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साधक साधन और साघ्य - नरेन्द्र सिंह राणा

Posted on 27 July 2011 by admin

साधक-साधन और साध्य तीनों के लिए ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। साधक का स्वभाव भिन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न साधनाओं का आदेश दिया गया है। भिन्न साध्य वस्तुओं का अनुसरण भी किया जाता है। परन्तु स्थूल दृष्टि से नाना प्रकार के साध्य होने पर भी, सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि सब साधकों का साध्य एक ही है-’’वह एक साध्य आत्मतुष्टि है’’। एक उपनिषद में महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी सहधर्मिणी को यह समझाते हैं कि आत्मा के लिए सब कुछ है, आत्मा के लिए सुख है, दुख है, जीवन है, मरण है, धन है, पे्रम है। इसीकारण इस प्रश्न की गुरूता और प्रयोजनीयता बढ़ जाती है कि ’’आत्मा क्या है’’।

बहुत से ज्ञानी और ध्यानी यह कहते हैं कि आत्मज्ञान के लिए इतनी अधिक व्यर्थ की माथा पच्ची क्यों ? इन सब बातों के सूक्ष्म विचार मंे समय नष्ट करना पागलपन है। संसार के आवश्यक विषयों में लगे रहो और मानव जाति के कल्याण की चेष्टा करो। परन्तु संसार के लिए क्या-क्या विषय आवश्यक है तथा मानव जाति का कल्याण कैसे होगा, इन प्रश्नों का समाधान  भी आत्म ज्ञान के ऊपर ही निर्भर करता है। यदि ’’हम अपनी देह को आत्मा समझे ंतो हम उसकी तुष्टि के लिए, अन्य सभी विचारों और विवेचनाओं को तिलांजलि देकर स्वार्थ परायण नर पिशाच बन जायेंगे’’। न्याय अन्याय का कोई विचार न कर उसके मन के संतोष के लिए ही प्राणपण से चेष्टा करेंगे, दूसरों को कष्ट देकर उसे ही सुख देखें, दूसरों का अनष्ठि कर उसी का अभीष्ट करेंगे। यदि देश को ही आत्मवत् देखें तो हम एक बहुत बड़े देशभक्त होगें सम्भवतः इतिहास में अमर कीर्ति छोड़ जाएंगे, परन्तु अन्यान्य धर्माे का परित्याग कर दूसरे के दोषों का अनिष्ट कर सकते हैं, उनके धन का उनकी स्वाधीनता का अपहरण कर सकते हैं। यदि भगवान को आत्मा समझें अथवा आत्मवत् प्यार करंे तो दोनों एक ही बात हैं क्योंकि पे्रमचरम दृष्टि है- तो हम भक्त, योगी, निष्काम कर्मी बनकर साधारण मनुष्य के लिए अप्राप्त शक्ति जान या आनन्द उपभोग कर सकते हैं। यो यच्ध्द्ध स एवं सः जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही हो जाता है। मानव जाति चिरकाल से साधना करती आ रही है, पहले छोटे, फिर अपेक्षाकृत बड़े अन्त में सर्वोच्च पारत्पर साध्य की साधना करती हुई गन्तब्य स्थान श्री हरि के परमधाम को प्राप्त करने के लिए अग्रसर हो रही है। एक युग था जब मानवजाति केवल शरीर का साधन करती थी, शरीर साधन उस समय का युगधर्म था, अन्य धर्मो की अवहेलना करके भी उस समय शरीर का साधन करना श्रेय पथ माना जाता था। यदि वैसा न किया जाता तो जो शरीर धर्म साधन का उपाय और आधार है वह उत्कर्ष को प्राप्त न करता। उसीतरह एक दूसरे युग में स्त्री परिवार, कुल आदि जैसे की आधुनिक युग में जाति ही साध्य होती है। सर्वोच्च परात्पर साध्य परमेश्वर है भगवान है। भगवान ही सबके प्रकृत और परमात्मा है अतएव प्रकृत और परम साध्य है। इसलिए गीता जी में कहा गया है सब धर्मो का परित्याग कर मेरी शरण में आओ क्योंकि भगवान के अन्दर सब धर्मो का समन्वय हो जाता है, उन दयालु परमपिता का साधन करने पर वही हमारे भार ग्रहण कर हमें अपना यंत्र बनाकर, स्त्री, परिवार, कुल, जाति और मानव समष्टि की परम तुष्टि और परम कल्याण को सिद्ध करते हैं।

एक साध्य में नाना साधकों का भिन्न-भिन्न स्वभाव होने के कारण नाना प्रकार का साधन भी होता है। भगवत साधना का एक प्रधान उपाय है ’स्तव स्तोत्र’ स्तव स्तोत्र सबके लिए उपयोगी साधन नही है ज्ञानी के लिए ज्ञान और समाधि, कर्मी के लिए कर्म समर्पण श्रेष्ठ उपाय है ’’स्तव स्तोत्र’ भक्ति का अंग है - श्रेष्ठ अंग नहीं है क्योंकि अहैतुक पे्रमभक्ति का चरम उत्कर्ष है, वह पे्रम स्तव स्तोत्र के द्वारा भगवान के स्वरूप को आयत कर उसके बाद स्तव स्त्रोत्र की आवश्यकता को अतिक्रम कर उस स्वरूप में भोग में लीन हो जाता है। तथापि ऐसा कोई भक्त नहीं जो स्तव स्तोत्र किए बिना रह सके, जब अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती तब भी स्तव स्त्रोत के रूप में प्राणों का उच्चवास उमड़ पड़ता है। केवल इतना स्मरण रखना चाहिए कि साधन साध्य नहीं है। जो मेरा साधन है वह दूसरे का साधन नहीं भी हो सकता है। अनेक भक्तों में यह धारण बैठी हुई दिखाई देती है कि जो भगवान का स्तव स्तोत्र नहीं करते स्तोत्र सुनकर आनन्द प्रकट नहीं करते वे धार्मिक नहीं हैं। यह भ्रांति और ंसकीर्णता का लक्षण है। महात्मा बुद्ध स्तव स्तोत्र का पाठ नहीं करते थे, तदापि बुद्ध को कौन अधार्मिक कह सकता है। भक्ति मार्ग की साधना के लिए स्तव स्तो़त्र की सृष्टि की गई है। भक्त भी नाना प्रकार के होते हैं स्तव स्तोत्र के भी नाना प्रयोग होते हेैं। भक्त दुख के समय भगवान के पास रोकने के लिए सहायता मांगने के लिए उद्धार की आशा से स्तुति करते हैं अर्थात भक्त किसी भी मनोरथ सिद्धि की आशा से धनमान सुख, ऐश्वर्य, जय, कल्याण, भक्ति, मुक्ति इत्यादि के लिए संकल्प करके भगवान के सामने प्रार्थना करते हैं। इस तरह के भक्त बहुत बार भगवान को प्रलोभन दिखाकर संतुष्ट करना चाहते हैं। एक-एक व्यक्ति अभीष्ट सिद्धि न होने पर परमेश्वर के ऊपर क्रोधित हो जाते हैं उन्हें निष्ठुर प्रबन्धक इत्यादि कहकर और हय कहते हैं अब से मैं भगवान की पूजा नहीं करूगां, उन्हें कभी नहीं मानूगां। बहुत से लोग हताश होकर नास्तिक हो जाते हैं और यह सिद्धान्त बना लेते हैं कि यह जगत दुख का राज्य है अन्याय, अत्याचार का राज्य है भगवान नहीं है। यह दो प्रकार की भक्ति अज्ञ भक्ति है पर इसी कारण उपेक्षणीय नहीं है। क्षुद्र से ही महत् में मनुष्य ऊपर उठता है। अविधा का साधन विधा का प्रथम सोपान है। बालक भी अज्ञ होता है परन्तु बालक की अज्ञाता में माधुर्य है, बालक भी माॅं के पास रोने आता है, दुख का प्रतिकार चाहता उपद्रव  करता है। जगजननी भी अज्ञ भगत का सारा हठ और उपद्रव सहन करती है। जिज्ञासु भक्त किसी अर्थ सिद्धि के लिए या भगवान को संतुष्ट करने के लिए स्तवगान नहीं करते उनके लिए स्तव स्तोत्र केवल भगवान के स्वरूप की उपलब्धि तथा अपने भाव की पुष्टि का उपाय है। ज्ञानी भक्त को वह आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि उन्हें स्वरूप की उपलब्धि हो चुकी है, उनका भाव सुदृढ़ और सुप्रतिष्ठित हो गया है। उन्हें केवल भावोच्छवास के लिए स्तव स्तोत्र की आवश्यकता होती है। ’’गीता जी में कहा गया है कि इन चारों श्रैणियों के भक्त उदार है उपेक्षणीय नहीं है, सभी प्रभु के प्रिय है फिर भी ज्ञानी भक्त सर्वश्रेष्ठ है’’। क्योंकि ज्ञानी और भगवान एकात्म होते हैं। भगवान भक्त के साध्य है अर्थात आत्मरूप में ज्ञातव्य और प्राप्य है। ज्ञानी भक्त और भगवान में आत्मा और परमात्मा का संबंध होता है। ज्ञान पे्रम और कर्म इन तीन सूत्रों के द्वारा आत्मा और परमात्मा परस्पर आबद्ध होते हैं। जो कर्म होता है वह कर्म भगवत्त होता है। उसमें कोई प्रयोजन या स्वार्थ नहीं होता है, प्रार्थनीय कुछ भी नहीं होता। पे्रम होता है वह पे्रम कलह और अभिमान से शून्य होता है- निस्वार्थ, निष्कलंक व निर्मल होता है। जो ज्ञान होता वह शुष्क और भाव रहित नहीं होता, गम्भीर तीव्र आनन्द और पे्रम से पूर्ण होता है। साध्य एक होने पर भी जैसा साधक होता है वैसा ही साधन होता है उसी तरह भिन्न-भिन्न साधक एक ही साधन का भिन्न-भिन्न प्रयोग करते हैं।

गुरूप्रसाद।
वर्तमान में उ0प्र0 भाजपा के मीडिया प्रभारी हैं।
लखनऊ, मो0 9415013300

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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

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