कभी पढ़ा था-‘‘एक चोर राजा के सामने पेश हुआ, उसे मृत्युदंड दिया गया। उसने अपने बचाव के लिए एक युक्ति सोची और कहा कि मेरे पास एक हुनर है जो मेरे मरने के साथ लुप्त हो जायेगा। वह हुनर है ‘सोने की खेती’ सोने के छोटे-छोटे टुकड़े खेत में बोये जायें, तो फिर फसल होगी और सोने की हजार गुनी फसल प्राप्त हो सकती है। सवाल उठा- कौन करे, बुबाई? जिसने कभी चोरी न की हो। अब वहां मौजूद मंत्री से लेकर संतरी तक सभी अपने अतीत में खो गये। किसी ने कहा कि मैंने मां से छिपकर बचपन में लड्डू चुराये थे। किसी ने कुछ, तो किसी ने कुछ। पूरे राज्य में कोई ऐसा नहीं मिला जो ‘चोर’ न हो। राजा ने भी अपने बचपन की ढिठाई व चोरी की बात स्वीकार की। जब सब चोर हैं तो मुझ अकेले को फांसी क्यों?’’ इस कथानक की साम्यता आज भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में देखने को मिल रही है। रिश्वत लेना व देना दोनों भ्रष्टाचार के दायरे में है। ऐसी स्थिति में इस मुहिम में ऐसा व्यक्ति आये जिसने कभी ‘लिया-दिया’ न हो। यह बात उठा रहे हैं आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे राजनेता। इस तरह जनलोकपाल विधेयक की ‘साझा मसौदा समिति’ के सिविल सदस्यों पर कीचड़ उछालकर दलदल में उलझाकर ये नेता देश की जनता को भ्रमित कर रहे हैं। वास्तव में किसी भी तरह की व्यवस्था से जो सर्वाधिक पीड़ित या त्रस्त रहता है वही आवाज उठाता है। आज समूचा देश पीड़ित और त्रस्त है, इसलिए आवाज बुलंद कर रहा है।
महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, व्यभिचार राजनीति- नौकरीशाही के आचरण, जनमानस में काम की जल्दबाजी व भौतिकवादी सोच की बुनियाद ‘भ्रष्टाचार’ है। यानी आचरण की विकृति ही भ्रष्टाचार कहलाती है। वास्तव में आचरण की शुद्धता ही सदाचार है, इसीलिए विचारों की पवित्रता पर जोर दिया जाता रहा है, क्योंकि विचार ही आचरण की आधारशिला है, जो वैचारिक रूप से शुद्ध और पिवत्र है वही सदाचारी है, भले ही उसने देश-काल और परिस्थिति वश कभी कभार समझौता किया हो।
कुल मिलाकर यह प्रश्न महत्वहीन है, कि आंदोलन में जुड़े अथवा समर्थन करने वालों का नैतिक आचरण कैसा था? अतीत को बदलना ही परिवर्तन है। महर्षि बाल्मीकी और दस्युराज अंगुलिमाल इसके उदाहरण है। गड़ी ईंटें उखाड़ने की प्रवृत्ति छोड़कर समूचे देशवासियों को एक जुट होने की दृढ़ इच्छाशक्ति जगानी है, जो संकेत सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आमरण अनशन में ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ के लिए समूचे देशवासियों ने दिये थे। यदि मुट्ठी भर राजनेताओं के बहकावे में हमने मुहिम को कमजोर कर लिया तो फिर हम अपने सपनों को कभी साकार नहीं कर पायेंगे। जरूरत इस बात की है कि इन मुट्ठी भर भ्रष्टता पोषकों को सन्मार्ग पर लाने का प्रयास करें न कि उनका रंग हम पर चढ़ जाये। हमें स्वयं सदाचारी रहते हुए सदाचार की लहर बनाये रखनी होगी तभी जंग-ए-ईमान में हमारा परचम फहरेगा।
देवेष षास्त्री
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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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