नौकरशाहों ने जनगणना की बारीकियों को ताक में रखा और नाम की समानता केआधार पर सूचियां तैयार कर दीं

Posted on 12 June 2010 by admin

अब इस बार फिर  स्वतंत्रता संग्राम में तेजी लाने के लिए जिन दो दुखती रगों को खंगाला गया वे थीं गरीबी और जाति। स्वतंत्रता प्राप्ति का ध्येय था गरीबी हटाना और जाति मिटाना। एक चतुर चिकित्सक की भांति अंग्रेज हमारी पीडा को पहचान तो गए, पर गलत दवाई का नुस्खा दे गए। जाति के जरिए गरीबी मिटाने का नुस्खा। परिणाम सामने है: साठ से ज्यादा की आयु होने पर भी स्वतंत्र भारत में न जाति मिटी है और न ही गरीबी। मगर नुस्खा बरकरार है। यह सच है कि भारत की सामाजिक रचना की आसान पहचान जाति से है। जनगणना में आखरी बार जातियों की गणना सन् 1931 में की गई। तब की गणना से आज तक कई जातियों ने अपने नाम बदले और उस माध्यम में आदिवासियों (ट्राइब्स) के कई समूह कुछ क्षेत्रों में जाति बन गए।

 बाहर से आने वाले समूह भी जातियां बन कर इस संरचना के अंग हो गए और तथाकथित जाति-व्यवस्था के वर्ग में कुछ ऊपर उठे एवं कुछ ऊपर उठने की चेष्टा करते रहे। 1931 की जनगणना में आदिवासी समाजों को भी धर्म के आधार पर विभाजित कर दिया गया। केवल उन्हें ही ‘आदिवासी’ की संज्ञा दी गई जो धर्म-परिवर्तन से दूर रहे। एक नाम होते हुए भी वे धर्म के आधार पर श्रेणियों में विभक्त हो गए। भील, मीणा, गोंड, मुंडा सहित सभी आदिवासी समाजों में वे ही आदिवासी की श्रेणी में रखे गए जो 1931 की जनगणना के शीर्ष अधिकारी हटन के शब्दों में ‘हिन्दुओं के मंदिर से अभी दूर हैं।’

स्वतंत्र भारत के संविधान में दी गई अनुसूची के प्रावधान ने इस प्रक्रिया को पीछे धकेल दिया। अनुसूची में सम्मिलित करने के लिए उत्साही नौकरशाहों ने जनगणना की बारीकियों को ताक में रखा और नाम की समानता केआधार पर सूचियां तैयार कर दीं और इस प्रकार जाति कहे जाने वाले समूहों के बदलाव की प्रक्रिया को स्तब्ध कर दिया। जो समूह अपनी पहचान तजकर ऊंचा उठना चाहते थे, वे अब फिर से पुरानी पहचान को जीवित करने की होड में लग गए। बदलती हुई जाति फिर पीछे लौटने लगी। समाजशाçस्त्रयों ने 1950 के दशक से बराबर यह बात कही कि जाति में जबर्दस्त लोचनीयता है। समय के प्रहारों को झेलने की उसमें क्षमता है। उनकी यह धारणा गलत नहीं थी। जाति आज भी जीवित है। पर यह ‘जाति’ है क्या ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’ की उक्ति को जाति चरितार्थ करती है।

ऎसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि क्या जनगणना जातियों की गणना कर पाएगी। ‘जाति’ के बारे में पढाते समय सन् 1960 में मैंने अपनी कक्षा के छात्रों से उनका नाम और जाति एक प्रश्नावली के माध्यम से पूछा। जाति के स्थान पर किसी ने लिखा-भारद्वाज, किसी ने ब्राह्मण, किसी ने पंजाबी, किसी ने केडिया, किसी ने कोठारी, किसी ने जैन ये सब उनके उपनाम थे: कोई गोत्र था, तो कोई परिवार को मिली पदवी का सूचक, कोई धर्म का बोध कराता था तो कोई वर्ण का। और ये सब जाति के पर्याय थे एम.ए. की कक्षा में, और वह भी समाजशास्त्र की कक्षा में पढने वालों के।

इतनी गलतफहमी जब पढे लिखों में है तो फिर निरक्षरों का क्या जनगणना के लिए भेजे जाने वाले क्लर्को और स्कूल अध्यापकों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे जाति और अन्य जाति-समझे जाने वाले संबोधनों में भेद कर सकें। जाति के सम्बन्ध में ये जो विसंगतियां हैं, वे इस बात की सूचक हैं कि जिस जाति नामक संस्था को हम खंडित करना चाहते हैं, उस दिशा में यह सही चरण है। इसी कारण आज ढेरों अंतरजातीय विवाह होने लगे हैं। किन्तु जिस स्तर पर जाति को प्रबल करने की चेष्टा है वह जाति के ऊपर का स्तर है- वर्ण का या वर्ण जैसे संकुल का। ब्राह्मण एक वर्ण है, जाति नहीं। इसी प्रकार यादव, गुजर, मीणा कई जातियों के संकुल हैं। इस स्तर पर उनका एकीकरण संख्या की अभिवृद्धि का माध्यम है। वोट की राजनीति के लिए उपयोगी माना जाने वाला कदम है। पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखे तो जाति का ऎसा राजनीतिकरण न तो नेताओं के अभीष्ट को पूरा करता है और न ही विकास के उद्देश्य को। यह नियम है कि ज्यों-ज्यों किसी समूह की संख्या बढती है, त्यों-त्यों उस समूह में गुटबंदियां बढती हैं जो लोगों को जोडती नहीं, तोडती हैं।

किसी जाति के धनवान अपनी सम्पदा को जाति के समस्त सदस्यों में नहीं बांटते। दलित कही जाने वाली जातियों में भी लोग ‘मक्खन की परत’ की बात करते हैं और तथाकथित ऊंची जातियों में भी कई दीन-हीन परिवार हैं। पीडा की पहचान एक बात है, उपचार दूसरी बात। आज की स्थिति यह है: दर्द बढता गया ज्यों-ज्यों दवा की। बात कडवी है, पर कहने का समय आ गया है।

Vikas Sharma
bundelkhandlive.com
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