अधिक मेहनत में कम लाभ देने की मजबूरी के चलते कुछ फसलें किसानों के खेत से विदा लेने लगी है। यही हाल रहा तो आनेवाले दिनों में इन फसलों की महक सिर्फ यादों में ही रह जायेगी और इनकी प्रजाति बचाए रखने के लिए सरकारी संरक्षण की जरूरत भी पड़ेगी।
सावां, कोदों, लहडरा, काकुन तथा साठा धान कटिया, सरबदी गेहू आदि कुछ फसलें शायद अब कहानी किस्सों का हिस्सा बन कर रह जायेगी और आने वाले समय में उन्हें केवल पढ़ा या सुना ही जा सकेगा क्योंकि कुछ पशु पक्षियों की तरह ये फसलें भी किसानों के बीच से विदा हो चली हैं लिुप्त हो चली इन फसलों केग जनप के किसानों में अब कोई रूचि नही दिखाई देती। अधिक मेहनत में कम लाभ देने वाली फसलों के प्रति किसानों के प्रति किसानों का मोह भंग हो चुका है। कभी वह समय था जब किसान इन फसलों की बोआई भी किया करते थे। कम पानी वाले क्षेत्रों में ये फसले हुआ करती थी। काकुन, सावां व कोदो की भी धान की तरह कुटाई करके भात बना कर खाया जाता था। तब कोदो व सांवा गरीबों का भोजन माना जाता था। श्री कृश्ण-सुदामा प्रसंग में भी इसका जिक्र आता है। संस्कृति में इनका महत्व तो बढ़ा है लेकिन बाजारीकरण के इस दौर में नया आकशZण पैदा कर लेने से किसानों के बीच इन फसलों का आकशZण नहीं बढ़ रहा हैं खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाने वाली सनई व ढैचा का वजूद भी मिट चुका है। इन फसलों को तैयार कर खेतों में जोत दिया जाता था तथा खेतों में पानी भर दिया जाता था। खेतों सड़ने के बाद यह फसलें खाद का काम करती थी। काफी मेहनत से तैयार होने वाली फसलें में पटुआ की भी खेती किसान करते थे। पहले पटुआ की खेती को भी किसान खूब तवज्जों देते थे। सत्तु व लड्डू बनाने के काम आने वाला पटुआ दाने के साथ ही सन भी देता था जिससे सुतली व अन्य तरह की रिस्सयां बनती थी। पटुआ को काट कर दाने की बोडरी तोड़ कर तने को पानी में सड़ा कर सन निकाला जाता था। आज के दौर मेें जिले से पटुआ की खेती भी लगभग विदा ले चुकी है। नगदी फसल मेन्था की ओर किसान ज्यादा तवज्जों दे रहे हैं।
कलौजी, असली, मेण्डुआ, व मोथी आदि फसलों को भी किसान अलविदा कह रहे हैं। इस तरह साठा धान प्रजाति की खेती लगभग 20 प्रतिशत समाप्त हो चुकी है। कम लागत में तैयार होने वाली धान की इस प्रजाति पर लोगों का आकशZण कम होने से किसान खेत से अलविदा कह चुके है। करवा चौथ की पूंजा में इस धान के प्रजाति चावल का पकवान बना कर पूजते थे। इस तरह से कई फसलें ऐसी है जो धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। आने वाले समय में ये फसलें कहानी किस्सों में ही सिमट कर रह जायेगी। किसान मानते है कि इन फसलों को छोड़ने के पीछे परिस्थितियांं ही है। जैसे सुविधाएं व भूमि होती है वैसी खेती होती है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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