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जमींदोज होती पुरातात्विक धरोहर

Posted on 18 March 2010 by admin

ललितपुरं जनपद वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक स्थलों, विशिष्ट पुरातात्विक धरोहरों की नगरी होने के बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार के  पुरातत्व विभाग के अड़ियाल और उदासीन रूख के कारण अपनी विरासत को जमीदोज होते देख रहा है। सतयुग से लेकर कलयुग तक के इतिहास का साक्षी दुघई ललितपुर मुख्यालय से 35 किमी. की दूरी पर घनघोर जंगल में अपने अतीत का गौरव गान करा रहा है।

दसवीं शताब्दी में दुधी (दुधई) नगर की स्थापना कृष्णय ने की थी। धंगदेव के राज्यकालीन शिलालेख के अनुसार ब्रह्या, विष्णु और महादेव के मिन्दर मुख्य मण्डप के अन्त:भाग में निर्मित किये गये थे। राज्य की मुख्य राजनीतिक और धार्मिक गतिविधियों के केन्द्र दुघई के सन्दर्भ में अरब के विद्वान अलबिरूनी ने अपने ग्रन्थ में ग्यारहवी शताब्दी के महत्वपूर्ण एवं समृद्धशाली नगर के रूप में इसका उल्लेख किया है। किसी समय कला और सौन्दर्य के पुजारी ब्रह्या, विष्ण, महादेव मिन्दरों के पाषाण खण्डों पर मोम की तरह छैनी-हथौड़ों के माध्यम से लिखी गई पत्थर पर शिल्प की कविता को देखकर हतप्रभ रह जाते थे किन्तु विभागीय लापरवाही के कारण इन मिन्दरों के स्विर्णम सौन्दर्भ को अब काल रूपी ग्रहण ने ग्रस लिया है।

मंदिरो के आसपास इमारती पत्थरों की खदान होने से स्थानीय लोगों के मन में यह भ्रान्ति भर गई है कि प्राचीन अवशेषों के नीचे भारी खजाना छिपा है। इस खजाने की प्राप्ति के लिए आये दिन स्थानीय लोगों के साथ मूर्ति तस्कर इस ऐतिहासिक धरोहर के भाग्य का सूर्य समय से पूर्व अस्त करने में जुट गये है। पुरातत्व विभाग ने इन्हें बचाने का प्रयास करने की बजाय अपना नीला बोर्ड लगाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली है। दुधई 15वीं शताब्दी तक अपने गौरवशाली अतीत की हिफाजत करती रही। बुन्देला शासक राम चन्द्र के समय दुधई महाल में 3,652 बीघा खेती थी तथा लगान की राशि 2,06,000 दाम थी। राजपूत और गोण्ड जाति के लोगों की आबादी वाले इस महल में 700 सैनिक थे। सत्ररहवीं शताब्दी में बुन्देलाओं के आपसी युद्धों के चलते दुधई महाल के पतन की गाथा शुरू हो गई और धीमे-धीमे दुधई एक छोटे से गांव के रूप में परिवर्तित हो गई। प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सेण्ड स्टोन पर गुप्तकालीन और चन्देलकालीन स्थापत्य कला की परम्परा को यहां के पत्थरों पर उकेरा गया है। मिन्दर और महल के द्वार पर छोटी-छोटी जालियों पर की गई नक्काशी देखती ही बनती है। 1975 में गणेश की विशालकाय प्रतिमा चोरी हो गई थी। रास्ते में पकड़े जाने बाद पुलिस विभाग द्वारा जनपद मुख्यालय पर स्थित पुरानी कोतवाली में इस मूर्ति को स्थापित करा दिया गया था। इा मिूर्त की आभा देखती ही बनती है दुघई का मुख्य मिन्दर, चारों किनारों की छोटी-छोटी गठिया, मण्डप, अर्धमण्डप व प्रशिक्षण पथ और अनगिनत पाषाण प्रतिमाओं को देखकर कविवर हरिजी की पंक्तियां याद आ जाती हैं-

किस सुर शिल्पी ने अपना शिल्प दिखाया, किस पुण्यवान ने पत्थर मोम बनाया।

जिसने भी देखा मन में संशय आया,               यह नर रचना है या सुरों की माया

दुघई में वास्तव में गुप्तकाल एवं उसके परवर्ती गुर्जर, प्रतिहार, चन्देलकालीन शिप्ल सौन्दर्य का अदृभुत संगम है।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

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