भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में अनुपस्थित रहकर नरेन्द्र मोदी इतने चर्चित हुए कि मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे छूट गए। इसी के साथ प्रधानमंत्री पद के दावेदारों समय पूर्व जोर आजमाइश भी चर्चित हुई।
नरेन्द्र मोदी ने तीन दिन के उपवास में जो प्राप्त किया, उसे दो दिन मे गवाँ दिया। उपवास के माध्यम से वह उदारवादी छवि प्रस्तुत करना चाहते थे। इसमें उन्हें व्यापक समर्थन मिला। किन्तु अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति मे ना जाना, और आई0पी0एस0 अधिकारी संजय भट्ट का जेल जाना उनकी उस छवि के प्रतिकूल साबित हुआ। नरेन्द्र मोदी के मन में क्या था, या ये प्रकरण महज संयोग थे, इस बारे में वही जानते होंगे। लेकिन इस माध्यम से असहिष्णुता का ही संदेश गया। नरेन्द्र इसको रोक नहीं सके।
इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेन्द्र मोदी देश के सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री हैं। विकास के सबंध में उनकी सोच, कार्यप्रणाली बेजोड़ है। उन्होंने आर्थिक प्रगति के कीर्तिमान स्थापित किए। 2002 के दंगो के लिए उनकी आलोचना होती है। उनके विरोधियों के पास इसके अलावा दूसरा कोई मुद्दा नहीं है। वह पिछले करीब एक दशक से इसी मुद्दे के आधार पर नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाते रहे हैं। जबकि प्रशासनिक द्रष्टि से गुजरात के मुख्यमंत्री बहुत आगे निकल गये हैं। इस एक दशक मे उन्होंने राजधर्म का बाखूबी निर्वाह किया है। आर्थिक विकास मे मजहबी भेदभाव नहीं है। विकास यात्रा में सभी वर्ग-सम्रदाय के लोग समान रुप से लाभान्वित हैं। इस बात से कोई इन्कार नही कर सकता। उनके विरोधी भी इस मामले पर बोलने से बचते हैं। वह जानते हैं कि गुजरात के विकास पर कोई टिप्पणी करना राजनीतिक रुप से आत्मघाती होगा। इस मुद्दे पर कुछ भी बोलना मोदी की प्रशंसा मानी जाती है। जम्मू-कश्मीर की कट्टरपंथी नेता महबूबा मुफ्ती का उदाहरण सामने है। उन्होंने एक मुस्मिल उद्योगपति को गुजरात मे केवल आधे घण्टे की एक बैठक के बाद उद्योग स्थापना की अनुमति, सुविधाएँ मिल जाने की घटना सुनाई थी। यदि महबूबा को पता होता कि यह नरेन्द्र की तारीफ बन जायेगी, तो वह यह ‘गुनाह‘ न करती।
संजीव भट्ट प्रकरण में गुजरात सरकार कह सकती है कि कानून अपना काम कर रहा है, मुख्यमंत्री का इस घटना से कोई लेना-देना नहीं है। किन्तु जनसामान्य में पहुँच रहे संदेश को समझना चाहिए। यह गुजरात शासन की दलीलों से मेल नहीं खाता। संजीव भट्ट सीधे रुप से नरेन्द्र मोदी के विरोध मे थे। उन्होंने 2002 के दंगों के दौरान नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाया था। भट्ट ने न्यायपालिका मे हलफनामा दायर किया था। इसमे कहा गया कि 2002 में मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुलिस अधिकारियों को हिन्दुओं के प्रति उदारता दिखाने के निर्देष दिए थे। इसके अनुसार दंगों के दौरान हिन्दुओं को को अपनी गुस्सा निकालने की छूट देने को कहा गया था। संजीव भट्ट जिम्मेदार पुलिस अधिकारी रहे हैं। वह वर्षाें तक खामोश रहे। यदि उनका आरोप सही है, तब भी करीब आठ-नौ वर्ष बाद उन्होंने हलफनाम क्यों दिया। वह आई0पी0एस0 अधिकारी हैं। किसी अनुचित, अवैधानिक, असंवैधानिक निर्देश को अस्वीकार कर सकते थे। समय रहते उसका विरोध कर सकते थे। न्यायपालिका की शरण ले सकते थे। लेकिन यह काम उन्होंने वर्षाें बाद किया। वह कह सकते हैं कि इतने लम्बे समय के बाद उन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ, सच कहने का साहस जुटाया आदि। लेकिन रहस्य कम नहीं है।
इस प्रकार संजीव भट्ट का सीधा आरोप मुख्यमंत्री पर था। ऐसे में एक सिपाही के हलफनामे से संजीव भट्ट की गिरफ्तारी भी रहस्यपूर्ण लगनी थी। संदेश यही गया कि नरेन्द्र मोदी अपने विरोधियों के प्रति असहिष्णुता की भावना रखते हैं। यह सिपाही भी लम्बे समय तक खामोश रहा। एकाएक इसे भी ज्ञान प्राप्त हुआ, सत्य बोलने का साहस जुटाया, कहा कि संजीव भट्ट ने दबाव डालकर उससे मुख्यमंत्री विरोधी हलफनामे में हस्ताक्षर कराए थे। सिपाही ने भी समय पर विरोध क्यों नहीं किया। इतने समय बाद उसका हलफनामा भी रहस्यपूर्ण है। इसने नरेन्द्र मोदी के विरोधियों को मौका दिया। जिन्हें उनके खिलाफ मुद्दा नहीं मिल रहा था, वह भी विरोधियों के प्रति अहिष्णुता दिखाने का आरोप लाग रहे हैं। इस घटना का दूरगामी परिणाम हो सकता है। जो राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी के लिए असुविधा का कारण बनेगा।
इस प्रकार राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक मे ना जाकर नरेन्द्र मोदी ने जाने-अनजाने अफवाहों को भरपूर मौका दिया। कार्य समिति ऐसे समय पर हो रही थी, जब केन्द्र की संप्रग सरकार का अन्तर्विरोध सतह पर था। टू-जी घोटाले में चिदम्बरम के पत्र से उजागर हुई थी। भ्रष्टाचार, मंहगाई आदि सभी मुद्दे पीछे रह गए। मोदी की अनुपस्थिति चर्चायें आ गई। इसी के साथ भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों का ‘लठ्म-लट्ठा‘ सामने आ गया। भाजपा नरेन्द्र मोदी की अनुपस्थिति का तर्कसंगत जवाब नहीं दे सकी। कहा गया कि नवरात्रि व्रत के कारण वह शामिल नहीं हुए। देश के करोड़ो सुविधा-साधन विहीन हिन्दू नवरात्रि व्रत रखते हैं। इन्हें शुद्ध कुट्टू का आटा भी नहीं मिलता। वह व्रत के साथ ही अपनी जीविका पालन मे लगे रहते हैं। मुख्यमंत्री के साथ तो पूरी ‘पाक-साफ फलाहारी रसोई‘ चल सकती है। नरेन्द्र मोदी के सामने व्रत समस्या कैसे बन सकता है। ऐसे में यह क्यों ना माना जाए कि नरेन्द्र मोदी भी वही चाहते थे, जो संदेश सार्वजनिक हुआ। चर्चा हुई कि नरेन्द्र मोदी नाराज हैं। वह लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रुप मे मानते हैं। इसलिए कार्यसमिति में नहीं आए।
इस प्रकार की चर्चा से भाजपा का नुकसान हुआ है। लोकसभा चुनाव 2014 मे होने हैं। सरकार के गिरने, मध्यावधि चुनाव की फिलहाल कोई संभावना नहीं है। अभी से भाजपा के शीर्ष नेताओं मे कलह, महत्वाकांक्षा, प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की जंग अनुचित कही जायेगी। इससे ‘पहले राष्ट्र, फिर पार्टी और अन्त मे मैं‘ का दावा खारिज होता है। भाजपा नेताओं को ऐसी चर्चाओं से बचने के लिए कारगर प्रयास करने होंगे। तभी वह ‘औरों से अलग‘ दिखाइ्र देंगे।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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