतिथि उत्तर प्रदेश, श्री फतेह बहादुर सिंह ने सम्मेलन का उद्घाटन के माननीय वन मंत्री थे. उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश कि एक अग्रणी राज्यों में से एक था एक जैव विविधता बोर्ड फार्म यूपी और जैव विविधता के संरक्षण के कारण करने के लिए संवेदनशील है. इस अवसर पर महत्वपूर्ण अतिथि वक्ता श्री किया गया था. P.K. सेन जो मार्च 2011 में Padamshree सम्मानित किया गया है. श्री P.K. सेन चिड़ियाघरों और राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन में एक व्यापक अनुभव है और भी निदेशक, प्रोजेक्ट टाइगर के रूप में काम किया. उन्होंने कहा कि भारत की जैव विविधता के 70% से अधिक जंगलों के भीतर ही सीमित है.

श्री P.B. गंगोपाध्याय, पूर्व मध्य प्रदेश और पूर्व अपर PCCF की. डी.जी.,पर्यावरण और वन, भारत सरकार के मंत्रालय. भारत का भी इस अवसर पर बात की थी. वह भारत में 16 प्रकार के वन पर एक सुंदर प्रस्तुति दी. अपनी बात जैव विविधता के लिए प्रमुख खतरा कवर - भूमि मोड़, अतिक्रमण, fuelwood हटाने, चराई. जंगल की आग, अवैध कटाई, वास विखंडन. उसने कहा कि वह खुश थी कि हर कोई सहमत है कि जैव विविधता को बचाया जा रहा है. कम से कम वहां जैव विविधता की बचत पर आम सहमति थी. वह दो मुख्य अनुरोध किया: करने के लिए दूसरा दुधवा में एक वैकल्पिक रेलवे लाइन है: निम्नतम स्तर वन गार्ड स्तर पर विशेष रूप से रिक्तियों की बहुत कुछ है, है. यह उन पर है कि जंगलों के अस्तित्व निर्भर करता है. सांसद के बारे में 4000 नई वन रक्षकों 2008 में भर्ती थे. ऐसे प्रयासों को अन्य राज्यों में भी जरूरत है.

श्री रमन सुकुमार, प्रोफेसर और अध्यक्ष, पर्यावरण विज्ञान केन्द्र, भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर. श्री सुकुमार वन्यजीव पारिस्थितिकीय और उष्णकटिबंधीय वन पारिस्थितिकीय में विशेषज्ञता है. वह और उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों का महत्व लचीलापन पर बात की मामूली घने जंगलों के बारे में 40% है.. उन्होंने कहा कि बाघ जंगलों की बहुतायत है कि उष्णकटिबंधीय शुष्क वन में सबसे अधिक हैं. भारत में सूखे जंगलों से गैर इमारती लकड़ी वन उत्पाद $ 700 मिलियन सालाना का राजस्व उत्पन्न करते हैं. उन्होंने यह भी कार्बन भारत में उष्णकटिबंधीय शुष्क वन ज़ब्ती क्षमता पर बात की थी. वहाँ एक महान भारत में उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में निर्मित लचीलापन है. उन्होंने कहा कि दीर्घकालिक योजना बना रहा है भारत के जंगलों के लिए आवश्यक है. वह तमिलनाडु में Mudumalai में एक जंगल जो साबित कर दिया कि लंबी अवधि की योजना बना से अधिक सिर्फ 3-4 साल की योजना बना से वन योजना के लिए और अधिक समझ में आता है के लिए 20 वर्ष की वृद्धि डेटा प्रस्तुत किया. उन्होंने कहा कि उष्णकटिबंधीय सदाबहार उष्णकटिबंधीय शुष्क वन अमीर प्रजाति नहीं हो, लेकिन अपने स्वयं के आंतरिक मूल्यों हो सकता है और पर्यावरण परिवर्तनशीलता और अशांति का सामना करने में एक महत्वपूर्ण कार्बन सिंक किया जा सकता है वनों की तुलना में. इस UNFCC तहत अंतरराष्ट्रीय नीति विचार विमर्श के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.

श्री के वेंकटरमन, निदेशक, भारतीय प्राणी सर्वेक्षण भारत की समृद्ध जैव विविधता के बारे में बात की थी. वह पुराने विकास वन जो कुल जंगलों का 36% कर रहे हैं सिर्फ बचत के महत्व पर बल दिया. उन्होंने यह भी कहा कि हाल के एक अध्ययन से पता चला कि जंगल के एक हेक्टेयर 6000 पारिस्थितिक सेवाओं की कीमत डॉलर के एक औसत दिया. डा. PKSingh, निदेशक, भारतीय वानस्पतिक सर्वेक्षण भी इस अवसर पर उपस्थित थे. उन्होंने कहा कि भारत महत्वपूर्ण कृषि बागवानी फसलों की 167 प्रजातियों है.

सम्मेलन में एक भव्य सफलता थी. राष्ट्रीय वानस्पतिक अनुसंधान संस्थान, बीरबल साहनी का Paleobotany संस्थान, औषधीय और सुगंधित पौधों, CDRI, गन्ना प्रजनन अनुसंधान संस्थान और मछली और आनुवंशिक संसाधन, नेशनल ब्यूरो के केन्द्रीय संस्थान के वैज्ञानिकों subtropical बागवानी संस्थान के निदेशक, श्री Ravishanker सब से वन अधिकारियों के साथ राज्य में इस अवसर पर उपस्थित थे.

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

करिश्माई माया

Posted on 12 May 2011 by admin

वह किसी परीकथा की जादुई छड़ी घुमाने वाली नायिका तो नहीं पर उससे भी ज्यादा करिश्माई है…वह किसी पौराणिक कथा की अलौकिक शक्तियों वाली देवी तो नहीं, पर उससे ज्यादा चमात्कारिक है….वह मायावी भी नहीं हाँ माया जरूर है, पर ईश्वर की माया नहीं….वह जीती जागती हाड़मांस की माया है, वह भारतीय राजनीति की माया है, विकृत समाज की माया है…बहुजन समाज को धोका देने वाले विधायको को सुप्रीम कोर्ट तक जाकर दंड दिलाने वाली माया है, अपनो के बीच दलितो ही नहीं सबकी माया है….वह मायावती है जिन्होने उत्तर प्रदेश  के राजनैतिक रंगमंच पर दो दशक से बिसरा दिये गये ब्राह्यमणांे को राजनैतिक तुला पर सबसे शक्तिशाली और परिणाम मुखी ताकत के रूप में पुर्नस्थापित कराकर सभी राजनैतिक दलों को अचंभित कर दिया । सियासी दंगल के चुनावी अंकगणित का गुणनफल बदल दिया है उ0प्र0 की राजनीति में माया का जादू मतदाता से लेकर नेताओं पर जमकर बोल रहा है। यह सब करिश्मा कर देने वाली मायावती ने अपने जीवन की 51 वर्षगांठ के अवसर पर कहा कि देश में सम्पूर्ण बहुजन समाज ही मेरा परिवार है और इस समाज को मान-सम्मान व स्वाभिमान की जिन्दगी बसर करने तथा इन्हे अपने पैरों पर खड़ा करने हेतु मैंने अपना तमाम जीवन समर्पित किया है तथा जिसके लिऐ अनेक प्रकार की दुखः तकलीफे भी उठाई है जो अवश्य ही आने वाली पीढ़ियों के लिऐ प्रेरणा श्र्रोत का काम करेगी हजारों साल से जारी शोषण और दमन के प्रति मूक विद्रोह को प्रचंड सार्थक अभिव्यक्ति देते हुये इस अद्भूत नायिका ने दलित स्वाभिमान को जिस अंदाज में भारतीय लोकतंत्र की अनिवार्यता बनाया है, उसके लिये वह इससे ज्यादा प्रशंसा की हकदार हो सकती है कम रत्ती भी नहीं। मई 2002 को जब मायावती लखनऊ के ऐतिहासिक लामार्टिनियर ग्राउन्ड पर तीसरीबार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रही थी तो सत्ता के सारे दिग्गज हाहाकार कर रहे थे। उस रोज कोई नहीं कह रहा था कि मायावती का मुख्यमंत्री होना कोई चमत्कार है। ध्यान रहे, इससे पहले जब वह 1995 में मुख्यमंत्री बनी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्ह राव ने फिर दूसरी दफा 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उनकी ताजपोशी को भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार करार दिया था। सच भी है, करिश्मा एक या दो बार हो सकता है तीसरी बार नहीं। इन दो प्रधानमंत्रीयों ने ‘चमत्कार’ शब्द को इस्तेमाल बेशक इसी आशा के साथ किया होगा कि अब यह बासपा कभी इस स्थिति में नहीं होगी कि सूबे की सबसे ऊँची कुर्सी पर जा बैठे। एक बार समाजवादी पार्टी के साथ और दूसरी बार कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली बसपा अपनी ताकत इतनी बड़ा होगी कि अकेले दम पर वह प्रदेश की दूसरी नम्बर की पार्टी के रूप में उभर सकती है, वह भी भारतीय जनता पार्टी को हाशिऐ पर धकेल कर। अतीत की बात करे तो 6 वर्ष पूर्व फरवरी में विधानसभा चुनाव होने के पूर्व जो चुनावी सर्वेक्षण हुये उन सब में बसपा को सत्ता से काफी दूर और भाजपा, सपा के मुकाबले बहुत पीछे दर्शाया गया था लेकिन मायवती के जादुई व्यक्तित्व और बदली हुई ठोस रणनीति के चलते नीले झण्डे वाली पार्टी ने 99 सीटें हासिल कर सत्ता की कुंजी अपने पास कैद कर ली थी सो भाजपा के ही मैन अटल बिहारी बाजपेयी को इसमें चमत्कार न दिखना स्वाभाविक था। श्री बाजपेयी ने इस साक्षात हकीकत को समझा और भाजपा को और दुर्गति से बचाने के लिये उन्होनंे मायवती के बड़े हुऐ कद को उचित सम्मान दिया।

राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र जैसे धंुरघरों केे विरोध को नजरअंदाज कर अदम्य इच्छाशक्ति की स्वामिनी मायावती की तीसरी ताजपोशी का पथ प्रशस्त किया । इस पथ का निर्माण चमत्कार या भाग्य की बदौलत से नहीं हुआ इसका श्रेय जाता है मायावती के दलित मिशन को कुछ भारतीय समाज की विसंगतियों-विकृतियों को। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि इन सारी स्थितियों ने एक साथ मिलकर मायावती के रूप मंे ऐसी विलक्षण नायिका गढ़ी है जो एक जातिविहीन समाज की अकेली रचनाकार हो सकती है। मायावती को विलक्षण या अद्भुत कहने के पीछे ठोस तार्किक कारण है। इन्हें समझने के लिऐ उन सारी स्थितियों का विश्लेषण करना होगा जिनके बीच से गुजर कर उन्होंने चैथी बार प्रदेश की बागडोर संभालने की अविश्वनीय कामयावी हासिल की है। यहां एक बार स्पष्ट कर  देना जरूरी है कि यह विश्लेषण किसी मुख्यमंत्री  बन चुकी महिला के लिए नहीं है बल्कि सामाजिक परिवर्तन का दुरूह जंग लड़ रही मिशनरी मायावती को है। मात्र 27 वर्ष के राजनीतिक कैरियर में चैथी बार मुख्यमंत्री होने को मायावती की व्यक्तिगत और मिशनरी दोनों उपलब्धियों के रूप में देखा जाना चाहिए। व्यक्तिगत उपलब्धि इस लिहाज से कि पूरी राजनीतिक यात्रा में उनके गुणों, स्वभाव और क्षमता का योगदान अहम है। यदि वह बेबाक और बिना लाग-लपेट के तीखा बोलने वाली न होती, यदि वह अपने अंदर के विद्रोह को दबा लेती, यदि निडर न होती, यदि वह जान को जोखिम मोल लेने वाली न होती और यदि वह दमन-शोषण झेलने की अभ्यस्त हो चुकी दलित कौम को झिझोड़कर जगाने की नैसर्गिक कला में दक्ष न होतीं तो बेशक न वह आज की तारीख में देश को परिवर्तन की राह दिखाने वाली चैथी बार उ0प्र0 की मुख्यमंत्री नहीं होतीं ओर न कभी पहले हुई होती। हो सकता है वह कहीं कलेक्टर, शिक्षिका या सुविद्दा सम्पन्न गृहस्थी की मालिक होती लेकिन दलितों की आस्था का केन्द्र कतई न होती। इसलिये इस उपलब्धि को व्यक्तिगत कहना अनुचित नहीं होगा। मिशन की कामयाबी तो शत-प्रतिशत हैं। प्रदेश का दलित जागा है, उसमेे राजनितिक चेतना का उदय हुआ है। वह एक झण्डे के नीचे लामबंद हुआ है और ‘बहिन जी’  में अपनी राजनीतिक-सामाजिक आर्थिक मुक्ति तलाश रहा है। इस सत्य-तथ्य से इंकार कौन कर सकता है? जिस सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध उन्हें संघर्ष-पथ तैयार करना था वह ढांचे से होकर गुजरता है जहाँ दििलत स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रही बसपा नेत्री को अपने लिये ‘चमारिन’ शब्द की गाली सुनने के लिये मजबूर होना ही पड़ता है। ध्यान रहे 1995 में लखनऊ स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के विधायकों-कार्यकर्ताओं ने मायावती जैसी कद्दवार नेत्री पर जानलेवा हमला किया था। कहना गलत न होगा, वह समूचा प्रकरण उस घिनौनी सामंती मानसिकता का प्रतिफल था, जो किसी औरत विशेषकर नीची जाति वाली को इस बात की सामाजिक इजाजत नहीं देती कि वह किसी मुलायम सिंह से समर्थन वापस लेने की गुस्ताख हरकत कर सके या पुरूष प्रधान समाज के पक्षधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को हकीकत का आइना दिखा सके। ग्लैमराइज्ड मीडिया भी इसी सिस्टम का अंग बना रहा और दलितों-दरिद्रों की इस रणबांकुरी को हमेशा निगेटिव तोरपर प्रस्तुत करता रहा। याद कीजिए हरिजन शब्द पर की गई मायावती की उस टिप्पणी को जिसमें उन्होंने अछूतों को हरिजन शब्द देने के लिये गाँधी जी के चिंतन को यह कहते हुए खारिज किया था कि अगर अछूत भगवान की संतान (हरि के जन) हैं तो क्या बाकी लोग शैतान की औलाद हैं? इसे देश भर के अखबारों ने मसाला लगाकर इस तरह पेश किया था मायावती ने गांधी जी को शैतान की औलाद कहा। इस संदर्भ में सबसे ज्यादा दिलचस्प और विडम्बनापूर्ण तथ्य यह है कि मायावती को दलित आंदोलन के उन दिग्गजों से भी जूझना पड़ा जो स्वंय को इस बीहड़ नेत्री के समक्ष बौना पाते थे। इस सच्चाई को बसपा सुप्रीमों स्वंय स्वीकारते हैं। ‘आयरन लेडी’ नामक पुस्तिका की प्रस्तावना में काशीराम लिखते हैं ‘जब मैनें मायावती की प्रतिभा उजागर करने के लिये ज्यादा अवसर देने का क्रम शुरू किया तो बहुजन समाज आंदोलन के सीनियर लोगों ने उसे पसंद नहीं किया। वे लोग मायावती की मुखाल्फत करने लगे। इससे मायावती के समक्ष परेशानियाँ आने लगी। 1982 के दौरान दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डी एस-4) संगठन का व्यापक इस्तेमाल किया गया। इसके तहत बहुत सारे प्रयोग किए गए। इन प्रयोगों के दौरान मायावती को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का भरपूर मौका मिला। उन्हंे खूब शोहरत भी हासिल हुई। इससे दलित आंदोलन के सीनियर लोग जलने लगे। वे पूरी ताकत से मायावती का विरोध करने लगे। इसी वातावरण में 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुई। मैने मायावती को 1984 में मुजफ्फरनगर की कैराना सीट से और 1985 में बिजनौर     से लोकसभा का उपचुनाव लड़वाया। वह दोनों चुनाव हारीं जरूर लेकिन बसपा प्रत्याशियों में सबसे ज्यादा वोट पाने का श्रेय उन्हें ही हासिल हुआ। उससे बात नहीं मानी तो वे लोग बसपा छोड़कर चले गए। उन्होंने अपने ढ़ग से काम शुरू किया लेकिन आज उनमें से किसी का अस्तित्व नही है। तो कुल मिलाकर तस्वीर यही उभरती है कि मायावती जो जल में रहकर मगर से बैर मोल लेना था। यह बात दीगर है कि इन विरोधियों की शक्ल कभी धर्मनिरपेक्षता का नारा देने वाले, कभी राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक क्रांति का शंख फूंकने वाले तो कभी दलित आंदोलन को माध्यम बनाकर इसी सिस्टम को आक्सीजन देने वाले अदलते-बदलते रहते है। कभी मुलायम सिंह से तो कभी कांग्रेस से चुनावी गठबंधन मायावती की रणनीति का अहम हिस्सा था और भाजपा के कंधे पर सवार होकर तीन दफा मुख्यमंत्री पद हासिल करने काफी हद तक चाणक्य के कौशल को दर्शाता है। चाणक्य ने नंद वंश का शासन समाप्त करने के लिये उसी की ताकत को अपना औजार बनाया था। ठीक वही काम अब मायावती कर रही है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है मायावती का औरत होना। जिस देश-समाज में औरत को अबला माना जाता हो और सम्मान, आत्मनिर्णय या अधिकार की बात करने वाली को कुलटा-कलंकिनी कहा जाता हो वहां एक दलित औरत का मायावती के रूप में अवतरित होना कभी लगभग असंभव बात होगी, लेकिन आज यह एक जीती-जागती हकीकत है। इस संदर्भ में मायावती की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। वह जिस सामाजिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकली और अपने जटिल दायरों को तोड़ते हुए जो राजनीतिक मुकाम हासिल किया, उसको अविश्वसनीय ही कहा जाना चाहिए क्योंकि भारतीय परिवेश में जयललिता या राबड़ी देवी होना जितना सरल है, मायावती होना उतना ही कठिन। मायावती को राजनीति विरासत नहीं मिली बल्कि उन्होंने खुद ऐसी राजनीतिक जमीन तैयार की जो उनके दलित मिशन के लिए अपरिहार्य थी। वह भारत की किसी अन्य महिला नेता से इन अर्थ में विलक्षण है कि उन्होंने भारतीय राजनीति को अपने उद्देश्य के लिये साधन बनाया है न कि ‘अपने लिये साध्य’। बहुत संभव है कि मात्र इसी बजह से वह अपने अंदर की ज्वाला से दलित चेतना की मशाल प्रज्जवलित करने में कामयाब हुई। साथ ही साथ बसपा को सर्वजन पार्टी बनाकर सफलता के नये सोपान तय करने की दिशा में अग्रसर हो रही है।

surender-agnihotri-21सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

‘माँ’ की महिमा को पहचानिये!

Posted on 07 May 2011 by admin

‘मदर्स डे’ पर विशेष

new-ho‘‘माँ’’ न कहीं पहाड़ पर है न कहीं जंगल में हैं। ‘‘माँ’’ न किसी मन्दिर में है, न किसी गिरिज़ा,  गुरुद्वारे, मस्ज़िद में हैं। ‘‘माँ’’ तो आपके घर में है। जिस माँ ने आपको जन्म दिया है, जिस माँ ने आपको पालपोस कर बड़ा किया है, मैं उसी ‘‘माँ’’ की बात कर रहा हूँ। आज आप जिस माँ की बदौलत ही अपने पैरों पर खड़े हैं, मैं उसी माँ की बात कर रहा हूँ। यह वही माँ है, जब आप पढ़ रहे होते थे और माँ जग रही होती थी, फिर प्यार से दुलार से आपको सुलाती थी, बाद में खुद सोती थी। इतना ही नही आपके सोने से पहले उठकर आपको चाय, दूध देती थी फिर करती थी आपके लिए नाश्ता तैयार और आपको खिला पिलाकर भेजती थी स्कूल। फिर दिन भर इन्तजार करती थी आपके स्कूल से लौटने का, मैं उसी माँ की बात कर रहा हूँ किसी देवी देवता की नही। क्योंकि ‘‘माँ’’ ही देवी है और ‘‘माँ’’ ही देवता। अतः अपनी ‘‘माँ’’ की पूजा करिये और उतारिये उसी ‘‘माँ’’ की आरती और उसी ‘‘माँ’’ की चरणों की धूल को प्रतिदिन अपने माथे पर लगाइये। सच मानिये! आपको अन्य किसी तिलक व टीका लगाने की जरुरत नही पड़ेगी और न ही किसी मन्दिर, मस्ज़िद, गिरिज़ा, गुरुद्वारे में जाने की। अगर आप इन पवित्र और पूजा स्थलों पर जाते भी हैं तो अच्छी बात है किन्तु ‘‘माँ’’ का स्थान भगवान से भी ऊपर है वह इसलिये कि भगवान को भी ‘‘माँ’’ ने ही जन्म दिया है इसलिये ‘‘माँ’’ पहले है और सब बाद में।

यदि आप चाहते हैं कि आप महान बनें, आपका समाज में सम्मान हो, तो इसके लिए आपको ‘‘माँ’’ की शरण में जाना होगा तभी मिलेगी आपको अपनी मंजिल अन्यथा नहीं! यदि आप ‘‘माँ’’ की शरण में चले गये व ‘‘माँ’’ के महत्व को समझ लिया तो निश्चित रुप से आप सफलता प्राप्त करेंगे। इस सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के लिए आपकी आँखों के समक्ष प्रत्येक पल माँ की तस्वीर घूमती रहनी चाहिए। सोते समय, उठते समय, पढ़ते समय, काम करते समय, चिन्तन करते समय, मनन करते समय, भजन करते समय, भोजन करते समय, हर समय प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण ‘‘माँ’’ की तस्वीर आपकी आँखों के सामने घूमती रहनी चाहिये। वह इसलिये कि ‘‘माँ’’ से अधिक आपको प्रेरणा अन्य कोई नही दे सकता, आपको अन्य कोई सफल नही बना सकता। ‘‘माँ’’ से अधिक आपको ‘‘जोश’’ बनाये रखने का सम्बल अन्य कोई प्रदान नही कर सकता क्यांे कि ‘‘माँ’’ त्याग की प्रतिमूर्ति है, ‘‘माँ’’ कर्तव्य की प्रतिमूर्ति है, ‘‘माँ’’ उत्साह व जोश की प्रतिमूर्ति है, ‘‘माँ’’ ममता की प्रतिमूर्ति है इसलिये आप प्रेरणा ‘‘माँ’’ से ही लीजिये। ‘‘माँ’’ को ही आदर्श मानिये ‘‘माँ’’ की तस्वीर को अपने मन मन्दिर में बैठाइये और ‘‘माँ’’ की पूजा करिये सच मानिये तभी आप सफलता के शिखर पर पहुंचेंगे साथ ही कहलाये जायेगे एक सफल व्यक्ति और तभी मंजिल आपके पग चूमेंगी।

जब आप पैदा होते हैं तब ‘‘माँ’’ का दूध ही आपको जीवन देता है। कल्पना कीजिये कि आपको ‘‘माँ’’ का दूध न मिलता तो क्या आपके जीवन की रक्षा हो सकती थी और आप आज जिस स्थिति परिस्थिति में खड़े हैं तो क्या आप होते? कदापि नही! क्योंकि बिना ‘‘माँ’’ की प्रेरणा से आप मंजिल प्राप्त नहीं कर सकते हैं। वह इसलिए कि ‘‘माँ’’ से अधिक ज्ञानी व ‘‘माँ’’ से अधिक आपके हित की बात सोचने वाला इस दुनिया में अन्य कोई नही हैं एक बात और ध्यान से सुन लीजिये ‘‘माँ’’ से अधिक पढ़ा लिखा व ज्ञानी भी कोई नही हैं अगर आप समझते हैं कि ‘‘माँ’’ पढ़ी लिखी नही है तो यह आपकी भूल है। मै मानता हूँ कि इस संसार में और खासकर इस देश में अधिकांश महिलायें पढ़ी लिखी नही हैं और आज भी अशिक्षित हैं उन्हें किताबी ज्ञान नही हैं, उन्हें शब्द ज्ञान व भाषा ज्ञान नही है और उनके पास किसी प्रदेशीय बोर्ड, केन्द्रीय बोर्ड, किसी यूनिवर्सिटी आदि का कोई सर्टीफिकेट नहीं है। किन्तु मेरे दोस्त जब किसी महिला को ईश्वर ‘‘माँ’’ का सर्टीफिकेट दे देता है तो उसके सामने यह बोर्ड व यूनिवर्सिटी द्वारा प्रदत्त सर्टीफिकेट बौने हो जाते हैं। क्यों? वह इसलिये कि यह सर्टीफिकेट तो मनुष्य द्वारा प्रदत्त हैं किन्तु ‘‘माँ’’ का सर्टीफिकेट तो ईश्वर द्वारा प्रदत्त है अब आप ही सोचिये! कि मनुष्य द्वारा प्रदत्त सर्टीफिकेट बड़ा है या ईश्वर द्वारा प्रदत्त सर्टीफिकेट बड़ा? क्या अब भी आप सोचेंगे कि मेरी ‘‘माँ’’ पढ़ी लिखी नही हैं? कदापि नही! आपकी ‘‘माँ’’ पढ़ी लिखी हैं, आपकी ‘‘माँ’’ इतनी विद्वान हैं कि संसार में अन्य कोई विद्वान नहीं, आप तो कदापि नही! इसलिये इस भ्रम में मत रहिये कि मैं पढ़ा लिखा हूँ और मेरी ‘‘माँ’’ पढ़ी लिखी नहीं हैं, यदि आपने ऐसा सोच लिया तो गई आपकी किस्मत अंधेरे में, जिन्दगी भर हाथ पैर मारते रहोगे अंधेरे में। आपके पास पछताने के अलावा शेष कुछ नही बचेगा। यहाँ पर मैं आपको एक किवदन्ति का वर्णन कर रहा हूँ। एक युवक था दो अक्षर पढ़कर अपने आपको पढ़ा लिखा समझता था और अपनी ‘‘माँ’’ को बिना पढ़ा लिखा। सो पढ़कर लिखकर वह नौकरी की तलाश में दूसरे शहर जाने लगा तो ‘‘माँ’’ ने कहा कि बेटा अमुक दिशा में मत जाना और अगर अमुक दिशा में जाना बहुत जरूरी हो तो बेटा ‘‘अंधेर नगरी’’ मत जाना। अंधेर नगरी अमुक दिशा में ही है सो युवक ने सोचा कि ‘‘माँ’’ पढ़ी लिखी तो है नही इसको इतना ज्ञान कहाँ से आ गया अमुक दिशा व अमुक नगरी का। यह तो भूगोल व इतिहास की बातें हैं। माँ को तो चिट्ठी भी पढ़नी नही आती है और कर रही है इतिहास और भूगोल की बातें। ऐसा सोच कर वह युवक उसी अमुक दिशा की ओर चल दिया और वह पूछते-पूछते पहुँच गया वह अंधेर नगरी। अंधेर नगरी पहुँचते ही उस युवक कोएक बड़ी नौकरी मिल गयी तो वह युवक ‘‘माँ’’ के अल्प ज्ञान पर जमकर हँसा। हँसते-हँसते नौकरी करने लगा उस अंधेर नगरी में प्रत्येक वस्तु टका सेर थी (एक रुपये किलो) यानि की सब्जी भी टका सेर और फल भी टका सेर, दूध भी टका सेर व घी भी टका सेर, यानी की सबकुछ टका सेर। यह देखकर युवक बड़ा ही खुश हुआ अब पानी की जगह जूस पीने लगा। दूध की जगह घी पीने लगा। सो कुछ ही दिनों में खा पीकर हट्टा-कट्टा और मोटा हो गया गर्दन भी गेंडे की तरह हो गयी जिसे घुमाने में भी दिक्कत होती थी। एक दिन उस नगरी में एक दुर्घटना हो गयी उस दुर्घटना में सड़क पार कर रहे दो बच्चों को एक ट्रक ने कुचल दिया। वहीं घटना स्थल पर दोनो बच्चों का अन्त हो गया और ट्रक ड्राइवर को पकड़ लिया गया व उसे अंधेर नगरी राजा के सामने हाजिर किया गया। ट्रक ड्राइवर का अपराध बताया कि इसने दो अबोध बालकों को कुचल दिया है। इतना सुनते ही राजा क्रोधित हुआ व उस ड्राइवर को फाँसी की सजा सुना दी। फाँसी की सजा सुनते ही ड्राइवर ने अपने बचाव में कहा कि महाराज! ट्रक तो अमुक मालिक का है मैं तो उसका नौकर हूँ अतः फाँसी ट्रक के मालिक को दी जाय। राजा ने कहा बात तो ठीक है ट्रक के मालिक को पकड़ कर लाओ। ट्रक का मालिक लाया गया और उसको फाँसी की सजा सुना दी गयी। ट्रक के मालिक ने अपने बचाव में कहा कि महाराज! फाँसी की सजा मुझे क्यों? यह सजा तो ट्रक कम्पनी के मालिक को सुनाई जानी चाहिये। तो ठीक है ट्रक कम्पनी के मालिक को बुलाओ। ट्रक का मालिक आया तो फाँसी की सजा उसको सुना दी गयी सजा सुनते ही कम्पनी का मालिक अपने बचाव में बोला महाराज! सजा मुझे क्यों? ट्रक तो कल्लू मिस्त्री ने बनाया था फाँसी कल्लू मिस्त्री को ही दी जानी चाहिए। ठीक है कल्लू मिस्त्री को पकड़कर लाओ, राजा ने हुकुम फरमाया। अब कल्लू मिस्त्री को फाँसी की सजा सुना दी गयी। सजा के मुताबिक कल्लू मिस्त्री को फाँसी के तख्ते पर ले जाया गया किन्तु यह क्या फाँसी का फन्दा कल्लू मिस्त्री की गर्दन में ढीला पड़ गया कल्लू की गर्दन पतली और फंदा बड़ा अब क्या हो? इस समस्या को जल्लादों ने दरबार में जाकर राजा को बताया राजा ने हुक्म दिया कि जिस व्यक्ति की गर्दन में यह फंदा सही आ जाय उस व्यक्ति को फाँसी की सजा दे दी जाय। हुक्म सुनते ही नगर के सिपाही प्रत्येक व्यक्ति की गर्दन में वह फाँसी का फंदा नाप-नाप कर देखने लगे फंदा देखकर गर्दन नापते-नापते वह फंदा उसी नवयुवक की गर्दन में सही बैठ गया। जिस युवक ने अपनी माँ की बात की अनसुनी कर अंधेर नगरी में आ गया था। उस युवक को पकड़कर दरबार में राजा के सामने हाजिर किया गया। और बताया गया कि हुजूर यह फाँसी का फंदा इस युवक के गले में सही बनता है। तो ठीक है इस युवक को ही फाँसी दे दी जाय। फाँसी की सजा सुनकर उस युवक को अपनी गलती का एहसास हुआ और तब उसे ‘‘माँ’’ की बहुत याद आयी ‘‘माँ’’ की याद में वह फूटफूटकर रोने लगा। ‘‘माँ’’ की तस्वीर उस युवक की आँखों के सामने बार-बार आने लगी उस तस्वीर ने युवक से कहा बेटे अब रोने से क्या फायदा यह अज्ञानी राजा तेरे करुण, क्रन्दन करने से तेरी फाँसी की सजा को माफ नही करेगा। हाँ एक बात हो सकती है तू इस राजा से अपनी अन्तिम इच्छा पूरी करने की याचना कर ले उस याचना में मांग ले कि मैं अपनी ‘‘माँ’’ से मिलना चाहता हूँ तब मुझे बुलाया जायेगा और मैं वहाँ आकर तेरे प्राणों की रक्षा कर सकती हूँ। उस युवक को एक बार फिर अपनी ‘‘माँ’’ की बुद्धि व शिक्षा पर सन्देह हुआ कि ‘‘माँ’’ मुझे कैसे जीवन दान दिला सकती है किन्तु सोचने का समय नही था। अतः संकट में ‘‘माँ’’ की बात मान ली और राजा से याचना की कि महाराज! फाँसी से पहले मेरी एक अन्तिम इच्छा है कि भरे दरबार में मेरी मुलाकात ‘‘माँ’’ से करवा दी जाय। उस राजा ने युवक की अन्तिम इच्छा मान ली और आदेश दिया कि इस युवक से पता पूछकर इसकी ‘‘माँ’’ को बुलाया जाय तब तक के लिए फाँसी की सजा टाल दी जाय। नगर के सिपाही उस बताये गये पते पर पहुँचे और उस युवक की ‘‘माँ’’ को दरबार में लाकर हाजिर किया। राजा ने दरबार में इस युवक को भी बुलाया माँ बेटे में कुछ काना-फूसी हुई माँ ने बेटे से कहा तुझे मेरी कसम है मेरे बेटे! मैं राजा से जो कुछ कहूँगी तू उसका विरोध नही करेगा और चुप रहेगा तभी तेरे प्राण बच सकते हैं। तब उस युवक की माँ ने कहा कि हे राजन् मेरे बेटे को फाँसी इसलिये दी जा रही है कि इसकी गर्दन मोटी है और फाँसी का फंदा इसकी गर्दन में सही बैठ गया है किन्तु इस मोटी गर्दन के लिए यह जिम्मेदार नही है इसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ मैने इसको खिला पिलाकर और अपना दूध पिलाकर मोटा किया है इसकी मोटी गर्दन के लिए दोषी यह नहीं, दोषी मैं हूँ क्योंकि मैं इसकी माँ हूँ अतः फाँसी मुझको दी जाय महाराज! ऐसा सुनकर राजा ने आदेश दिया कि युवक को छोड़ दिया जाये और फाँसी इसकी माँ को दी जाय, वह इसलिए कि हमारे शास्त्रांे में भी लिखा है कि सजा चोर को नहीं चोर की नानी को दी जानी चाहिये। अतः यहाँ नानी मौजूद नहीं है और नानी इस दुनियाँ में भी नहीं है अतः इसकी ‘‘माँ’’ को तुरन्त फाँसी दे दी जाय। आदेश में विलम्ब न हो अगर फाँसी का फन्दा बड़ा पड़ रहा हो तो तुरन्त छोटा कर लिया जाय यह हमारा आदेश है और आदेश का पालन किया गया। उस युवक की ‘‘माँ’’ को फांसी दे दी गयी और उस युवक को बाइज्जत बरी कर दिया गया।

अब आप ही बताइये ‘‘माँ’’ के अलावा और कौन है जो आपके लिये अपने प्राणों की बलि दे दे उत्तर है कोई नही! अब आप समझे। ‘‘माँ’’ की कृपा और ‘‘माँ’’ का महत्व तथा ‘‘माँ’’ की शैक्षिक योग्यता! माँ की शैक्षिक योग्यता यह है कि वह अपनी बुद्धि से आपको फाँसी से भी मुक्ति दिला सकती है और बदले में खुद फाँसी के तख्ते पर झूल जाती है। मुसीबत में दुनियाँ आपका साथ छोड़ जाय किन्तु ‘‘माँ’’ आपका साथ नही छोड़ती। दुनियाँ आपको बुरा कहे लेकिन ‘‘माँ’’ आपको बुरा नही कहती है तब ऐसी महिमामयी ‘‘माँ’’ की महिमा को पहचानिये उसकी मूर्ति को मन मन्दिर में बैठाइये उसकी आराधना करिये, उसकी पूजा करिये आपको किसी भी मन्दिर, मस्ज़िद, गिरिज़ा व गुरुद्वारे में जाने की आवश्यकता नही है बस आवश्यकता है ‘‘माँ’’ से प्रेरणा लेने की। तथा गुणों की खान इस पूज्य ‘‘माँ’’ से कुछ गुण सीखने की जो अनगिनत गुणों से भरपूर है ‘‘मेरी माँ’’। मेरी माँ दया, धर्म, करुणा, क्षमा, सहनशीलता, कर्तव्य परायणता, त्याग, तपस्या, वफादारी, ईमानदारी, शालीनता, शान्ति, विनम्रता, कर्मठता, लगनशीलता की प्रतिमूर्ति है, यह तो दो चार उदाहरण मात्र हैं ‘‘माँ’’ के गुणों के। वरना ‘‘माँ’’ में तो इतने गुण विद्यमान है कि उन गुण का बखान भगवान राम और भगवान कृष्ण भी नही कर सके हैं तो मुझ जैसा तुच्छ लेखक माँ के गुणों का बखान कैसे कर सकता है? मेरे लिये बस इतना ही काफी है कि मैं ‘‘माँ’’ के महत्व को अपनी लेखनी द्वारा आपको पहचानने के लिये आपसे अनुरोध कर रहा हूँ इस लेख के माध्यम से। मैं यह जानता हूँ कि ‘‘माँ’’ के सम्पूर्ण गुणों को मैं और आप दोनो ही पूर्ण रुप से अपने जीवन में नही उतार सकते हैं। हाँ एक बात अवश्य है कि अगर हमने ‘‘माँ’’ के विराट रुप को थोड़ा बहुत भी पहचान लिया और अनगिनत गुणों की खान अपनी पूज्य ‘‘माँ’’ के कुछ प्रतिशत गुण भी यदि हमने अपने जीवन में उतार लिये तो हमें सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने से दुनियाँ की कोई ताकत नही रोक सकती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस-जिस व्यक्ति ने अपनी ‘‘माँ’’ के गुणों को अपने जीवन में उतारा है वह इतिहास पुरुष बने हैं और बने हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम! जरा आप सोचिये कि अगर ‘‘राम’’ अपनी माता कैकयी की इच्छा का पालन न करते और वन को न जाते तो क्या ‘‘राम’’ मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और भगवान श्री राम बन पाते? आज भगवान श्रीराम की घर-घर में पूजा होती है वह इसलिए कि उन्होंने कैकयी ‘‘माँ’’ की बात सहज भाव से शिरोधार्य की थी व प्रसन्नतापूर्वक बन चले गये थे। ‘‘माँ’’ के इस आदेश को पालन करने से ही राम को ‘‘भगवान राम’’ बना दिया अन्यथा दशरथ तो राम को केवल ‘‘राजा राम’’ बनाने जा रहे थे तो सोचिये कहाँ ‘‘राजा राम’’ और कहाँ ‘‘भगवान राम’’। यह जादू है माँ के आदेश में, माँ के आदेश के पालन से जब राम भगवान राम बन गये तो आप क्या बन सकते हैं माँ के आदेश पालन करने से, यह आप ही सोचिये। दूसरी और रावण ने अपनी ‘‘माँ’’ का आदेश नहीं माना था, सोचा था कि ‘‘माँ’’ कम पढ़ी  लिखी है, अज्ञानी है, और मैं चारो वेदों का ज्ञाता, विश्व का महान पंडित, विश्व में व्याप्त तमाम शक्तियों का स्वामी। मैं महान ज्ञानी हूँ और बात मान लूँ बिना पढ़ी लिखी ‘‘माँ’’ की! सो रावण ने माँ के आदेश की अवहेलना की, परिणाम सबके सामने हैं सोने की लंका जलकर राख हो गई व पूरा परिवार मिल गया खाक में। काश! रावण भी अपनी ‘‘माँ’’ के इस आदेश को कि सीता जी को पूर्ण सम्मान के साथ श्री राम को लौटा दो मान लेता तो रावण का जो हश्र हुआ वह न होता। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि ‘‘माँ’’ का यह आदेश हमारे हित में नही है? किन्तु ऐसा हमारी अज्ञानतावश होता है ऐसा कोई भी आदेश ‘‘माँ’’ कभी देती ही नही है जो कि हमारे हित में न हो। माँ के आदेश में सोचने विचारने की कोई गुंजाइश नही होती है, आप चाहे जितने बड़े विचारक हों चाहे जितने बड़े मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, प्रशासनिक अधिकारी, नेता, अभिनेता, संत, महात्मा हों  ‘‘माँ’’ की तुलना में आपका ज्ञान नगण्य हैं। इस बात को जब तक आप ध्यान में रखेंगे आप प्रगति पथ पर अग्रसर होते जायेंगे और जिस दिन आपने अपने ज्ञान को सर्वोपरि समझा और आपकी निगाह में ‘‘माँ’’ का स्थान नगण्य हो गया तो समाज की निगाह में आप नगण्य हो जायेंगे। आपका समाज में स्थान ‘‘माँ’’ के स्थान से जुड़ा है जितना अधिक आप अपनी ‘‘माँ’’ को महत्व देते हैं यह समाज उससे सौ गुना महत्व आपको देगा। अतः ‘‘माँ’’ के महत्व को समझिये, ‘‘माँ’’ के आदेशों का पालन करिये और पहुँच जाइये सफलता के सर्वोच्च शिखर पर, बिना ‘‘माँ’’ को महत्व दिये सफलता के शिखर पर पहुँचना एक दिवास्वप्न के बराबर है। जब ईश्वर ने ‘‘माँ’’ के महत्व को समझा है व ‘‘माँ’’ को ही सर्वोपरि माना है तो फिर आप कौन हैं? ईश्वर के सामने! यह प्रश्न मैं आपके लिये छोड़ रहा हूँ, आपके चिन्तन व मनन के लिए।

(हरि ओम शर्मा)
12, स्टेशन रोड, लखनऊ
फोन नं0: 0522-2638324
मोबाइल: 9415015045, 9839012365
ईमेल: hosharma12@rediffmail.com

Comments (0)

सियासत पर दबाव!

Posted on 24 April 2011 by admin

जब सियासत के दबाव यानी अनाचार, अत्याचार व उत्पीड़न से जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी, इसी दबाव में दबा कुचला जन सामान्य अपनी पीड़ा को बयां नहीं कर पा रहा था, वही आज ‘लाबा’ बनकर फूटने वाला है। 10 अपै्रल को ज्वालामुखी विस्फोट होना था, मगर सत्तासीन कांग्रेस ने ऐतिहाती उपाय कर लाबा को फूटने से रोक लिया। अब पलड़ा पलट चुका है। जन सामान्य अन्ना हजारे जैसे संत के नेतृत्व में इन राजनेताओं पर हावी हैं। वायदा किया गया है कि संसद के मानसून सत्र में कारगर लोकपाल बिल पारित हो जायेगा। वास्तव में पारित हो पायेगा? नहीं। जब हम्माम में सभी नंगे हैं, एक आध नेक व ईमानमान नेता है, वे भीष्म और द्रोण बने, अनीति और अन्याय का साथ दे रहे हैं। ऐसे में बिल का लटकाया जाना सियासी कुचक्र चलने का समूचे राष्ट्र को आभास है।

फिलहाल लोकपाल विधेयक की साझा मसौदा समिति की बैठकें शुरू हो चुकी हैं। 30 जून तक कारगर मसौदा बनकर तैयार हो जायेगा। इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने बड़बोले नेताओं के मुंह पर टेप लगा दिया है जो हालात को बिगाड़ने में लगे थे। फर्जी सीडी प्रकरण के नायक अमर सिंह भी कांग्रेस के नजदीक पहुंच गये है ऐसे में उनके मुंह पर स्वतः टेप लग जायेगा। अब जनता के बीच भ्रम पैदा करने की स्थिति नहीं रह गई हैं चारों ओर शांति है। जनाक्रोश का लाबा ठंडा होने का इंतजार कर रहे हैं ये राजनीतिक घराने, ताकि माहौल में ठंडक का अहसास होते ही बिल को लटकाये रखने की अपनी कुत्सित मंशा को सफलता को चोला उड़ा सकें। दूसरी ओर सिविल सोसाइटी के जागरूक चैकीदार अन्ना हजारे-‘‘जागते रहो।’’ का उद्घोष कर आग को ठंडा नहीं होने देना चाहते।

इसी क्रम में अन्ना हजारे इस अभियान को सीधे जनता के बीच में ले जायेंगे। सरकार पर दबाव बढ़ाने के लिए अपनी मुहिम को राजनैतिक पेशबंदी और बैठकों से निकाला जायेगा। इसका श्रीगणेश देश की आत्मा कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश से होगा। दिल्ली अगर दिल है तो यूपी आत्मा। जनाक्रोश को सियासी पेशबंदी के लिए आग का सुलगते रहना जरूरी है। 29 अपै्रल को यूपी की सांस्कृतिक          राजधानी काशी व एक नई की राजनैतिक राजधानी लखनऊ में अन्ना टीम जनता के बीच होगी। दो मई को साझा मसौदा कमेटी की बैठक है, ऐसे में काफी हद तक मामला सकारात्मक बनेगा। काशी और लखनऊ के बीच में 30 अपै्रल को कांग्रेस प्रमुख के गढ़ सुल्तानपुर में जन हुंकार होगी, जो निश्चित रूप से कांग्रेस को जनलोकपाल बिल का नया मसौदा पारित कराने को विवश करेगी। इसके बाद यूपी के सभी जनपदों में अन्ना-टीम जमकर बल्लेबाजी कर ‘जीत’ की संभावना को मजबूत बनायेगी।

देवेष षास्त्री
————-

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

डटे रहो अन्नाभाई!

Posted on 24 April 2011 by admin

एक एनजीओ सरकारी अनुदान पर ‘एड्स नियंत्रण’ अभियान से जुड़ा था जिसके तहत एक सेमीनार होना था। मुझे मुख्यवक्ता के रूप में बुलाया गया। ईश्वरीय प्रेरणा से मेरे मुंह से जो अभिव्यक्ति हुई, उसका कुछ अंश इस प्रकार है। ‘‘सरकार बेवजह करोड़ों रूपये बर्बाद कर रही है, एड्स की जड़ है ‘अय्याशी’ यानी कुकर्म। सरकार ने नैतिकता, पतिव्रता व एकनारी व्रत जैसे शास्त्रोक्त संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने की बात नहीं की, बल्कि कहा है-कुकर्म करो, मगर सुरक्षित। जब कुकर्मी अय्याशी कुत्तों की मौत मरेंगे तो दूसरे सबक लेंगे और कुकर्म से तौबा कर लेंगे, एड्स मिट जायेगा।’ यह लम्बा व्याख्यान जैसे-जैसे बढ़ रहा था वहां मौजूद लोग तालियां बजाकर उत्साह बढ़ा रहे थे और दूसरी ओर कौने में आयोजक (एनजीओ प्रमुख) विछिप्त होकर छाती पीटने में जुटा था। मुख्यवक्ता को बीच में रोकना भी संभव नहीं था क्योंकि शब्द प्रवाह सुनामी रूप धारण कर चुका था, यदि टोका टोकी होती तो जनबल लाबा बनकर फूट पड़ता।

आज उक्त प्रसंग आज भ्रष्टाचार मुद्दे पर सटीक बैठ रहा है। सरकार एक ओर अनीति और भ्रष्टता का संरक्षण करते हुए ‘भ्रष्टाचार’ मिटाने के उपाय पहले से शुरू करने का दावा करती चली आ रही है। इन साठ वर्षों में एक भी भ्रष्ट नेता या अधिकारी को सजा-ए-मौत दी जाती और सख्त कानून की दोहाई सार्थक हो जाती तो शायद पूरा देश सबक लेकर आचरण में सुधार लाता और संत अन्ना हजारे को सख्त व्यवस्था के लिए अनशन नहीं करना पड़ता और देश के करोड़ों करोड़ नागरिक नींद से जाग्रत होकर आक्रोशित क्यों होते?

दूरसंचार क्षेत्र के ‘लाखों करोड़’ के घोटाले में फंसी ‘राजा-टीम’ को फांसी होने की प्रतीक्षा में समूचा देश उत्साहित है जो ‘सड़े गले कानून’ के कारण दिवास्वप्न साबित होंगे। यदि हम यह भी मान लें हमारे कानून सड़े गले नहीं, बल्कि कारगर हैं, तो उनका क्रियान्वयन गरीब रोटी चोर के लिए है, कारपोरेट जगत के दिग्गजों तथा किसी राजनेता-भ्रष्ट नौकरशाही के लिए नहीं है।

घपलेबाजी के महारथी नेता और उनके गुर्गे ‘भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने’ की प्रतिज्ञा करने वाली अन्नाटीम पर अनर्गल आरोप लगाते हुए कारगर व्यवस्था कायम किये जाने की राह में रोड़े अटकाने में लग गये हैं, उनकी मनोदशा उनके अंदर के चोर को अभिव्यक्ति के रूप में जाहिर कर रही है। उन्हें डर है, कि अब उन्हें फांसी पर लटकना ही पड़ेगा। रात में सोत वक्त सपने में फांसी पर लटकते ही हड़बड़ाकर उठ बैठते और अपने बचाव के लिए मीडिया के माध्यम से ‘अन्ना-टीम’ पर नये-नये आरोप गढ़ने लगते हैं।

सरकार ही नहीं, समूची राजनीति, समझ रही है कि जनता पल भर को जागी थी, 9 अपै्रल को फिर सो गई है, ऐसे में हम अपने लिए मुसीबत क्यों मोल लें? कारगर लोकपाल बिल का मसौदा ही नहीं बनने दें, फिर पेश होने का सवाल ही नहीं उठेगा। इस तरह हम सोये हुए देशवासियों को लूटने में लगे रहेंगे। जनता की जाग्रति इतनी जल्दी जाने वाली नहीं। हुकूमत व सियासत उसी रास्ते पर है कि ‘कुकर्म करते रहो, मगर सुरक्षित। इसके लिए जमकर कंडोम भी बांटे जा रहे हैं।’ वे कहते हैं-लगे रहो लुटेरे भाई। देश की करोड़ों करोड़ जनता कह रही है-‘लगे रहो अन्नाभाई।’

देवेष षास्त्री
————-

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

मूल सवाल ‘सदाचार’

Posted on 24 April 2011 by admin

कभी पढ़ा था-‘‘एक चोर राजा के सामने पेश हुआ, उसे मृत्युदंड दिया गया। उसने अपने बचाव के लिए एक युक्ति सोची और कहा कि मेरे पास एक हुनर है जो मेरे मरने के साथ लुप्त हो जायेगा। वह हुनर है ‘सोने की खेती’ सोने के छोटे-छोटे टुकड़े खेत में बोये जायें, तो फिर फसल होगी और सोने की हजार गुनी फसल प्राप्त हो सकती है। सवाल उठा- कौन करे, बुबाई? जिसने कभी चोरी न की हो। अब वहां मौजूद मंत्री से लेकर संतरी तक सभी अपने अतीत में खो गये। किसी ने कहा कि मैंने मां से छिपकर बचपन में लड्डू चुराये थे। किसी ने कुछ, तो किसी ने कुछ। पूरे राज्य में कोई ऐसा नहीं मिला जो ‘चोर’ न हो। राजा ने भी अपने बचपन की ढिठाई व चोरी की बात स्वीकार की। जब सब चोर हैं तो मुझ अकेले को फांसी क्यों?’’ इस कथानक की साम्यता आज भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में देखने को मिल रही है। रिश्वत लेना व देना दोनों भ्रष्टाचार के दायरे में है। ऐसी स्थिति में इस मुहिम में ऐसा व्यक्ति आये जिसने कभी ‘लिया-दिया’ न हो। यह बात उठा रहे हैं आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे राजनेता। इस तरह जनलोकपाल विधेयक की ‘साझा मसौदा समिति’ के सिविल सदस्यों पर कीचड़ उछालकर दलदल में उलझाकर ये नेता देश की जनता को भ्रमित कर रहे हैं। वास्तव में किसी भी तरह की व्यवस्था से जो सर्वाधिक पीड़ित या त्रस्त रहता है वही आवाज उठाता है। आज समूचा देश पीड़ित और त्रस्त है, इसलिए आवाज बुलंद कर रहा है।

महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, व्यभिचार राजनीति- नौकरीशाही के आचरण, जनमानस में काम की जल्दबाजी व भौतिकवादी सोच की बुनियाद ‘भ्रष्टाचार’ है। यानी आचरण की विकृति ही भ्रष्टाचार कहलाती है। वास्तव में आचरण की शुद्धता ही सदाचार है, इसीलिए विचारों की पवित्रता पर जोर दिया जाता रहा है, क्योंकि विचार ही आचरण की आधारशिला है, जो वैचारिक रूप से शुद्ध और पिवत्र है वही सदाचारी है, भले ही उसने देश-काल और परिस्थिति वश कभी कभार समझौता किया हो।

कुल मिलाकर यह प्रश्न महत्वहीन है, कि आंदोलन में जुड़े अथवा समर्थन करने वालों का नैतिक आचरण कैसा था? अतीत को बदलना ही परिवर्तन है। महर्षि बाल्मीकी और दस्युराज अंगुलिमाल इसके उदाहरण है। गड़ी ईंटें उखाड़ने की प्रवृत्ति छोड़कर समूचे देशवासियों को एक जुट होने की दृढ़ इच्छाशक्ति जगानी है, जो संकेत सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आमरण अनशन में ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ के लिए समूचे देशवासियों ने दिये थे। यदि मुट्ठी भर राजनेताओं के बहकावे में हमने मुहिम को कमजोर कर लिया तो फिर हम अपने सपनों को कभी साकार नहीं कर पायेंगे। जरूरत इस बात की है कि इन मुट्ठी भर भ्रष्टता पोषकों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयास करें न कि उनका रंग हम पर चढ़ जाये। हमें स्वयं सदाचारी रहते हुए सदाचार की लहर बनाये रखनी होगी तभी जंग-ए-ईमान में हमारा परचम फहरेगा।

देवेष षास्त्री
————-

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

मुट्ठी भर!

Posted on 24 April 2011 by admin

आजादी के बाद के इन 64 वर्षों में कई बार मुट्ठी भर लोगों ने विभिन्न बिन्दुओं पर क्रांतिकारी कीर्तिमान स्थापित किये हैं। इसी क्रम में भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने की संकल्पना में इंडिया अगेंस्ट करप्शन के मुट्ठी भर लोगों ने संत अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश के करोड़ों लोगों के नैराश्य को दूरकर आशा से लवरेज ‘भाव’ उद्वेलित कर दिये। आक्रोश का लावा धधकने लगा। जन भावनायें ‘आर पार की लड़ाई’ चाहती है इसे जानकर सदाचारी व ईमानदार नेता बिल्कुल शांत हैं उनकी अंतरात्मा जन भावना को परख रही है इनमें कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह प्रमुख हैं। सोनिया जी ने अन्ना हजारे के पत्र का जिस भाषा शैली में जवाब दिया है, उससे सिद्ध हो गया कि वे दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ ‘जनभावना’ का सम्मान कर रही है। प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह भी स्वीकार नेता मौन हैं, ‘‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्’’ यानी सभी जन भावना के साथ हैं। ‘जन’ को आज जनतंत्र में स्वयं शक्तिमान सिद्ध करने का मौका मिला है।

इस जनभावना में सेंध लगाने में मुट्ठी भर ‘महाभ्रष्ट्र’ लगे हैं। इनमें कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और सपा व कांग्रेस के बीच त्रिशंकु बनकर लटके अमर सिंह शामिल हैं। इनका उद्देश्य है शांतिभंग करना। निशाने पर शांति इसलिए हैं, क्योंकि वे न्यायपालिका के सर्वश्रेष्ठ प्रहरी (अधिवक्ता) है जिनकी फीस कल्पना से परे हैं। शांति भूषण इटावा में पिछले कई वर्षों से न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त के आमंत्रण पर इटावा हिन्दी सेवा निधि के सारस्वत सम्मान समारोह में आ रहे हैं, जिनके सम्मान में स्वयं जस्टिस गुप्त कहते रहे हैं ‘‘शांति भूषण जी वरिष्ठ अधिवक्ता हैें, जिनके एक-एक मिनट की कीमत लाखों रूपये है, वे इटावा के लोगों के प्यार से लाखों का घाटा उठाकर आये हैं।’’ पूरा देश जानता है उनकी ऊंची फीस। ऐसे में समाजवादी पार्टी के किसी केस के लिए 50 लाख रूपये बतौर फीस दिये तो बवंडर क्यो? सीडी की सत्यता पर जो माथा पच्ची चल रही है तो यह उसी शांति भंग का हिस्सा है। वकील का नैतिक धर्म है, अपने क्लाइंट को जिताना। सबूतों के आधार पर झूठ को सच और सच को झूठ बनाकर पेश करना। सीडी की वार्ता इसी ‘धर्म’ का हिस्सा है।

‘भ्रष्टाचार’ के दायरे में शांतिभूषण व प्रशांत भूषण कहीं भी नहीं आते हैं। भूमि आवंटन मुद्दा हो या सीडी प्रकरण। यह सब कुछ मुट्ठी भर लोगों का अनीति पोषक ‘क्रांतिकारी’ कुपथगामी कदम है। अकर्मण्यता, कामचोरी तथा लोभ, लालच में पक्षपात आदि बहुत कुछ भ्रष्टाचार की परिधि में आते हैं। जब कोई वेतन भोगी शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाता है तो वह भ्रष्ट है, वहीं दूसरी ओर अंशकालिक प्राइवेट शिक्षक का ट्यूशन पढ़ाना सदाचार है। उसी तरह कोचिंग का पंजीयन उसी का होता है जो कहीं सरकारी वेतन भोगी न हो। जहां तक न्याय क्षेत्र का सवाल है तो रिश्वत लेकर निर्णय पलटना, पक्षपात करना भ्रष्टता है, पेशकार द्वारा हर काम के लिए पैसे मांगना भ्रष्टाचार है, मगर वकील का कलम चलाने के लिए फीस लेना कतई वैध है। अधिवक्ता की क्षमता व अनुभव उसकी दर निर्धारित करते हैं। कुछ तो खासियत होगी ही ‘भूषण वंश’ में, जो सपा ने अपने केस की पैरवी के लिए 50 लाख रूपये दिये थे। उस भूषणवंश को लेकर भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को रोकने का षडयंत्र जनभावना को पलटने की बजाय इन षडयंत्रकारी मुट्ठी भर लोगों को छिन्न-भिन्न कर देगी जनता।

देवेष षास्त्री
————-

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

Comments (0)

बिमारी क्यों हो रही है?

Posted on 10 April 2011 by admin

100_2615जन लोकपाल विल के लिऐ दूसरी आजादी की लड़ाई जन्तर मन्तर पर जनयोद्धा अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन की जीत के साथ कुछ सवाल जरूरी हो गये है कि देश में भ्रष्टाचार की बिमारी क्यों हुई है इसके पीछे छिपे कारणों को जानना और उनका परीक्षण करके उनका निदान किये बिना कोई भी फायदा नहीं मिल सकता है कानूनों के मकड़ जाल से जन यदि सुखी हो सकता होता तो कब का यह देश सोने की चिड़िया बन गया होता। कवि धूमिल जनतंत्र में संसद की जन के प्रति भूमिका पर सवाल करते हुए यह कविता लिखते है-

एक आदमी/रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/एक तीसरा आदमी भी है/जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है। /वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूँ ‘यह तीसरा आदमी कौन है’? मेरे देश की संसद मौन है। इस मौन को तोड़ने के लिये संविधान में निहित आधार तत्व को समझकर एक बार फिर दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने का वक्त आ गया है। टयूनिशिया में हुई जनक्रांति की आहट हमारे देश में भी आने लगी है। इस आहट के पीछे के सच को खोजने का समय बेचैनी पैदा कर रहा है। आजादी के अनेक सालों के बाद दूसरी आजादी की परिकल्पना मन में आना कहीं न कहीं इस व्यवस्था में गुत्थमगुत्था पैदा होने का कारण है। यह विचित्र समय है जब जज से लेकर मंत्रियों तक के दामन दागदार दिख रहे है। डगमग-डगमग होती नैय्या के पीछे छिप शैतानी हाथों और उसके रिमोड कन्ट्रोल की सच्चाईयां जानना ही होगा। वरना पश्चाताप के सिवा कुछ शेष नही रह जायेगा। दिशाहीन, दिशाहारे लोग अपने स्वार्थो के लिये आँखों पर काली पट्टी बांध कर मौनी बाबा बने हुये है। उन्हें जन के मन से कोई लेनादेना नही है। सारे दरवाजे अकेलेपन जैसे हो गये है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की सोच को तिलांजलि देकर संविधान की मूल भावना को तिरोहित कर के संसद की सेन्टर टेबल पर खुशी मनाने में मग्न है। जनता की रूलाई उन्हंे दिखाई नही देती है। ऐसा लगता है कि जनता की आॅखों में उतरे शोक के आॅसू उन्हें खुशी के आॅसू नजर आ रहे है। लगातार किसान से लेकर युवा तक पराधीन और दैयनीय जीवन जीते जीते आत्महत्या तक करने को मजबूर है। आदमी के मरते हुये चेहरे को देखने का साहस न जुटा पाने वाले लोगों के खिलाफ एक कमजोर हाथ एक मुठ्ठी में ताकत बटोर कर सब कुछ तहस नहस न कर दे इससे पूर्व संविधान को एक बार देखने का वक्त आ गया है। सरकारें अनिश्चितांओं से नहीं अपितु जनमत कराकर नीति तय करे। बाजारवाद चलेगा या संविधान मंे प्रदत्त उद्देशिका वाला समाजवाद।

भारतीय संविधान के आधार-तत्व तथा उसका दर्शन
किसी संविधान की उद्देशिका से आशा की जाती है कि जिन मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन पर संविधान आधारित हो तथा जिन लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास करने के लिए संविधान निर्माताओं ने राज्य व्यवस्था को निर्देश दिया हो, उनका उसमंे समावेश हो।

हमारे संविधान की उद्देशिका मंे जिस, रूप में उसे संविधान सभा ने पास किया था, कहा गया हैः हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुत्वसंपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए उसके समस्त नागरिकों को न्याय स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उन सबमें बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं। न्याय की परिभाषा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के रूप में की गई है। स्वतंत्रता में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सम्मिलित है और समानता का अर्थ है प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता ।

वास्तव में, न्याय, स्वतंत्रता, सामनता और बंधुता एक वास्तविक लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के अत्यावश्यक सहगामी तत्व है, इसलिए उनके द्वारा केवल लोकतंत्रात्मक गणराज्य की संकल्पना स्पष्ट होती है। अंतिम लक्ष्य है व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करना। इस प्रकार, उद्देशिका यह घोषणा करने का काम करती है कि भारत के लोग संविधान के मूल स्त्रोत हैं, भारतीय राज्य व्यवस्था में प्रभुता लोगों में निहित है और भारतीय राज्य व्यवस्था लोकतंत्रात्मकहै जिसमें लोगों को मूल अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं की गारंटी दी गई है तथा राष्ट्र की एकता सुनिश्चत की गई है। हमारे संविधान की उद्देशिका में बहुत ही भव्य और उदात्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। वे उन सभी उच्चतम मूल्यों को साकार करते हैं जिनकी प्रकल्पना मानव-बुद्धि,  कौशल तथा अनुभव अब तक कर पाया है।

42वें संशोधन के बाद जिस रूप में उद्देशिका इस समय हमारे संविधान में विद्यमान है, उसके अनुसार, संविधान निर्माता जिन सर्वोच्च या मूलभूत संवैधानिक मूल्यांे मंे विश्वास करते थे, उन्हें सूचीबद्ध किया जा सकता है। वे चाहते थे कि भारत गणराज्य के जन-जन के मन में इन मूल्यों के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता जगे-पनपे तथा आनेवाली पीढ़ियां, जिन्हें यह संविधान आगे चलाना होगा, इन मूल्यों से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। ये उदात्त मूल्य हैः

संप्रभुता, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र, गणराज्यीय स्वरूप, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, व्यक्ति की गरिमा, और, राष्ट्र की एकता तथा अखंडता।

समाजवाद
संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा या वाद विशेष ने जुड़ा हो या किसी आर्थिक सिंद्धात द्वारा सीमित हो। इसलिए वे उसमंे, अन्य बातों के साथ-साथ, समाजवाद के किसी उल्लेख को सम्मिलित करने के लिए सहमत नही हुए थे। किंतु उद्देशिका मंे सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय और प्रतिष्ठा तथा  अवसर की समानता दिलाने के संकल्प का जिक्र अवश्य किया गया था। संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हमारे गणराज्य की विशेषता दर्शाने के लिए समाजवादी शब्द का समावेश किया गया। यथासंशोधित उद्देशिका के पाठ मंे समाजवाद के उद्देश्य को प्रायः सर्वोच्च सम्मान का स्थान दिया गया है। संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न के ठीक बाद इसका उल्लेख किया गया है। किंतु समाजवाद शब्द की परिभाषा संविधान मंे नही की गई।

संविधान (45वां संशोधन) विधेयक मंे समाजवादी की परिभाषा करने का प्रयास किया गया था तथा उसके अनुसार इसका अर्थ था इस प्रकार के शोषण-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-से मुक्त। इस विधेयक को अंततः 44वें संशोधन के रूप में पास किया गया, किंतु इसमंे समाजवादी की परिभाषा नहीं थी। समाजवादी की परिभाषा करना कठिन है। विभिन्न लोग इसका भिन्न-भिन्न अर्थ लगाते है और इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं है। शब्दकोश के अनुसार समाजवाद मंे उत्पादन तथा वितरण के साधन, पूर्णतया या अंशतया, सार्वजनिक हाथों मंे अर्थात सार्वजनिक (अर्थात राज्य के) स्वामित्व अथवा नियंत्रण में होने चाहिए।

समाजवाद का आशय यह है कि आय तथा प्रतिष्ठा और जीवनयापन के स्तर मंे विषमता का अंत हो जाए। इसके अलावा, उद्देशिका मंे समाजवादी शब्द जोड़ दिए जाने के बाद, संविधान का निर्वचन करते समय न्यायालयांे से आशा की जा सकती थी कि उनका झुकाव निजी संपत्ति, उद्योग आदि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर राज्य के स्वामित्व के तथा समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार के पक्ष में होता है। ’

भारतीय संविधान के उद्देश्यों के विरूद्ध
गुपचुप तरीके से बाजारवादी व्यवस्था को थोपने के दुस्परिणाम सामने आने लगे है। नक्सलवाद और अराजकता के जाल मंे उलझते भारत को बचाने के लिए सिर्फ जनलोक पाल बिल से काम चलने वाला नहीं है हमें सरकार पर दबाव डालना होगा कि आपने बिना रिफरेडम कैसे बाजारवादी व्यवस्था को अपना लिया है दूसरी आजादी तभी मिलेगी जब तक हम समाजवादी व्यवस्था लागू नहीं करवा पाते है जो संविधान की मूल भावना की उद्देशिका में सामिल किया गया है। बदलते परिवेश में क्या देश के लिऐ उचित है क्या अनुचित?  फैसला जनमत संग्रह से होना चाहिए। यह कोई सामान्य व्यवस्था नहीं है जिसे हमारे चुने प्रतिनिधि तय कर ले, बल्कि संविधान के उद्देश्यों मंे परिवर्तन लाना है। बर्ना लगड़ी और कटपुतली सरकारें  टाटा और अंबानी जैसे बाजारवादी व्यवस्था के समर्थक लोगों की चेरी बनने को मजबूर रहेगी और बजारवादी लोग अपने लाभकारी निहतार्थ पूरे करते रहेंगे। जन लोकपाल बिल में कुछ शर्ते जोड़ना होगी जिनमें कानून के विपरीत कार्य मंे स्वतः रदद होना मुख्य होता है इस देश को बचाना है तो सबसे पहले कानून के विपरीतकार्य के द्वारा होने वाले लाभ को रद्द करना अनिवार्य कदम होगा। जिस तरह टू-जी स्टेंप घोटाले में लाईसेंस होल्डरों के लाईसेंस अभी तक रद्द न होना चिंता का सबब बना हुआ है इसी कारण गलत कार्यो को लगातार होने को बल मिलता है। सबसे पहले टूजी घोटाले के लाभार्थियों के करार को रद्द करने के साथ ही घोटाले करने वालों की सजा के मामले में निर्णय देने की समय सीमा न्यायालय के सामने होना चाहिए। करार रद्द होने के कारण कोई भी कठिनाई पैदा हो और इस कठिनाई से जूझने के लिए भारतीय जनता को तैयार रहना चाहिए क्योकि जो भी कार्य जन्म से ही गलत था उसे कैसे न्याय उचित या देश की पूॅजी के नाम पर पर्दा डालने का खेल खेला जा सकता है। इन कठोर निर्णय के बिना  भ्रष्टाचार का सिलसिला नही रुक सकता है।  ट्रांसफर प्रापर्टी एक्ट जैसे अनेक प्रावधान है जिनमें कुछ कानून के अन्तर्गत स्वतः निरस्त हो जाते है और कुछ को इंगित करने पर निरस्त किया जाता है। लेकिन जो कार्य जन्म से ही गलत है उसे खत्म होना ही चाहिए। चाहे इस कार्य को सरकार ने किया हो या पूंजीपति ने अथवा जनता ने यह तो तय करना ही होगा। क्योंकि आर्दश सोसायटी जैसे अनेक मामले सामने आये हैै जहां पर्यावरण को अनदेखा किया गया। कहीं नीतियों में हेरफेर किया गया। तो कहीं लाभार्थियों के नाम बदले गये है। जब जन्म से ही इन मामलों में गलत हुआ है तो उसे रद्द करना ही पड़ेगा। हमे बिमारी को दबाने के उपाय के स्थान पर बिमारी के कारणों की खोज करना जरूरी है। तभी बिमारी का समूलनाश हो पायेगा।

’ इस आलेख में सुभाष कश्यप लिखित पुस्तक हमारा संविधान के अंश समाहित है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन- 120/132
बेलदारी लेन, लालबाग
लखनऊ
मो0ः 9415508695
(लेखक-दैनिक भास्कर के लखनऊ ब्यूरोप्रमुख है।)

Comments (0)

Advertise Here

Advertise Here

 

November 2024
M T W T F S S
« Sep    
 123
45678910
11121314151617
18192021222324
252627282930  
-->









 Type in