लखनऊ 10 फरवरी 2018, राजनीति में आज पश्चिमी विद्वानों का बोलबाला बढ़ रहा है। प्राफिट बेस्ड विश्व के दौर में इन पश्चिमी आर्थिक शिक्षाविदों ने राजनीति से धर्म को दूर कर दिया है। जबकि धर्म भारतीय राजनीति का अहम बिन्दु रहा है। भारत में प्राचीन काल से हमेशा धर्म ने राजनीति को आत्मसात किया है। लेकिन कर्म की बजाए भोगवादी माॅडल ने धर्म को राजनीति का दुश्मन बना दिया। इससे भारत की सामाजिक-आर्थिक विचारधारा में पश्चिमी शिक्षा प्राप्त विद्वानों का बोलबाला हो गया। राजनीति की धारा एक कोने में सिमट गई। आज भारत में मैकेनिज्म पश्चिमी है। जो कुछ पश्चिमी है वह ब्यूरोक्रेसी है। यह ब्यूरोक्रेसी राजनीति को जटिल बनाकर उसको आम आदमी की पहुंच से दूर कर रही है। यह उद्गार पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 50वीं पुण्यतिथि की पूर्व संध्या पर कमल ज्योति में आयोजित त्रिदिवसीय विचार कार्यशाला के अवसर पर राष्ट्रधर्म के प्रबंध संपादक श्री सर्वेश द्विवेदी ने व्यक्त किया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष श्री राकेश त्रिवेदी ने किया। मंच का संचालन कमल ज्योति के प्रबंध संपादक श्री राजकुमार ने किया।
गौरतलब है कि, 11 फरवरी, 1968 की रात में रेलयात्रा करते समय पं दीन दयाल उपाध्याय की हत्या कर दी गई थी। जिसका राज आज तक नहीं खुल सका है। आज उनकी पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में श्री द्विवेदीने कहा कि दीनदयालजी मूलतः एक चिंतक, सृजनशील विचारक, प्रभावी लेखक और कुशल संगठनकर्ता व भारतीय राजनीतिक चिंतन में एक नए विकल्प एकात्म मानववाद के मंत्रद्रष्टा थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्ममानव दर्शन जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी थी।
श्री द्विवेदी ने अपने व्यानख्यान में बताया कि, दीनदयाल उपाध्याय का चिंतन शाश्वत विचारधारा से जुड़ता है। इसके आधार पर वह राष्ट्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। समस्याओं पर विचार करते हैं। उनका समाधान निकालते हैं। उनका तथ्य ही भारत के अनुकूल प्रमाणित होता है। इसलिए आज हमको यह समझना होगा कि, दीनदयाल उपाध्याय ने कोई अपना वाद नहीं बनाया। उनका दिया गया एकात्म मानव, अन्त्योदय जैसे विचार वाद की श्रेणी में नहीं आते। यह दर्शन है। जो हमारी ऋषि परंपरा से जुड़ता है। इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है। बल्कि व्यष्टि, समष्टि और परमेष्टि व्याप्त है। इसके विपरीत व्यक्ति, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है। वे कहते हैं कि प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है। आत्मा को परमात्मा का अंश माना जाता है। यह एकात्म दर्शन है। इसमें समरसता का विचार है। इसमें भेदभाव नहीं है। व्यक्ति का अपना हित स्वभाविक है। वे कहते हैं कि, राष्ट्रवाद का यह विचार प्रत्येक नागरिक में होना चाहिये। मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक मात्र नहीं है। जीवन यापन के साधन अवश्य होने चाहिए। ये साधन हैं। साध्य नहीं है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विचार भी ध्यान रखना चाहिये। सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये। अर्थात लाभ की कामना हो, लेकिन का शुभ होना अनिवार्य है।
श्री द्विवेदी ने कहा कि, दीनदयाल जी ने संपूर्ण जीवन की रचनात्मक दृष्टि पर विचार किया। उन्होंने विदेशी विचारों को सार्वलौकिक नहीं माना। भारतीय संस्कृति संपूर्ण जीवन व संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। इसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। इसलिए टुकड़ों−टुकड़ों में विचार नहीं हो सकता। संसार में एकता का दर्शन, उसके विविध रूपों के बीच परस्पर पूरकता को पहचानना, उनमें परस्पर अनुकूलता का विकास करना तथा उसका संस्कार करना ही संस्कृति है। प्रकृति को ध्येय की सिद्धि हेतु अनुकूल बनाना संस्कृति और उसके प्रतिकूल बनाना विकृति है। संस्कृति प्रकृति की अवहेलना नहीं करती। भारतीय संस्कृति में एकात्म मानव दर्शन है। मानव केवल एक व्यक्ति मात्र नहीं है। समाज व समष्टि तक उसकी भूमिका होती है। राष्ट्र भी आत्मा होती है। समाज और व्यक्ति में संघर्ष का विचार अनुचित है। राज्य ही सब कुछ नहीं होता। यह राष्ट्र का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं होता। राज्य समाप्त होने के बाद भी राष्ट्र का अस्तित्व बना रहता है।
उन्होंने कहा कि, दीनदयाल जी ने भारतीय दर्शन की इस पंरपरा को लेकर इस बात का पूरा प्रयास किया कि दल संरचना संतुलित हो इसके लिए उन्होंने संगठन, भ्रमण, पठन पाठन और चिंतन को नित्यकर्म बनाया। मुद्दों पर गहराई तक जाना, गहन विचार विमर्श करना और कराना, उनकी कार्यशैली का महत्वपूर्ण अंग था। स्वतंत्रता के पश्चात भारत में कांग्रेस द्वारा अपनाये गये समाजवाद के अलावा भी कई प्रकार के समाजवाद और साम्यवाद देश पर थोपे जा रहे थे। तब उन्होंने इन वादों के तात्कालिक प्रभाव को रोक देने के लिये, भारतीय चिंतन की परिपक्व एवं हजारों वर्षो से सफलतापूर्वक अपनाये जा रहे, आदर्श जीवन-आयामों को एक सूत्र में पिरो कर एकात्म मानववाद के रूप में संकलित व स्थापित किया और सांस्कृतिक सत्य से मिली सनातन् धरोहर को नये स्वरूप में परिभाषित कर समाज के सामने रखा। जिससे वे लोग जो भारतीय चिन्तन के साथ थे उन्हंे अपना मंच मिला। समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद और भौतिकतावाद को एकात्म मानववाद के द्वारा भारतीय चुनौती दी गई और आज सारे वाद हवा हो चुकें हंै, मगर एकात्ममानववाद के आधार पर चली जनसंघ और अब भाजपा देश की सत्ता तक पहंुच चुकी है। उनके मूल के अनूरूप आज 19 प्रातों में भाजपा की सरकारें हैं। और अच्छे से काम कर रहीं हैं। यानि हम कह सकते हैं कि पंडित जी का राजनीतिक चिंतन आज पूरा होता दिख रहा है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए श्री राकेश त्रिवेदी ने कहा कि पंडित जी ने अपनी अल्प अवधि के जीवन काल में भारतीय समाज जीवन को जो कुछ भी दिया वह अविस्मरणीय है। उनके राजनीतिक चितंन को हम उनके पहले चुनाव अभियान से समझ सकते हैं जब उन्होंने जीतने के लिए जाति का सहारा लेने से इंकार कर दिया। वे चुनाव हार गए लेकिन उन्होंने भारतीय राजनीति की चिंतन धारा में जिस समावेशी विचार का प्रादुर्भाव किया वह अनूठा उदाहरण बन गया।
इस त्रिदिवसीय कार्यक्रम में के प्रथम दिन शैलेन्द्र पांडेय, संजय कुमार गौड, चेतन शुक्ला, अमर सिंह, सफायत हुसैन, जितेन्द्र तिवारी, धनंजय शुक्ला, अश्विनी पाठक, प्रयागमति आदि मौजूद रहे।