सूचना आयोग अगर शिकायतकर्ता को तीस दिनों के अन्दर उसकी शिकायत पर सूचना नहीं देता है या उसको राहत देने में विफल रहता है तो सूचना का अधिकार का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा। अगर सरकार इस अधिनियम के त्वरित क्रियान्वयन के प्रति गम्भीर है तो उसे निगरानी प्रणाली का सहारा लेना पड़ेगा। वैसे भी इस अधिनियम की धारा 25 के अन्र्तगत निगरानी प्रणाली की व्यवस्था भी की गई है लेकिन सरकार की उदासीनता के कारण यह बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा है।
एक्शनग्रुप फॉर पीपुल्स राईट टू इन्फार्मेशन के छठवें राष्ट्रीय सम्मेलन एवूं कार्यशाला में “सूचना का अधिकार अधिनियम 2005: क्रियान्वयन, समस्याएं एवं समाधान´´ विषय पर आज यहां एनबीआरआई सभागार में वक्ताओं ने उक्त विचार व्यक्त किए। इस कार्यशाला में 200 से अधिक एन जी ओ और भूतपूर्व न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ, न्यायमूर्ति ड़ी.पी सिंह, भूतपूर्व प्रशासनिक अधिकारी योगेन्द्र नारायण, एक्शनग्रुप फॉर पीपुल्स राईट टू इन्फार्मेशन के चीफ कोआर्डिनेटर अफजाल अंसारी, सामाजिक कार्यकर्ता शैलेन्द्र दुबं और पत्रकार ओम प्रकाश त्रिपाठी ने सूचना के अधिकार पर बड़ी बेबाकी से अपने-अपने विचार रखे।
इस अवसर पर भूतपूर्व न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ ने कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम हमारा एक शस्त्र है और इसे राष्ट्रहित में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। समय से सूचना मिलना महत्वपूर्ण है और धारा 25 में प्रावधान है कि सरकार समय पर सूचना उपलब्ध कराएं। यह अधिनियम लोकतन्त्र को सशक्त और मजबूत करने की प्रक्रिया निधारिZत करता है। इसका गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। यह अधिनियम समय के साथ-साथ प्रभावी हो जाएगा। लोकतन्त्र में लोंगो की सहभागिता होनी चाहिए। लोकतन्त्र में सूचना का अधिकार इसलिए जरुरी है ताकि सरकार में जनता की सहभागिता हो सके और पारदर्शिता कायम भी रह सके। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि 1968 से लोकपाल बिल चर्चा में है लेकिन आज तक नहीं बन सका। सूचना का अधिकार अधिनियम में खामिया कम नहीं है जैसे कि शिकायतकर्ता सूचना आयुक्त के निर्णय के खिलाफ अपील नहीं कर सकता है। बस वह केवल हाईकोर्ट जा सकता है और हकीकत यह है कि सूचना आयोग में काम होता नहीं, मुकदमों का निस्तारण होता नहीं और आयोग के खुलने और बन्द होने या अधिकारी-कर्मचारी के आने जाने का कोई समय निधारिZत नहीं है।
इस अधिनियम पर पीएचडी करने वाले भूतपूर्व प्रशासनिक अधिकारी योगेन्द्र नारायण ने अपने विचार रखते हुए कहा कि इसमें व्यवस्था सबके सामने है, बस इसको समझने और क्रियान्चयन करने की जरुरत है। उन्होंने बताया कि 2002 में नौ राज्यों ने अपना सूचना के अधिकार का कानून बना लिया था लेकिन उसको लागू किया गया 2005 में वो भी सूचना का अधिकार अधिनियम का नाम देकर। सरकार का काम है कि इसके प्रति जनता में जागरुकता पैदा करे लेकिन जागरुकता पैदा करने के लिए एन जी ओ और मीडिया को ही आगे आना पड़ेगा और इस महत्वपूर्ण भूमिका को निभाना पड़ेगा। उन्होंने लोंगो की सुविधा के लिए सूचना अधिकारियों की एक उायरेक्टरी छपवाने का भी सुझाव दिया।
एक्शनग्रुप फॉर पीपुल्स राईट टू इन्फार्मेशन के चीफ कोआर्डिनेटर अफजाल अंसारी ने मेहमानों का स्वागत किया और अपने विचार रखते हुए कहा कि इस अधिनियम में पारदर्शिता, जिम्मेदारी और लोंगो की भागीदारी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि इस अधिनियम के लागू होने से पूर्व जनता को विकास के कार्यों और सरकार के कार्यकलापों में हस्ताक्षेप का अधिकार नहीं था लेकिन इस अधिनियम ने हमको यह अधिकार दिलाया है। इससे भ्रप्टाचार कम होगा और साथ ही विकास के रास्ते खुलेगे लेकिन इसको सफल बनाने के लिए जरुरी है कि इसे ईमानदारी से लागू किया जाएं और लोगां में जागरुकता पैदा की जाएं।
न्यायमूर्ति डी पी सिंह ने कहा कि इस अधिनियम से सरकार के कार्यों में बदलाव आ सकता है। मुकदमों का समय पर निस्तारण होना चाहिए और धारा 25 के अनुसार सरकार को समय पर सूचना का जवाब देना चाहिए और लोगो का इसका राष्ट्रहित में प्रयोग करना चाहिए। सामाजिक कार्यकर्ता शैलेन्द्र दुबं ने कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम अपने आप में एक क्रान्ति है। इसका देशहित में एक हथियार के रुप में प्रयोग करना चाहिए।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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