वह किसी परीकथा की जादुई छड़ी घुमाने वाली नायिका तो नहीं पर उससे भी ज्यादा करिश्माई है…वह किसी पौराणिक कथा की अलौकिक शक्तियों वाली देवी तो नहीं, पर उससे ज्यादा चमात्कारिक है….वह मायावी भी नहीं हाँ माया जरूर है, पर ईश्वर की माया नहीं….वह जीती जागती हाड़मांस की माया है, वह भारतीय राजनीति की माया है, विकृत समाज की माया है…बहुजन समाज को धोका देने वाले विधायको को सुप्रीम कोर्ट तक जाकर दंड दिलाने वाली माया है, अपनो के बीच दलितो ही नहीं सबकी माया है….वह मायावती है जिन्होने उत्तर प्रदेश के राजनैतिक रंगमंच पर दो दशक से बिसरा दिये गये ब्राह्यमणांे को राजनैतिक तुला पर सबसे शक्तिशाली और परिणाम मुखी ताकत के रूप में पुर्नस्थापित कराकर सभी राजनैतिक दलों को अचंभित कर दिया । सियासी दंगल के चुनावी अंकगणित का गुणनफल बदल दिया है उ0प्र0 की राजनीति में माया का जादू मतदाता से लेकर नेताओं पर जमकर बोल रहा है। यह सब करिश्मा कर देने वाली मायावती ने अपने जीवन की 51 वर्षगांठ के अवसर पर कहा कि देश में सम्पूर्ण बहुजन समाज ही मेरा परिवार है और इस समाज को मान-सम्मान व स्वाभिमान की जिन्दगी बसर करने तथा इन्हे अपने पैरों पर खड़ा करने हेतु मैंने अपना तमाम जीवन समर्पित किया है तथा जिसके लिऐ अनेक प्रकार की दुखः तकलीफे भी उठाई है जो अवश्य ही आने वाली पीढ़ियों के लिऐ प्रेरणा श्र्रोत का काम करेगी हजारों साल से जारी शोषण और दमन के प्रति मूक विद्रोह को प्रचंड सार्थक अभिव्यक्ति देते हुये इस अद्भूत नायिका ने दलित स्वाभिमान को जिस अंदाज में भारतीय लोकतंत्र की अनिवार्यता बनाया है, उसके लिये वह इससे ज्यादा प्रशंसा की हकदार हो सकती है कम रत्ती भी नहीं। मई 2002 को जब मायावती लखनऊ के ऐतिहासिक लामार्टिनियर ग्राउन्ड पर तीसरीबार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रही थी तो सत्ता के सारे दिग्गज हाहाकार कर रहे थे। उस रोज कोई नहीं कह रहा था कि मायावती का मुख्यमंत्री होना कोई चमत्कार है। ध्यान रहे, इससे पहले जब वह 1995 में मुख्यमंत्री बनी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्ह राव ने फिर दूसरी दफा 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उनकी ताजपोशी को भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार करार दिया था। सच भी है, करिश्मा एक या दो बार हो सकता है तीसरी बार नहीं। इन दो प्रधानमंत्रीयों ने ‘चमत्कार’ शब्द को इस्तेमाल बेशक इसी आशा के साथ किया होगा कि अब यह बासपा कभी इस स्थिति में नहीं होगी कि सूबे की सबसे ऊँची कुर्सी पर जा बैठे। एक बार समाजवादी पार्टी के साथ और दूसरी बार कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली बसपा अपनी ताकत इतनी बड़ा होगी कि अकेले दम पर वह प्रदेश की दूसरी नम्बर की पार्टी के रूप में उभर सकती है, वह भी भारतीय जनता पार्टी को हाशिऐ पर धकेल कर। अतीत की बात करे तो 6 वर्ष पूर्व फरवरी में विधानसभा चुनाव होने के पूर्व जो चुनावी सर्वेक्षण हुये उन सब में बसपा को सत्ता से काफी दूर और भाजपा, सपा के मुकाबले बहुत पीछे दर्शाया गया था लेकिन मायवती के जादुई व्यक्तित्व और बदली हुई ठोस रणनीति के चलते नीले झण्डे वाली पार्टी ने 99 सीटें हासिल कर सत्ता की कुंजी अपने पास कैद कर ली थी सो भाजपा के ही मैन अटल बिहारी बाजपेयी को इसमें चमत्कार न दिखना स्वाभाविक था। श्री बाजपेयी ने इस साक्षात हकीकत को समझा और भाजपा को और दुर्गति से बचाने के लिये उन्होनंे मायवती के बड़े हुऐ कद को उचित सम्मान दिया।
राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र जैसे धंुरघरों केे विरोध को नजरअंदाज कर अदम्य इच्छाशक्ति की स्वामिनी मायावती की तीसरी ताजपोशी का पथ प्रशस्त किया । इस पथ का निर्माण चमत्कार या भाग्य की बदौलत से नहीं हुआ इसका श्रेय जाता है मायावती के दलित मिशन को कुछ भारतीय समाज की विसंगतियों-विकृतियों को। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि इन सारी स्थितियों ने एक साथ मिलकर मायावती के रूप मंे ऐसी विलक्षण नायिका गढ़ी है जो एक जातिविहीन समाज की अकेली रचनाकार हो सकती है। मायावती को विलक्षण या अद्भुत कहने के पीछे ठोस तार्किक कारण है। इन्हें समझने के लिऐ उन सारी स्थितियों का विश्लेषण करना होगा जिनके बीच से गुजर कर उन्होंने चैथी बार प्रदेश की बागडोर संभालने की अविश्वनीय कामयावी हासिल की है। यहां एक बार स्पष्ट कर देना जरूरी है कि यह विश्लेषण किसी मुख्यमंत्री बन चुकी महिला के लिए नहीं है बल्कि सामाजिक परिवर्तन का दुरूह जंग लड़ रही मिशनरी मायावती को है। मात्र 27 वर्ष के राजनीतिक कैरियर में चैथी बार मुख्यमंत्री होने को मायावती की व्यक्तिगत और मिशनरी दोनों उपलब्धियों के रूप में देखा जाना चाहिए। व्यक्तिगत उपलब्धि इस लिहाज से कि पूरी राजनीतिक यात्रा में उनके गुणों, स्वभाव और क्षमता का योगदान अहम है। यदि वह बेबाक और बिना लाग-लपेट के तीखा बोलने वाली न होती, यदि वह अपने अंदर के विद्रोह को दबा लेती, यदि निडर न होती, यदि वह जान को जोखिम मोल लेने वाली न होती और यदि वह दमन-शोषण झेलने की अभ्यस्त हो चुकी दलित कौम को झिझोड़कर जगाने की नैसर्गिक कला में दक्ष न होतीं तो बेशक न वह आज की तारीख में देश को परिवर्तन की राह दिखाने वाली चैथी बार उ0प्र0 की मुख्यमंत्री नहीं होतीं ओर न कभी पहले हुई होती। हो सकता है वह कहीं कलेक्टर, शिक्षिका या सुविद्दा सम्पन्न गृहस्थी की मालिक होती लेकिन दलितों की आस्था का केन्द्र कतई न होती। इसलिये इस उपलब्धि को व्यक्तिगत कहना अनुचित नहीं होगा। मिशन की कामयाबी तो शत-प्रतिशत हैं। प्रदेश का दलित जागा है, उसमेे राजनितिक चेतना का उदय हुआ है। वह एक झण्डे के नीचे लामबंद हुआ है और ‘बहिन जी’ में अपनी राजनीतिक-सामाजिक आर्थिक मुक्ति तलाश रहा है। इस सत्य-तथ्य से इंकार कौन कर सकता है? जिस सामाजिक व्यवस्था के विरूद्ध उन्हें संघर्ष-पथ तैयार करना था वह ढांचे से होकर गुजरता है जहाँ दििलत स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रही बसपा नेत्री को अपने लिये ‘चमारिन’ शब्द की गाली सुनने के लिये मजबूर होना ही पड़ता है। ध्यान रहे 1995 में लखनऊ स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के विधायकों-कार्यकर्ताओं ने मायावती जैसी कद्दवार नेत्री पर जानलेवा हमला किया था। कहना गलत न होगा, वह समूचा प्रकरण उस घिनौनी सामंती मानसिकता का प्रतिफल था, जो किसी औरत विशेषकर नीची जाति वाली को इस बात की सामाजिक इजाजत नहीं देती कि वह किसी मुलायम सिंह से समर्थन वापस लेने की गुस्ताख हरकत कर सके या पुरूष प्रधान समाज के पक्षधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को हकीकत का आइना दिखा सके। ग्लैमराइज्ड मीडिया भी इसी सिस्टम का अंग बना रहा और दलितों-दरिद्रों की इस रणबांकुरी को हमेशा निगेटिव तोरपर प्रस्तुत करता रहा। याद कीजिए हरिजन शब्द पर की गई मायावती की उस टिप्पणी को जिसमें उन्होंने अछूतों को हरिजन शब्द देने के लिये गाँधी जी के चिंतन को यह कहते हुए खारिज किया था कि अगर अछूत भगवान की संतान (हरि के जन) हैं तो क्या बाकी लोग शैतान की औलाद हैं? इसे देश भर के अखबारों ने मसाला लगाकर इस तरह पेश किया था मायावती ने गांधी जी को शैतान की औलाद कहा। इस संदर्भ में सबसे ज्यादा दिलचस्प और विडम्बनापूर्ण तथ्य यह है कि मायावती को दलित आंदोलन के उन दिग्गजों से भी जूझना पड़ा जो स्वंय को इस बीहड़ नेत्री के समक्ष बौना पाते थे। इस सच्चाई को बसपा सुप्रीमों स्वंय स्वीकारते हैं। ‘आयरन लेडी’ नामक पुस्तिका की प्रस्तावना में काशीराम लिखते हैं ‘जब मैनें मायावती की प्रतिभा उजागर करने के लिये ज्यादा अवसर देने का क्रम शुरू किया तो बहुजन समाज आंदोलन के सीनियर लोगों ने उसे पसंद नहीं किया। वे लोग मायावती की मुखाल्फत करने लगे। इससे मायावती के समक्ष परेशानियाँ आने लगी। 1982 के दौरान दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डी एस-4) संगठन का व्यापक इस्तेमाल किया गया। इसके तहत बहुत सारे प्रयोग किए गए। इन प्रयोगों के दौरान मायावती को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का भरपूर मौका मिला। उन्हंे खूब शोहरत भी हासिल हुई। इससे दलित आंदोलन के सीनियर लोग जलने लगे। वे पूरी ताकत से मायावती का विरोध करने लगे। इसी वातावरण में 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुई। मैने मायावती को 1984 में मुजफ्फरनगर की कैराना सीट से और 1985 में बिजनौर से लोकसभा का उपचुनाव लड़वाया। वह दोनों चुनाव हारीं जरूर लेकिन बसपा प्रत्याशियों में सबसे ज्यादा वोट पाने का श्रेय उन्हें ही हासिल हुआ। उससे बात नहीं मानी तो वे लोग बसपा छोड़कर चले गए। उन्होंने अपने ढ़ग से काम शुरू किया लेकिन आज उनमें से किसी का अस्तित्व नही है। तो कुल मिलाकर तस्वीर यही उभरती है कि मायावती जो जल में रहकर मगर से बैर मोल लेना था। यह बात दीगर है कि इन विरोधियों की शक्ल कभी धर्मनिरपेक्षता का नारा देने वाले, कभी राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक क्रांति का शंख फूंकने वाले तो कभी दलित आंदोलन को माध्यम बनाकर इसी सिस्टम को आक्सीजन देने वाले अदलते-बदलते रहते है। कभी मुलायम सिंह से तो कभी कांग्रेस से चुनावी गठबंधन मायावती की रणनीति का अहम हिस्सा था और भाजपा के कंधे पर सवार होकर तीन दफा मुख्यमंत्री पद हासिल करने काफी हद तक चाणक्य के कौशल को दर्शाता है। चाणक्य ने नंद वंश का शासन समाप्त करने के लिये उसी की ताकत को अपना औजार बनाया था। ठीक वही काम अब मायावती कर रही है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है मायावती का औरत होना। जिस देश-समाज में औरत को अबला माना जाता हो और सम्मान, आत्मनिर्णय या अधिकार की बात करने वाली को कुलटा-कलंकिनी कहा जाता हो वहां एक दलित औरत का मायावती के रूप में अवतरित होना कभी लगभग असंभव बात होगी, लेकिन आज यह एक जीती-जागती हकीकत है। इस संदर्भ में मायावती की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। वह जिस सामाजिक पारिवारिक पृष्ठभूमि से निकली और अपने जटिल दायरों को तोड़ते हुए जो राजनीतिक मुकाम हासिल किया, उसको अविश्वसनीय ही कहा जाना चाहिए क्योंकि भारतीय परिवेश में जयललिता या राबड़ी देवी होना जितना सरल है, मायावती होना उतना ही कठिन। मायावती को राजनीति विरासत नहीं मिली बल्कि उन्होंने खुद ऐसी राजनीतिक जमीन तैयार की जो उनके दलित मिशन के लिए अपरिहार्य थी। वह भारत की किसी अन्य महिला नेता से इन अर्थ में विलक्षण है कि उन्होंने भारतीय राजनीति को अपने उद्देश्य के लिये साधन बनाया है न कि ‘अपने लिये साध्य’। बहुत संभव है कि मात्र इसी बजह से वह अपने अंदर की ज्वाला से दलित चेतना की मशाल प्रज्जवलित करने में कामयाब हुई। साथ ही साथ बसपा को सर्वजन पार्टी बनाकर सफलता के नये सोपान तय करने की दिशा में अग्रसर हो रही है।