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प्राकृतिक चिकित्सा : एक परिचय

Posted on 02 January 2014 by admin

प्राकृतिक चिकित्सा स्वस्थ्य जीवन बिताने की एक कला है। यह ठोस सिद्धान्तों पर आधारित एक औषधरहित चिकित्सा पद्धति है। प्राकृतिक चिकित्सा प्राचीन विज्ञान है। वेदों और अन्य प्राचीन ग्रन्थों अनेक संदर्भ मिलते है। ‘विजातीय पदार्थ का सिद्धान्त, ‘जीवनी शकित सम्बन्धी अवधारणा, तथा अन्य धारणायें जो प्राकृतिक चिकित्सा को ठोस आधार प्रदान करती है, प्राचीन ग्रन्थों में पहले से ही उपलब्ध है और इस बात की ओर संकेत करती है कि इनका प्रयोग भारत में व्यापक रूप से विधमान था।
प्राकृतिक चिकित्सा एवं अन्य चिकित्सा पद्धतियों में मुख्य अन्तर यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा का दृषिटकोण समग्रता का है जबकि अन्य चिकित्सा पद्धतियों का विशिष्टता का। प्राकृतिक चिकित्सा प्रत्येक रोग के अलग कारण तथा उसकी विशिष्ट चिकित्सा में विश्वास नहीं रखती है, अपितु अप्राकृतिक रहन सहन, विचार, सोने-जागने कार्य करने व यौन सम्बन्धी आचरण में विषमता आदि कारणो को ही रोग के मुख्य कारण के रूप में निरूपित करती है। साथ ही साथ यह वातावरण सम्बन्धी उन कारणों का भी ध्यान रखती है जो शरीर के सन्तुलन पर दुष्प्रभाव डालकर उसे दोषयुक्त, दुर्बल कर देते है।
एडोल्फ जस्ट की पुरस्तक ‘रिटर्न टू नेचर से प्रभावित होकर गांधी जी प्राकृतिक चिकित्सा के प्रबल समर्थक बन गये। उन्होंने न केवल अपने पत्र ‘हरिजन में प्राकृतिक चिकितसा के समर्थन में अनेक लेख लिखे बलिक अपने ऊपर, अपने परिवार के सदस्यों व आश्रमवासियों पर इसके अनेक प्रयोग भी किये। प्राकृतिक चिकित्सा का आधुनिक आन्दोलन जर्मनी तथा अन्य पाश्चात्य देशों में ‘जल चिकित्सा के रूप में प्रारम्भ हुआ। उन प्रारमिभक दिनों में जल चिकित्सा को ही प्राकृतिक चिकित्सा के रूप में जाना जाता था।
प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त
1.    शरीर में विजातीय पद्धार्थों के संग्रह से रोग उत्पन्न होते है और शरीर से उनका निष्कासन ही चिकित्सा है।
2.    रोग का मुख्य कारण जीवाणु नही है। जीवाणु शरीर में जीवन शकित के हास आदि के कारण विजातीय पद्धार्थों के जमाव के पश्चात तब आक्रमण कर पाते है जब शरीर में उनके रहने और पनपने लायक अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है। अत: मूल कारण विजातीय पद्धार्थ है, जीवाणु नहीं। जीवाणु द्वितीय कारण है।
3.    प्रकृति स्वयं सबसे बड़ी चिकित्सक है। शरीर में स्वयं को रोगों से बचाने व अस्वस्थ्य हो जाने पर पुन: स्वास्थ्य प्राप्त करने की क्षमता विधमान है।
4.    प्राकृतिक चिकित्सा में चिकित्सा रोग की नहीं बलिक रोगी की होती है।
5.    जीर्ण रोगों से ग्रस्त रोगियो का भी प्राकृतिक चिकित्सा में सफलतापूर्वक तथा अपेक्षाकृत कम अवधि में इलाज होता है।
6.    प्राकृतिक चिकित्सा से दबे रोग भी उभर कर ठीक हो जाते है।
7.    प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा शारीरिक, मानसिक, सामाजिक (नैतिक) एवं आध्यातिमक चारों पक्षों की चिकित्सा एक साथ की जाती है।
8.    विशिष्ट अवस्था का इलाज करने के सािन पर प्राकृतिक चिकित्सा पूरे शरीर की चिकित्सा एक साथ करती है।
9.    प्राकृतिक चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग नहीं होता। प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार ‘आहार ही औषधि है।
प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न विधियां
प्राकृतिक चिकित्सा का मूल उददेश्य लोगों के रहन-सहन की आदतों में परिवर्तन कर उन्हें स्वस्थ्स जीवन जीना सिखाना है। प्राकृतिक चिकित्सा की विभिन्न विधियां इस उददेश्य की पूर्ति में अत्यन्त सहायक है। मनुष्य के शरीर में स्वयं रोग मुक्त करने की असाधारण शकित है। यह पांच तत्वों का बना है। जिनका असंतुलन ही रोगों के उत्पन्न होने का कारण है। इन्हीं तत्वों मिटटी, पानी, धूप, हवा और आकाश द्वारा रोगों की चिकित्सा प्राकृतिक चिकित्सा कहलाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में सामान्य रूप से प्रयोग में लायी जाने वाली चिकित्सा एवं निदान विधियां निम्न है :-
आधार चिकित्सा -
इस चिकित्सा के अनुसार आहार हो उसके प्राकृतिक रूप में ही लिया जाना चाहिए। मौसमी फल, ताजी हरी पत्तेदार सबिजयां तथा अंकुरित अन्न इस दृषिट से उपयुक्त है। इन आहारों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है :-
•    शुद्धिकरण आहार : खटटे रस, कच्चा नारियल पानी, छाछ, गेहूं, धास का रस।
•    शांतकारण आहार : फल, सलाद, उबलीभाप में बनायी गयी सबिजयां, अंकुरित अन्न,                   .                  सबिजयों की चटनी।
•    पुषिटकारण आहार : सम्पूर्ण आटा, बिना पालिश किया हुआ चावल, क्षारीय होने के कारण
ये आहार स्वास्थ्य वर्धक होने के साथ-साथ शरीर का शुद्विकरण कर रोगों से मुक्त करने में भी आवश्यक है कि इन आहारों का आपस में उचित मेल हो। स्वस्थ्य रहने के लिए हमारा भोजन 20 प्रतिशत अम्लीय और 80 प्रतिशत क्षारीय अवश्य होना चाहिए। प्राकृतिक चिकित्सा में आहार को ही मूलभूत औषधि माना गया है।
उपवास चिकित्सा -
उपवास के विषय में प्राकृतिक चिकित्सा का मानना है कि यह पूर्ण शारीरिक और मानसिक विश्राम की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के दौरान पाचन प्रणाली विश्राम अवस्था में होती है। अत: भोजन का पाचन करने वाली ऊर्जा पूर्ण रूप से निष्कासन की प्रक्रिया में आ जाती है। कब्ज, गैस, पाचन सम्बन्घी रोग, दमा, मोटापा, उच्च रक्त चाप और गठिया आदि रोगों के निवारण में उपवास का परामर्श दिया जाता है।
मिटटी चिकित्सा -
मिटटी चिकित्सा सरल और प्रभावी है। शरीर को शीतलता प्रदान करने के लिए मिटटी चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है। मिटटी शरीर के दूषित पद्धार्थों को धोलकर एवं अवशोषित कर अन्तत: शरीर के बाहर निकाल देती है। विभिन्न रोग जैसे कब्ज, सिर दर्द, उच्च रक्त चाप तथा चर्म रोगों आदि में इसका सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है।
जल चिकित्सा -
स्वच्छ ताजे एवं शीतल जल से अच्छी तरह से स्नान करना जल चिकित्सा का एक उत्कृष्ट रूप है। इस प्रकार के स्नान से शरीर के सभी रन्ध्र खुल जाते है, शरीर में हल्कापन और स्फूर्ति आती है। शरीर की सभी मांसपेशियां तथा रक्त संचार भी उन्नत होता है। जल चिकित्सा के अन्य साधनों में गरम-गरम सेक, भाप स्नान, पूर्ण टब स्नान भी शामिल है।
मालिश चिकित्सा -
इस प्रक्रिया का प्रयोग अंग-प्रत्यंगो को पुष्ट करते हुए शरीर के रक्त संचार को उन्नत करने में होता है। सर्दी के दिनों में पूरे शरीर की तेल की मालिश के बाद धूप स्नान करना सदैव स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहने का एक चिर-परिचित तरीका है। यह सभी के लिए लाभकारी है। इससे मालिश एवं सूर्य किरण चिकित्सा दोनों का लाभ मिलता है। जो व्यायाम नहीं करते उनके लिए मालिश एक विकल्प है।
इसके अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा के अन्तर्गत सूर्य किरण चिकित्सा, वायु चिकित्सा भी आती है।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
agnihotri1966@gmail.com
sa@upnewslive.com

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