पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं। नेताओं को अपनी वैतरणी पार करने के लिए जनता के बीच जाना पड़ रहा है। चुनावी मौसम में नेताओं के बीच गरीबों का हमदर्द बनने की होड़ लग गई है। उनका हितेषी साबित करने के लिए इन्होंने आसमान सर पर उठा लिया है। रोड शो और यात्राओं का दौर चरम पर है। यात्राओं और रोड सो पर करोड़ों का खर्च होता है लम्बे-लम्बे विज्ञापन देकर कार्यक्रम आयोजित करने के लिए पैसे की बर्बादी का सिलसिला जारी है। यदि मान भी लें कि इन कार्यक्रमों से गरीब की गरीबी खत्म होती है तो अब तक यह घटने के बजाए बढ़ी क्यों है यह यक्ष प्रश्न है इसका उत्तर धर्मराज की तरह है कौन नेता देना चाहेगा। एक काम जरूर हुआ है वह कि गरीब की गरीबी बेशक बढ़ी है लेकिन नेताओं की आमदनी जरूर बढ़ी है। गरीबी को मिटाने की कस्में खाई जा रही हैं यही नेता अगर रोड सो में खर्च हो रहे धन को गरीबों में बंटवा देते तो उनको उसका कुछ फायदा भी मिलता और कुछ गरीबों की गरीबी जरूर दूर हो जाती लेकिन नेता जानते हैं कि अमीर कितने वोट करते हैं। देश की आजादी से लेकर आज तक देश में सबसे लम्बे समय तक कांगे्रस पार्टी की हुकुमत रही, गरीबी मिटाने की जो कस्में जवाहर लाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने पर खाई थी वही इन्दिरा गांधी ने, राजीव गांधी ने और आज कांगे्रस के युवराज राहुल गांधी खा रहे हैं। विदेशों में जमा सैकड़ों लाख काला धन किसका है इस पर कांगे्रस पार्टी मौन है। विकिलिक्स की माने तो काले धन में इस परिवार का बड़ा हिस्सा है। राजा का राज चल रहा है और प्रजा बैचारी को उनके रहमो कर्मो पर ही रहना व जीना पड़ रहा है। आकड़ों की मानें तो जब गरीबी कम करने का तरीका सही नहीं है तो इसका जारी रखने का मतलब क्या है। इसका बदलने का श्रीगणेश कब होगा यह प्रश्न भी मंुह बाए खड़ा है। गरीब और गरीब बढ़ने के इस प्रश्न का जवाब जब नेताओं से पूछा जाता है तो सत्तारूढ़ दल का जवाब और विपक्ष का जवाब गोल-मोल ही होता है। दोनों को एक दूसरे को आइना दिखाने का काम करते हैं तथा जिम्मेदारी से मुंह चुराने की बात करते हैं। जिसके परिणामस्वरूप जनता की नजरों में नेताओं की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगे हैं और लग रहे हैं। ऐसा भी नहीं इस सच्चाई से पार्टिया वाकिफ न हों लेकिन आफ दि रिकार्ड पूछने पर नेता कहते हैं यदि समस्याएं खत्म हो जाएंगी तो फिर उनकी दुकान कैसे चलेगी। उनके हाथ में ही सब कुछ नहीं है। गरीबी, अमीरी, सुख-दुख यह सब भाग्य का खेल होता है तब जनता के बीच में जाकर छोटी बड़ी सभांए करके रोड सो व यात्राएं निकालकर यही सच क्यों नही बोलते। जनता तो सच्चाई सुनना चाहती है लेकिन कैमरे की और कमरे की सच्चाई में नेता अन्तर क्यों करता है। सच बताओ तब देखो जनता आपकी बात पर क्या करती है यानि जब चुनाव आए तो गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व आम आदमी की सुरक्षा पर जम कर बोलो और सत्ता में आने पर मंुह देखकर बोलो। सत्तारूढ़ दल का नेता कहता है कि देखते हैं कि कुछ करते हैं, पत्रकार कहता है अभी तक कुछ नहीं हुआ, तब कर तो रहे हैं और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भाषा में कहें तो उनके पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि रातो-रात सब ठीक कर दें। वित्त मंत्री की मानें तो वैश्विक स्तर पर हो रही उथल-पुथल इसके लिए जिम्मेदार है। खाद्य मंत्री महोदय कहते हैं कि लोग ज्यादा खाने लगे हैं, महंगाई तो बढ़ेगी ही यानि जितने मुंह उतनी बात। इसके लिए जितने जिम्मेदार नेता हैं उससे अधिक उनका कुप्रबन्धन तथा वे सड़ी गली नीतियाॅं जिम्मेदार हैं। जिनमें भ्रष्टाचार की बु आती है और आज भी यथावत लागू है। इन नीतियों को बदलना होगा उनके समर्थक नेताओं को बदलना होगा। लेकिन इसके लिए तैयार कौन है। लम्बे समय तक देश की सत्ता में रहने वाली कांगे्रस पार्टी न तो नीति बदलने का तैयार है, न ही नेता बदलने का तैयार है। जब यदाकदा कलाम साहब जैसे राष्ट्रपति के सामने आना पड़े तो किसी कठपुतली को नेता बनाकर इशारों पर नचाते रहो। वास्तव में यह सच्चाई है कि गांधी परिवार ने कभी गरीबी देखी ही नहीं, कैसी होती है गरीबी या गरीब कैसे रहता है उनका लगता है कि इसका देखना चाहिए। जिससे लोगों को उनके हितेषी होने का पता चले तो युवराज का गरीबों के घरों मंे जाने का कार्यक्रम बनता है वह भी देश की राजधानी दिल्ली में और शुरू होता है गरीबों के घर जाकर उनकी दाल-रोटी खाना। हम सभी यह भली-भांति जानते हैं कि किसी गरीब के घर जाने से तो गरीबी मिटती नहीं दिखती जरूर है। गरीबो तो जब भी मिटेगी दिल्ली से ही मिटेगी। इस काम को जब कभी किसी अटल बिहारी बाजपेई व अब्दुल कलाम जैसे देशभक्त नेताओं ने करना चाहा, इस दुखती रग पर हाथ रखा तो उनमें से एक को तो समय ही कम मिला दूसरे को कांगे्रस अध्यक्षा ने जिद करके दुबारा राष्ट्रपति ही नहीं बनने दिया। गरीब की गरीबी का मजाक उड़ाना इनका रास जो आता है। विज्ञापन देने से गरीब के घर जाने से यदि गरीबी खत्म हो जाती तो इसके लिए और कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। 1977 में जनता पार्टी ने महंगाई कम की थी, एनडीए की सरकार ने भी महंगाई को अपने छःवर्षो के कार्यकाल में बढ़ने नहीं दिया महंगाई को बांधे रखने में अटल बिहारी बाजपेई कामयाब रहे। बाजपेई जी राजनीति में एक गरीब परिवार से आए थे उनको उनके दुख दर्द का अहसास था इसलिए उन्हांेंने इनके हितों की चिन्ता की। ऐसा भी नहीं कि सपा व बसपा के मुखिया गरीब परिवारों से राजनीति में नहीं आए परन्तु उनमें और अटल बिहारी बाजपेई में जमीन आसमान जेैसा अन्तर है। अटल जी को कभी अपनी आय के स्रोत नहीं बताने पड़े जबकि इन नेताओं द्वारा बताए गए आय के स्रोतों की सी0बी0आई0 जांच कर रही है जिसका लाभ कांगे्रस भी बखूबी ले रही है तभी तो आज आम आदमी की जुबान में सी0बी0आई0 कांगे्रस ब्यूरों आफ इन्वेस्टीगेंशन कही जाने लगी है। अब चुनाव के समय इन दलों को लगता है कि चिट्ठी लिखने से गरीबी दूर होगी। राज्य सरकार केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराती है और केन्द्र सरकार प्रदेश सरकार को पत्राचार कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री करती है। देश में चालीस करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन जीने के लिए मजबूर हैं अनाज रखने के गोदाम कम पड़ रहे हैं, फलस्वरूप अनाज सड़ रहा है लेकिन गरीब भूखों मर रहा है। किसान कर्ज में डूबा है, आत्महत्या करने को मजबूर है, नौजवान रोजगार के पर्याप्त अवसर न होने के कारण हताश है, निराश है, इलाज के लिए अस्पताल नहीं हैं, जहां हैं वहंा डाक्टर नहीं हैं यदि हैं तो पर्याप्त दवाएं नहंीं हैं, दवाएं हैं तो नकली हैं। शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, सड़क, बिजली, पानी, घर जैसी मूलभूत सुविधाएं जनता को सरकार नहीं दे पा रही है। देश व प्रदेश के मंत्री, सांसद-विधायक आदि भ्रष्टाचार आरोपों में जेल में अटे पड़े हैं। जहां इतने घोटाले हो रहे हों वहां कैसे सुधार होगा लेकिन आज संचार क्रान्ति का युग आ गया है जनता मिनटों में हकीकत जान जाती है अब घडि़याली आॅंसू बहाना बंद करो वरना अपना अलग रास्ता देखा। गरीबी दूर करने की बात करने वाले नेताओं के लिए किसी शायर का यह शेर कुछ यूं कहता है कि-
सियासी लोग यदि नदी के किनारे बस जाते
तो प्यासे होंठ एक बूंद पानी को तरस जाते
नरेन्द्र सिंह राणा
लेखक- उ0प्र0 भाजपा के प्रदेश मीडिया प्रभारी हैं
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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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