खलक खुदा का,
मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का….
हर खासो-आम को
आगाह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने
किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियांे के परदे
और बच्चों को बाहर
सड़क पर न भेजंे क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी
अपनी काँपती कमजोर आवाज मंे
सड़कों पर सच बोलता
हुआ निकल पड़ा है।
कोई साढ़े तीन दशक से कुछ ज्यादा समय हुआ, जे.पी. ने पटना मंे प्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी थी। तमाम रोक के बाद भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज और आदेश दिया गया। जेपी भी घायल हुए। इस घटना ने प्रख्यात कवि और धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती को बेचैन कर दिया। उसी बेचैनी से फूटी एक कविता, मुनादी। एक बार फिर परिस्थितियां कुछ वैसी ही नजर आ रही हैं दूसरी आजादी की लड़ाई रामलीला मैदान में जनयोद्धा अन्ना हजारे के नेतृत्व में लड़ी जा रही है। भष्ट्राचार रूपी रावण के खात्मे का आवाहन पर कुछ दिनों तक सरकार चुप्पी के बाद कुछ सुगबुगाहट हुई है लेकिन वह भी आधी अधूरी जिसमें ंसंविधान और संसद की आड़ लेकर सच को सच न होने देने का षडयन्त्र रचा जा रहा है। हार्बड की हाई-फाई शिक्षा प्राप्त मंत्रीयों की फौज नौवी पास अन्ना हजारे से अपनी चतुराई से जन मुद्दों को भटका कर उन्हें ही आरोपी सिद्ध करने की कवायद करने में नाकाम रहने के बाद कुछ कुछ सही रास्ते पर आती दिख रही है पर इस बीच कुछ सवाल जरूरी हो गये है विभिन्न राजनैतिक दल अपनी व्यापारिक राजनीति के दिन लदते नजर आने पर उल्टा चोर कोतवाल को डाटे रणनीति को अपना रहे है। अन्ना हजारे पर हमला बोल कर जन लोकपाल के प्रति सरकार की वचनबद्धता को संदिग्ध बनाने का कुत्सित प्रयास करने में लग गये है। यह प्रयास पहली बार नही हुआ इसलिए यह जानना जरूरी है कि देश में भ्रष्टाचार की बिमारी क्यों हुई है इसके पीछे छिपे राजनैतिक स्खलन के कारणों की पड़ताल करनी होगी और उनका परीक्षण करके उनका निदान भी खोजना होगा। वर्ना कोई भी फायदा नहीं मिल सकता है कानूनों के मकड़जाल से जन यदि सुखी हो सकता होता तो कब का यह देश सोने की चिड़िया बन गया होता। कवि धूमिल जनतंत्र में संसद की जन के प्रति भूमिका पर सवाल करते हुए यह कविता लिखते है-
एक आदमी/रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/एक तीसरा आदमी भी है/जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है। /वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूँ ‘यह तीसरा आदमी कौन है’? मेरे देश की संसद मौन है। इस मौन को तोड़ने के लिये संविधान में निहित आधार तत्व को समझकर एक बार फिर दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने का वक्त आ गया है। टयूनिशिया में हुई जनक्रांति की आहट हमारे देश में भी आने लगी है। इस आहट के पीछे के सच को खोजने का समय बेचैनी पैदा कर रहा है। आजादी के अनेक सालों के बाद दूसरी आजादी की परिकल्पना मन में आना कहीं न कहीं इस व्यवस्था में गुत्थमगुत्था पैदा होने का कारण है। यह विचित्र समय है जब जज से लेकर मंत्रियों तक के दामन दागदार दिख रहे है। डगमग-डगमग होती नैय्या के पीछे छिप शैतानी हाथों और उसके रिमोड कन्ट्रोल की सच्चाईयाँ जानना ही होगा। वरना पश्चाताप के सिवा कुछ शेष नही रह जायेगा। दिशाहीन, दिशाहारे लोग अपने स्वार्थो के लिये आँखों पर काली पट्टी बांध कर मौनी बाबा बने हुये है। उन्हें जन के मन से कोई लेनादेना नही है। सारे दरवाजे अकेलेपन जैसे हो गये है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की सोच को तिलांजलि देकर संविधान की मूल भावना को तिरोहित कर के संसद की सेन्टर टेबल पर खुशी मनाने में मग्न है। जनता की रुलाई उन्हंे दिखाई नही देती है। ऐसा लगता है कि जनता की आँखों में उतरे शोक के आँसू उन्हें खुशी के आँसू नजर आ रहे है। लगातार किसान से लेकर युवा तक पराधीन और दैयनीय जीवन जीते जीते आत्महत्या तक करने को मजबूर है। आदमी के मरते हुये चेहरे को देखने का साहस न जुटा पाने वाले लोगों के खिलाफ एक कमजोर हाथ एक मुठ्ठी में ताकत बटोर कर सब कुछ तहस नहस न कर दे इससे पूर्व संविधान को एक बार देखने का वक्त आ गया है। सरकारें अनिश्चिताओं से नहीं अपितु जनमत कराकर नीति तय करे। बाजारवाद चलेगा या संविधान मंे प्रदत्त उद्देशिका वाला समाजवाद।
भारतीय संविधान के आधार-तत्व तथा उसका दर्शन
किसी संविधान की उद्देशिका से आशा की जाती है कि जिन मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन पर संविधान आधारित हो तथा जिन लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रयास करने के लिए संविधान निर्माताओं ने राज्य व्यवस्था को निर्देश दिया हो, उनका उसमंे समावेश हो।
हमारे संविधान की उद्देशिका मंे जिस, रूप में उसे संविधान सभा ने पास किया था, कहा गया हैः हम भारत के लोग भारत को एक प्रभुत्वसंपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए उसके समस्त नागरिकों को न्याय स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उन सबमें बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं। न्याय की परिभाषा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के रूप में की गई है। स्वतंत्रता में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सम्मिलित है और समानता का अर्थ है प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता ।
42वें संशोधन के बाद जिस रूप में उद्देशिका इस समय हमारे संविधान में विद्यमान है, उसके अनुसार, संविधान निर्माता जिन सर्वोच्च या मूलभूत संवैधानिक मूल्यांे मंे विश्वास करते थे, उन्हें सूचीबद्ध किया जा सकता है। वे चाहते थे कि भारत गणराज्य के जन-जन के मन में इन मूल्यों के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता जगे-पनपे तथा आनेवाली पीढ़ियां, जिन्हें यह संविधान आगे चलाना होगा, इन मूल्यों से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। ये उदात्त मूल्य हैः
संप्रभुता, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र, गणराज्यीय स्वरूप, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, व्यक्ति की गरिमा, और, राष्ट्र की एकता तथा अखंडता।
समाजवाद
संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा या वाद विशेष ने जुड़ा हो या किसी आर्थिक सिंद्धात द्वारा सीमित हो। इसलिए वे उसमंे, अन्य बातों के साथ-साथ, समाजवाद के किसी उल्लेख को सम्मिलित करने के लिए सहमत नही हुए थे। किंतु उद्देशिका मंे सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय और प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता दिलाने के संकल्प का जिक्र अवश्य किया गया था। संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हमारे गणराज्य की विशेषता दर्शाने के लिए समाजवादी शब्द का समावेश किया गया। यथासंशोधित उद्देशिका के पाठ मंे समाजवाद के उद्देश्य को प्रायः सर्वोच्च सम्मान का स्थान दिया गया है। संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न के ठीक बाद इसका उल्लेख किया गया है। किंतु समाजवाद शब्द की परिभाषा संविधान मंे नही की गई।
संविधान (45वां संशोधन) विधेयक मंे समाजवादी की परिभाषा करने का प्रयास किया गया था तथा उसके अनुसार इसका अर्थ था इस प्रकार के शोषण-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-से मुक्त।
समाजवाद का आशय यह है कि आय तथा प्रतिष्ठा और जीवनयापन के स्तर मंे विषमता का अंत हो जाए। इसके अलावा, उद्देशिका मंे समाजवादी शब्द जोड़ दिए जाने के बाद, संविधान का निर्वचन करते समय न्यायालयांे से आशा की जा सकती थी कि उनका झुकाव निजी संपत्ति, उद्योग आदि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर राज्य के स्वामित्व के तथा समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार के पक्ष में होता है। ’
भारतीय संविधान के उद्देश्यों के विरूद्ध
गुपचुप तरीके से बाजारवादी व्यवस्था को थोपने के दुस्परिणाम सामने आने लगे है। नक्सलवाद और अराजकता के जाल मंे उलझते भारत को बचाने के लिए सिर्फ जनलोक पाल बिल से काम चलने वाला नहीं है हमें सरकार पर दबाव डालना होगा कि आपने बिना रिफरेडम कैसे बाजारवादी व्यवस्था को क्यो अपना लिया है दूसरी आजादी तभी मिलेगी जब तक हम समाजवादी व्यवस्था लागू नहीं करवा पाते है जो संविधान की मूल भावना की उद्देशिका में शामिल है। बदलते परिवेश में क्या देश के लिऐ उचित है क्या अनुचित? आश्चर्य जब होता है की देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने नारीमन जी संविधान की उद्देशिका से समाजवाद शब्द हो हटाने के लिये याचिका प्रस्तुत करते है। इस शब्द के हट जाने से किन को लाभ होगा इस पर आजतक कोई सार्वजनिक बहस तक नही हुई है। संसद, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री संविधान के अन्तर्गत है। उन्हें संविधान बदलने का कोई अधिकार नही है। इस कार्य के लिये सविधानसभा का गठन हो या जनमत संग्रह यह सब प्रक्रिया जानते हुये भी अंजान बनकर सर्वोच्च न्यायालय में जाने के निहतार्थ स्पष्ट होने चाहिये और नारीमन जी से पूछा जाना चाहिये कि उन्हें यह प्रेरणा कहाँ से मिली थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही उनकी इस याचिका को रद्दी की टोकरी में फेक दिया हो लेकिन अब वक्त आ गया है। व्यक्तिवादी स्वर के पीछे अन्तर्राष्ट्रीय षंडयन्त्र के सन्दर्भो को समझे, इस विशाल देश मंे अब राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद, देशभक्ती, देशप्राणता आदि में भावुकता के बीच छद्म रुप में वैश्वीकरण के नापाक पंजों से हमें अपनी जड़े, अपनी परम्परा और अपने मूल्य बचाने के लिये सजग और संवेदनशील रहना होगा। कोई भी बड़ा परिवर्तन करने के पहले संसद को संविधान की मूल भावना को समझना होगा। अब पिछले दरवाजे से कोई कार्य जनता स्वीकार नही करेगी। जापान की त्रासदी के बाद न्यूक्लीयर डील भले ही कर ली हो लेकिन एक बार फिर इस पर फैसला जनमत संग्रह से होना चाहिए। यह कोई सामान्य व्यवस्था नहीं है जिसे हमारे चुने प्रतिनिधि तय कर ले, वर्ना ‘‘लम्हो ने खता की थी सदीयो ने सजा पायी’’ वाली स्थिति होगी। लगड़ी और कटपुतली सरकारें टाटा और अंबानी जैसे बाजारवादी व्यवस्था के समर्थक लोगों की चेरी बनने को मजबूर रहेगी, बजारवादी लोग अपने लाभकारी निहतार्थ पूरे करते रहेंगे। जन लोकपाल बिल में कुछ शर्ते जोड़ना होगी जिनमें कानून के विपरीत कार्य मंे स्वतः रदद होना मुख्य होता है इस देश को बचाना है तो सबसे पहले कानून के विपरीत कार्य के द्वारा होने वाले लाभ को रद्द करना अनिवार्य कदम होगा। जिस तरह टू-जी स्टेंप घोटाले में लाईसेंस होल्डरों के लाईसेंस अभी तक रद्द न होना चिंता का सबब बना हुआ है इसी कारण गलत कार्यो को लगातार होने को बल मिलता है। सबसे पहले टूजी घोटाले के लाभार्थियों के करार को रद्द करने के साथ ही घोटाले करने वालों की सजा के मामले में निर्णय देने की समय सीमा न्यायालय के सामने होना चाहिए। करार रद्द होने के कारण कोई भी कठिनाई पैदा हो इस कठिनाई से जूझने के लिए भारतीय जनता तैयार है। जो भी कार्य जन्म से ही गलत था उसे कैसे न्याय उचित या देश की पूँजी के नाम उचित स्वीकार कर सकते है। इन कठोर निर्णय के बिना भ्रष्टाचार का सिलसिला नही रुक सकता है। ट्रांसफर प्रापर्टी एक्ट जैसे अनेक प्रावधान है जिनमें कुछ कानून के अन्तर्गत स्वतः निरस्त हो जाते है और कुछ को इंगित करने पर निरस्त किया जाता है। लेकिन जो कार्य जन्म से ही गलत है उसे खत्म होना ही चाहिए। चाहे इस कार्य को सरकार ने किया हो या पूंजीपति ने अथवा जनता ने यह तो तय करना ही होगा। क्योंकि आर्दश सोसायटी जैसे अनेक मामले सामने आये हैै जहाँ पर्यावरण को अनदेखा किया गया। कहीं नीतियों में हेरफेर किया गया। तो कहीं लाभार्थियों के नाम बदले गये है। जब जन्म से ही इन मामलों में गलत हुआ है तो उसे रद्द करना ही पड़ेगा। हमे बिमारी को दबाने के उपाय के स्थान पर बिमारी के कारणों की खोज करना जरूरी है। तभी बिमारी का समूलनाश हो पायेगा।
अज्ञेय के शब्द आज भी हमें सोचने के लिये विवश कर रहे है। अपनी वसीयत का कविता में लिखते है- मेरी छाती पर/हवाएँ लिख जाती हैं/महीन रेखाओं में/अपनी वसीयत/और फिर हवाओं के झोंके ही/वसीयतनामा उड़ाकर/कहीं और ले जाते है/बहकी हावाओं!वसीयत करने से पहले/ हलफ उठाना पड़ता है/ कि वसीयत करने वाले के/होश -हवास दुरूस्त हैं/और तुम्हें इसके लिए/ गवाह कौन मिलेगा/मेरे ही सिवा?/क्या मरेी गवाही/तुम्हारी वसीयत से ज्यादा टिकाऊ होगी? क्या आज यह सवाल देश अपने चुने हुये प्रतिनिधियों से गाँव गली के गलियारों में क्यों पूछ रहा है? आजादी सिर्फ बड़ते भाव नमक और तेल पर, यह सरकारी रेल पर या भ्रष्टाचार के खेल पर ? इस सवाल का हल खोजना ही होगा। वरना चिचियातीं जनता सबकुछ तहसनहस कर देगी और धुआँ शेष रह जायेगा। समय आज फिर सवाल कर रहा है। जागों फिर एक बार! जगों फिर एक बार! …बस ! आपलोग थोड़ा-सा; ..बस थोड़ा सा ही .. अपने देश से प्यार करना है। अरूण के शब्दों में हुई क्रांति की ऐसी तैसी/सपनों की दुर्गति ये कैसी, इसे रोकने के लिये राजमद मंे चूर कुर्सी ने आपके लोकतांत्रिक अधिकारों पर अपनी विषाक्त महत्वाकांक्षा पर उल्ट दी है इसे रोकने के लिये एक नई हजारों लाखों अन्ना हजारे जैसे लोगों की जरूरत है उन्हें बनाने और बल देने के लिये समाज को इसी एक जुटता के साथ आगे आने के लिये संकल्प वद्ध रहना पड़ेगा तभी यह देश सोने की चिड़िया बनने की राह पर अग्रसर हो सकेगा।
’ इस आलेख में सुभाष कश्यप लिखित पुस्तक हमारा संविधान के अंश समाहित है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन- 120/132
बेलदारी लेन, लालबाग
लखनऊ
मो0ः 9415508695
(लेखक-दैनिक भास्कर के लखनऊ ब्यूरोप्रमुख है।)