केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री डा. एम. एम. पल्लमराजू ने कहा है कि विश्व संस्कृति के विकास में संस्कृत की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह न केवल ऋषियों की वाणी को सुरक्षित रखने वाली देश की प्राचीन धरोहर है वरन आधुनिक काल में विश्वबंधुत्व के सिद्धान्त भी इसमें लिपिबद्ध हैं। जीवन मूल्यों को समझने के लिए इसे जीवित रखने की नहीं, वरन इसे नये ढंग से विकसित करने की जरूरत है। इसी के कारण देश कभी ‘विश्व गुरु के रूप में जाना जाता रहा। शब्द और भाषा के प्रयोग से नया संसार रचा जा सकता है। आज विश्व भारत की ओर देख रहा है। इसमें संस्कृत के अध्यापकों का दायित्व और बढ़ जाता है। संस्कृत के लिए सरकार अभी जो कर रही, उसमें और गति देने के लिए ‘द्वितीय संस्कृत आयोग के गठन का निर्णय लिया गया है। इसमें संस्कृत के विद्वानों व समाज वैज्ञानिकों की मदद लेकर सरकार संस्कृत के विकास के लिए सभी संभव उपाय करेगी।
श्री पल्लम राजू आज यहाँ इनिदरा गांधी प्रतिष्ठान में, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान द्वारा आयोजित त्रिदिवसीय ‘राष्ट्रीय-संस्कृत-सम्मेलन का उदघाटन कर रहे थे।
मुख्य अतिथि के रूप में पधारे प्रख्यात राजनयिक और विद्वान, ‘भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद के अध्यक्ष डा. कर्ण सिंह ने व्याख्यान देते हुए कहा कि यहाँ मैं हिमालय का प्रतिनिधित्व करने आया हूँ। जीवन का कोर्इ भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिस पर संस्कृत का प्रभाव नहीं है। संस्कृत का वा³मय विशाल है। वेद, पुराण, इतिहास, दर्शन, आयुर्वेद, योग, नाटयशास्त्र, जलसंरक्षण, आदि सभी विषयों पर इस भाषा में व्यापक लेखन हुआ है। उससे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को पुष्ट किया जाना चाहिए। डा. कर्ण सिंह ने सभी विश्वविधालयों में संस्कृत के विभाग खोले जाने की अनिवार्यता पर बल देते हुए केन्द्रीय मंत्री पल्लम राजू से अनुरोध किया कि ऐसा इसलिए किया जाय कि इससे न केवल लोग संस्कृत सीखें, बलिक दूसरे विषयों के लोग भी संस्कृत वा³मय में जो लिखा गया है, उससे लाभ उठायें और इससे समाज का और अन्तत: विश्व संस्कृति का विकास हो सकेगा।
इनिदरा गांधी प्रतिष्ठान के खचाखच भरे हाल में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच डा. सिंह ने कहा कि जब वे संस्थान के अध्यक्ष थे, संसदीय संस्कृत समिति का गठन किया, आकाशवाणी पर संस्कृत वार्ता की शुरुआत करार्इ और देश में ‘संस्कृत दिवस की परम्परा शुरु की। प्रसन्नता की बात है कि ये परम्परा चल रही है।
सारस्वत अतिथि व मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री जितिन प्रसाद ने कहा कि भारतीय संस्कृति की परम्परा संस्कृत से गहरार्इ से जुड़ी हुर्इ है। यदि बचपन में वापस जा सकता तो संस्कृत सीखता ताकि उस गहरार्इ से परिचित हो सकता। इसी के माध्यम से संसार में हमारी पहचान है। इस भाषा को आगे ले जाना है। उन्होंने विद्वानों से अपील की कि वे तीन दिनों के अपने विमर्श के द्वारा ऐसी कार्ययोजना बनाने में मदद करें जिससे वर्तमान और आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ किया जा सके। यह किसी जाति, धर्म या वर्ग की भाषा नहीं है, इसका सारा साहित्य राष्ट्रवादी है। इससे सम्पूर्ण विश्व लाभानिवत हुआ है। इसे रोजगार से जोड़े जाने की जरूरत है। डा. राधाकृष्णन, पंडित नेहरू और डा. अम्बेडकर ने इसकी गम्भीरता को समझा। उ.प्र. की राजधानी में हो रहा यह सम्मेलन, संस्कृत के विकास के लिए, मील का पत्थर साबित होगा।
अतिथियों का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के कुलपति प्रो. ए. पी. सचिचदानन्द ने कहा कि सम्मेलन का उददेश्य सम्पूर्ण विश्व में, संस्कृत की उपादेयता को बतलाना है।
कार्यक्रम का शुभारम्भ अतिथियों के दीप प्रज्ज्वलन, सांदीपनी वेद विधा प्रतिष्ठान, उज्जैन के वैदिकों द्वारा वैदिक मंगलाचरण एवं राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान की छात्राओं द्वारा सरस्वती वन्दना व स्वागत गान से हुआ। इस अवसर पर मंत्री डा. पल्लम राजू द्वारा संस्थान की पत्रिका ‘संस्कृत विमर्श के आठवें अंक का लोकार्पण किया गया। प्रख्यात वैदिक विद्वान पं. रामनाथ वेदालंकार को मरणोपरान्त सम्मान व प्रशसितपत्र दिया गया जो उनके पुत्र डा. विनोद चंद विधालंकार ने ग्रहण किया।
सभा का संचालन संस्थान के मुक्त स्वाध्याय केन्द्र के निदेशक, प्रो. रमाकान्त पाण्डेय ने व धन्यवाद ज्ञापन लखनऊ परिसर के प्राचार्य प्रो. अर्कनाथ चौधरी ने किया। इस सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से डेढ़ हजार से अधिक लोग भाग ले रहे हैं।