त्यूनी से धारचूला पदयात्राः उत्तराखण्ड बचाओ आंदोलन का शंखनाद रुउत्तराखण्ड में सभी पार्टियों ने जनता को केवल गुमराह ही किया रु सरकार अपनी कल्याणकारी भूमिका से पीछे ६७ साल बाद भी उत्तराखण्ड के गाँव एक अच्छी सुबह देखने से वंचित रुसाढे ६ लाख गाँव स्वतन्त्रता का दम नही भर सकते रुगाँव की पहचान चुनावों में मतदाता से ज्यादा नही रुउत्तराखण्ड राज्य गठन के १५ वर्ष रुउत्तराखण्ड राज्य से जुडी आशाएं ध्वस्तरुलोगों के सपने ढेर रुआन्दोलनकारी ताकतें हताश व निराश रुसब खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं रु उत्तराखण्डियों को आशा थी कि रु नीतियां उनके अनुरूप बनेंगी रु जलए जंगलए जमीन पर लोगों के हक हकूक बनें रहेंगे रु शिक्षा स्वास्थ्य तक आम आदमी की पहुंच होगी रु गांवों में रोजगार के अवसर पैदा होने से पलायन रूकेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ रुराज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट रुशिक्षा.स्वास्थ्य की स्थिति बदहाल रु बेरोजगारी के हालात बदस्तूर रु रोजगार के अवसर समाप्त कर नियुक्तियां ठेके पर रुन पंचायत नियमावली में संशोधन कर उन्हें वन विभाग के नियंत्रण में दे दिया रु तराई की वेशकीमती जमीनें कौडयों के भाव उद्योगपतियों को दी रु उर्जा प्रदेश के नाम पर ५५६ से अधिक बांध बनाकर उपजाउ जमीनों को डुबोने की तैयारी रु पीण्पीण्पीण्मोड के जरिये आम जनता को शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी अधिकारों से वंचित रु उत्तराखण्ड में १६ सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पीण्पीण्पीण्मोड में रु १८०० राजकीय प्राथमिक विद्यालय कम छात्रों की संख्या होने के कारण बंदी के कगार पर रु अल्मोडा तथा पौडी जैसे समृद्ध जिलों में राज्य बनने के बाद आबादी का घटना सरकार के विकास के दावों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। लगभग ३६०० गाँव वीरानी की ओर अग्रसर हैं। रु चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक द्वारा प्रस्तुत एक्सक्लूसिव रिपोर्ट. लॉग ऑन करें. ूूूण्ीपउंसंलंनाण्वतह ;न्ज्ञ स्मंकपदह छमूेचवतजंसद्ध उत्तराखण्ड के सामाजिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्व वेब पोर्टल
प्रख्यात समाजसेवी तथा पदमश्री डा० अनिल प्रकाश जोशी के नेतृत्व में त्यूनी से धारचूला: गांव बचाओ आंदोलन का शंखनांद शुरू होने जा रहा हैए इसके लिए २४ मई २०१५ को राज्य के गांवों से सन्दर्भित एक गोष्ठी का आयोजन देहरादूनए उत्तराखण्ड में किया गया है। आज आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि उत्तराखण्ड बनने के १५ वर्षो में गांव का दमखम लगातार बिगडता चला गया। वहीं दूसरी तरफ सरकारें विकास का झूठा ढंढोरा पिटने में जुटी रही। इन्हीं गांवों ने उत्तराखण्ड के सृजन में कई तरह की बलि दी हैं पर आज वे हताश और भौचक्कें है। गांव के बिगडते हालातों व सरकारों का नकारापन एक नयी चुनौती के रूप में फिर से हमारे बीच में हैं। इन तमाम मुददों पर बातचीत करने के लिए व अगामी गांव बचाओं आन्दोलन की रणनीति पर चर्चा के लिए आम जन सहभागिता की अपील की गयी है। डा० अनिल जोशी ने आह्वान किया है कि
भाई बहनों
स्वतन्त्रता के ६७ साल बाद भी उत्तराखण्ड के गाँव एक अच्छी सुबह देखने से वंचित हैं। यह कहानी सारे देश की है। आज देश की पहचान ८००० शहर और २२००० कस्बे तक ही सीमित है। साढे ६ लाख गाँव आज भी देश की स्वतन्त्रता का दम नही भर सकते। देश की प्रगति एक पक्षीय दिखाई देती है। सरकारों की मंशा गाँव से अलग विकास के चारों तरफ केन्द्रित है। गाँवों में रोशनी और निराशा को कभी भी स्वतन्त्रता के बाद मुहांसा नही मिला गाँव की आज बडी पहचान चुनावों में मतदाता से ज्यादा नही समझी जाती।
नवोदित उत्तराखण्ड राज्य इस कडी का एक बडा उदाहरण है। राज्य की कल्पना के पीछे इसके गाँव की व्यथा राज्य की मांग का बडा हिस्सा रही है। इस आन्दोलन में उत्तराखण्ड के हर गाँव की उपस्थिति प्रमुख रूप से दर्ज थी। इसके पीछे एक बडी आशा थी कि राज्य मिलने के बाद गाँव के हालात बहुरेंगें।
उत्तराखण्ड राज्य गठन के १५ वर्ष होने जा रहे हैं। इन वर्षो में उत्तराखण्ड राज्य से जुडी आशाएं ध्वस्त हो गयी हैं। नये राज्य को लेकर लोगों के सपने ढेर हो गये हैं। आन्दोलनकारी ताकतें हताश व निराश हैं। सब खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं।
उत्तराखण्डियों को आशा थी कि राज्य बनने के बाद इस हिमालयी राज्य में उनकी अपनी सरकार होगीए जो यहां के घर बाहर के मुद्दों को भलिभांति समझेगी। नीतियां उनके अनुरूप बनेंगी। जलए जंगलए जमीन पर लोगों के हक हकूक बनें रहेंगे। शिक्षा स्वास्थ्य तक आम आदमी की पहुंच होगी। गांवों में रोजगार के अवसर पैदा होने से पलायन रूकेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके विपरीत राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट तेज हो गयी। शिक्षा.स्वास्थ्य की स्थिति बदहाल हुई। महंगाई से आम आदमी त्रस्त हुआ। बेरोजगारी के हालात बदस्तूर हैं। रोजगार के अवसर समाप्त कर नियुक्तियां ठेके पर चल पडी हैं। उद्योगों में रोजगार के नाम पर युवाओं का अत्यधिक शोषण हो रहा है। सरकार पहाड पर चढने में असमर्थ हुई है। गैरसैंण राजधानी के मसले पर अब तक सत्ता में काबिज रही सभी पार्टियों ने जनता को केवल गुमराह ही किया है।
राज्य बनने के तत्काल बाद २००१ में वन पंचायत नियमावली में संशोधन कर उन्हें वन विभाग के नियंत्रण में दे दिया गया। उसी वर्श वन अधिनियम में संशोधन कर आरक्षित वनों तक वनोत्पाद को लाना अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया। तराई की वेशकीमती जमीनें कौडयों के भाव उद्योगपतियों को दी गयी हैं। लचीले भू कानूनों के चलते समूचे राज्य में काश्तकारों की जमीनों की बडे पैमाने पर खरीद फरोख्त हुई है। उर्जा प्रदेश के नाम पर ५५६ से अधिक बांध बनाकर उपजाउ जमीनों को डुबोने की तैयारी की जा रही हैए जबकि इसका कोई लाभ यहां की जनता के पक्ष में नही पडने वाला।
सरकार अपनी कल्याणकारी भूमिका से पीछे हट चुकी है। पीण्पीण्पीण्मोड के जरिये आम जनता को शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। उत्तराखण्ड में १६ सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पीण्पीण्पीण्मोड में दिये जा चुके हैं। इन अस्पतालों में की जा रही लूट के खिलाफ जनता आन्दोलित हैए लेकिन सरकार के कान में जूं नही रेंगती। स्वास्थ्य केन्द्र रैफरल सेन्टर बनकर रह गये हैं। और शिक्षा के हालात भी इतने ही दयनीय हैं। राज्य में १८०० राजकीय प्राथमिक विद्यालय कम छात्रों की संख्या होने के कारण बंदी के कगार पर हैं।
भूमि बंदोबस्त व चकबंदी के सवाल पर सभी सरकारें मौन हैं। समय पर भूमि बन्दोबस्त ना होने से गाँवों में पलायन बढा है। हमारी युवा षक्ति श्रमषील है। लेकिन भूमि के अभाव में बैरोजगार है। भूमि बन्दोबस्त व साथ में चकबन्दी भी एक बडा मुद्दा है। कठोर वन एवं भू कानूनों के चलते ग्रामीणों के कृशि एवं पषुपालन जैसे पुष्तैनी व्यवसायों पर सीधा हमला हुआ है। रही.सही कसर जंगली जानवरों ने पूरी कर दी है। आज उत्तराखण्ड के गाँवों की पहली समस्या वन्य जीवों से खेती व जान को बचाना है। इनके संरक्षण के नाम पर नये सिरे से इकोसेन्सीइटव जोन बनाने के प्रयास जारी है। उत्तराखण्ड में वन्य जीवों की तुलना में आदमी को बोना कर दिया गया है। अब संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से लगे १० किलोमीटर के दायरे को इको सेंसटिव जोन बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं। दूसरी तरफ लम्बे संघर्श के बाद २००६ में अस्तित्व में आये वनाधिकार कानून को लागू करने में सरकार नाकाम रही हैं।
पहाडों में घटती जनसंख्या और षहरों में बढता दबाव राजनैतिक असन्तुलन पैदा करने की कगार पर आ चुका है।पलायन की गति सुविधाओं के अभाव में तेजी से बढने वाली है। जनसंख्या के आधार पर किये गये परिसीमन ने पर्वतीय राज्य की अवधारणा पर गहरी चोट पहुंचाई है। अब विधानसभा में पहाडों का प्रतिनिधित्व नये समीकरणों से घटता जायेगा। अल्मोडा तथा पौडी जैसे समृद्ध जिलों में राज्य बनने के बाद आबादी का घटना सरकार के विकास के दावों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त है। लगभग ३६०० गाँव वीरानी की ओर अग्रसर हैं।
इन परिस्थितियों में उत्तराखण्ड के तमाम सामाजिक संगठनों ने गहन विचार मंथन के बाद गांव बचाओं आंदोलन करने की ठानी है। इसके लिए सितम्बर २०१५ में संपूर्ण उत्तराखण्ड में यात्रा करने के बाद देहरादून में विशाल प्रदर्शन कर आगे की रणनीति बनाना तय किया गया है। त्यूनी से धारचूला की यह यात्रा पहाड के सामाजिकए राजनैतिक व आर्थिक प्रश्नों को लोगों के बीच में उतारेगी। हमारा जनपक्षीय उत्तराखण्ड निर्माण की पक्षधर जनता से अनुरोध है कि आम जन की अपेक्षा के अनुरूप राज्य निर्माण हेतु गांव बचाओ आंदोलन में भागीदारी कर अपनी जागरूकता व कर्तव्य का परिचय दें।
चन्द्रशेखर जोशी
सम्पादक
द्वारा प्रस्तुत एक्सक्लूसिव रिपोर्ट