26 जनवरी 2014 को रात्रि 11.30 बजे अचानक मोबाइल बज उठा। मैं ठीक से सो नहीं पाया था इसलिए जल्दी से फोन उठा लिया। उधर से वही चिरपरचित दमदार आवाज आयी, ”भारती जी! आपने गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाओं का एसएमएस भेजकर छुटटी पा ली, बात नहीं की। मैंने इतने समय इसलिए फोन किया कि यदि अभी न करता तो गणतन्त्र दिवस की तारीख बदल जाती। आप जानते है कि मैं आज का काम कल पर नहीं छोड़ता, गुड नाइट। इसके पहले कि मैं कुछ बोलता उन्होंने फोन काट दिया। मैं भी सोने के मुड में था सो अपनी तरफ से फोन नहीं किया।
इसके दो दिन बाद 28 जनवरी को ही खबर आर्इ की आचार्य अरूण कानपुरी नहीं रहे! एक बड़ा धक्का सा लगा कि गणतन्त्र दिवस के दिन एक मीनट की बात हुर्इ, आगे बात भी नहीं हो सकी और अब कभी बात नहंीं होगी। उनके साथ गाजियाबाद में बिताये दस साल के एक-एक दिन याद आने लगे। मैं 28 जुलार्इ 1995 से 28 फरवरी 2004 तक वहां सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के अधिकारी के रूप में रहा और वे दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख थे। जिले के अन्य पत्रकारों के परिचय के साथ लगभग एक महीने में उनसे घनिष्ठता हो गर्इ। सूचना विभाग के अधिकारी और किसी प्रतिषिठत दैनिक समाचार पत्र के ब्यूरो प्रमुख की राहें यधपि अलग-अलग रहती है किन्तु मेरे विचार मिलते थे। मैं अक्सर उनके पास बैठता था। जिले की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों के बारे में चर्चा होती तो वे अनेक विषयों पर बेबाक टिप्पणी रखते हुये सहमत होते किन्तु मेरे प्रशासनिक दृषिटकोण रखने पर वे सहमत न होते? हाँ, यदि मैंने कभी उनसे कहा कि अमुक विषय पर प्रशासन का यह दृषिटकोण है यदि इसे प्रकाशित करेंगे तो जिले का यह लाभ हो सकता है तो उन्होंने कभी मना नहीं किया। गाजियाबाद कि आपराधिक छवि बदलने, औधोगिक वातावरण बनाने तथा समाजिक, सांस्कृतिक, साहितियक गतिविधियों को बढ़ावा देने में उन्होंने जो योगदान दिया वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। यही योगदान उनकी रचनात्मक पत्रकारता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
अरूण कानपुरी का व्यवहार केवल मेरे प्रति ही नहीं, चाहे जो अधिकारी हो, नेता हो, जनसमान या कोर्इ पत्रकार वे सभी से दिल खोलकर मिलते थे। यदि उनके लायक कोर्इ सहयोग की अपेक्षा करता तो सम्भवत: उन्होंने कभी मना नहीं किया, यही उनका गुण दूसरों से अलग छवि बनाता था और लोकप्रियता का कारण भी किन्तु जितना वे दोस्तों, विशिष्ट लोगों और पत्रकारों के सहयोगी थे उससे कहीं अधिक जागरण संस्थान के लिए समर्पित थे। गाजियाबाद में जागरण को उन्होंने स्थापित ही नहीं किया बलिक सर्वोच्च ऊँचार्इयों तक पहुँचाया। यहां वे जनवरी 1993 से दिसम्बर 2003 तक रहे जिसमें 10 माह पानीपत पोसिटंग के दौरान कारगिल की रिर्पोटिंग भी शामिल है।
अरूण कानपुरी ने शिक्षा के दौरान ही पत्रकारिता प्रारम्भ कर दी थी, 1974 में जब वे हार्इस्कूल कर रहे थे तो साथ-साथ कानपुर में ‘आज के चीफ रिर्पोटर भी थे, इण्टर, बी.ए. उन्होंने वहीं काम करते हुये किया। बाद में वे ‘नवजीवन में आ गये जहां रहते हुये एम.ए. की डिग्री प्राप्त की यहीं से वे सीधे ‘दैनिक जागरण आगरा में चीफ रिर्पोटर बनाये गये। आगरा में ‘दैनिक जागरण को स्थापित करने में उनका योगदान सराहनीय रहा जिसके कारण वह ब्राण्ड बन गये जहाँ भी नये संस्करण निकले या उन्हें जमाने की आवश्यकता पड़ी तो कानपुरी को भेज दिया गया। आगरा से दो साल बाद लखनऊ भेज दिये गये, पाँच साल बाद फिर दो साल कानपुर में रहे और गोरखपुर संस्करण के लिए आवश्यकता हुयी तो एक साल वहां भी रहे, फिर सीधे दिल्ली संस्करण नोएडा भेजे गये और वहां से हाट सिटी गाजियाबाद पहुंचे जहां के बाद मार्च 2004 तक जागरण लुधियाना में रहे जिसके बाद जागरण से उनका सम्बन्ध टूट गया। बाद में चौथी दुनिया, वेब दुनिया, नर्इ दुनिया, बीबीसी, आकाशवाणी और टर्निंग इंडिया के लिए अंतिम समय तक लिखते रहे। यह कहना अतिश्योकित नहीं होगा कि पत्रकारिता उनके खून में समाहित थी। वे शुरू से उत्तर प्रदेश सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार रहे, उन्हें पत्रकारिता उपलबिधयों के रूप में राष्ट्रपति पुरस्कार से लेकर अनेक राष्ट्रीय, प्रादेशिक, क्षेत्रीय एवं जनपदीय पुरस्कार मिले। पत्रकारों के गुण में एक उनका गुण था पीने का शौक जो चाहे सुखद समय रहा हो या गर्दिश के दिन कभी छूट नहीं पाया।
अरूण कानपुरी मूलरूप से कानपुर के रहने वाले थे वहीं पहली अगस्त 1957 में उनका जन्म हुआ और पूरी शिक्षा-दीक्षा भी। वे स्वयं कौमी एकता एवं परिवार कल्याण के मिसाल थे। कटटर हिन्दू परिवार के होकर उन्होंने मुसिलम परिवार में शादी की और खूब निभाया। उनके पीछे पत्नी, एक लड़का और एक लड़की हैं जो अविवाहित हैं और अभी किसी जाब में नहीं है। सम्बल देने के लिये अभी उन्हें सहयोग की आवश्यकता है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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