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जुवेनाइल एक्ट बाल अपराध का संरक्षक —- संजय कुमार आजाद

Posted on 04 September 2013 by admin

पूरे देश को झकझोर कर देने वाली घटना पिछले साल 16 दिसम्बर 2012 को  दिल्ली में घटित हुई। पूरे देश में इस अमानवीय दुष्कर्म घटना का रोष देख गया। समाज से लेकर सियासत तक को यह घटना हिलाकर रख दिया था। आजादी के 66 वर्ष बाद भी भारत की महिला भारत में,वह भी देष की राजधानी दिल्ली जहां कि मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित हों वहां भी सुरक्षित नहीं है। इस घटना से लगा कि देश में निर्भया  की शहादत एक नई सोच, नई क्रांति का आगाज किया है। भले ही निर्भया उन दरिन्दों का बहशीपन का शिकार बनी किंतु अब भारतीय महिला ऐसे जघन्य कुकृत्य का शिकार नहीं बनेगी, क्योंकि अब सुसुप्त भारतीय समाज भी जागा और देश की सियासत में भी हलचल हुई है। अतः समाज जागरण से और इस व्याभिचार को कठोरतम कानून व त्वरित न्याय से रोका जाएगा। किंतु निर्भया पर उठा जन-जागरण और सियासी हलचल महज पानी का बुलबुला साबित हुआ। लोकसभा की अध्यक्षा महिला, नेता प्रतिपक्ष, महिला और तो और वर्तमान केन्द्रीय सरकार की संजीवनी बुटी एवं निर्देशिका भी महिला। ऐसे में देश को आशा और विश्वास था कि अब समाज के आधे अंग को न्याय मिलेगा, उसका हक मिलेगा। सदियों से उपेक्षित दलित एवं उपभोग तथा  नुमाईश की वस्तु समझे जाने वाली महिला का पुर्नजागरण होगी। वैदिक परंपरा में ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ की पुर्नस्थापना होगी। समाज और सियासी दल कीचड़ में छुपे देश की आधी आबादी को उसकी हक देकर शोषित, पीडि़त महिलाओं को सम्मान से जीने का हक इस भारत भूमि में किसी मत, पंथ या समुदाय के रूप में नहीं बल्कि महिला के रूप में उसे समान अधिकार व न्याय देकर संविधान की मूल भावना को सुदृढ़ करने का प्रयास किया जाएगा। किंतु निर्भया की घटना के बाद एक बार फिर समाज और सियासत कुंभकर्णी नींद में सो गया। फलस्वरूप बलात्कार की घटनाओं में नापाक वृद्धि हुई और अपराधी भी निडर हो गये। अभी हाल ही में मुम्बई में अखबार के युवा फोटोग्राफर के साथ वही शर्मसार घटना दुहराई गयी। देश में अल्पव्यस्कों के द्वारा किये जा रहे घटनाओं में सर्वाधिक बढ़ोतरी हो रही है। क्योंकि भारत का कानून 18 वर्ष से कम उम्र के नृशंस अपराधियों को तीन साल की अधिकतम सजा वो भी बाल सुधार घर भेजकर देती है।यह न्याय सिर्फ पीडि़तों को हीं आजीवन दम घुट-घुट कर मरने की सजा देती है। आज के उन्मुक्त वातावरण में पल रहे और इंटरनेट की जिंदगी में जी रहा बालक 10 से 12 वर्ष की उम्र में ही अपने मस्तिष्क का विकास उस स्तर तक कर लेता है जो आज से 20 वर्ष पूर्व 21 वर्ष का युवा नहीं कर पाता था। उम्र के आधार पर न्याय की परिभाषा प्राकृतिक न्याय का गला घोंटना एवं पीडि़तों को जीते जी मरनासन्न के रूप में छोड़ना है। वर्तमान कानून की यह परिभाषा समाज के लिए विध्वंसकारी है जो सिर्फ अपराध को बढ़ावा देता है। अपने इर्द-गिर्द का सामाजिक वातावरण एवं पारिवारिक माहौल में 10-12 वर्ष के उम्र तक के बच्चे, बच्चे नहीं अपितु सब कुछ सोचने-समझने में सक्षम हो जाता है। ऐसे में वैसी घटनायें जो समाज के लिए अत्यंत विध्वंसकारी है के लिए उम्र की परिभाषा पर दंड का प्रावधान अमानवीय है। बलात्कार पीडि़ता की मनःस्थिति और समाज व परिवार का उसके प्रति नजरिया ही तिल- तिलकर उस पीडि़ता को मरने को मजबूर करती है। उस मुकाम तक पहुंचाने वाला दोषी महज 3 साल में छूटकर उसी पीडि़ता के छाती पर मूंग दलता रहता है। न्याय के उपर हंसता है।ये कैसा न्याय और न्याय की ऐसी संकल्पना से तो अच्छा बर्बर जीवन में ही जीना है। निर्भया के मामले में दिल्ली के बाल किशोर न्यायालय ने जो अधिकतम 3 साल का सजा उस दोषी को दिया वह निंदनीय व पुरुष समाज का महिलाओं के प्रति घोर अपमान है। बाल किशोर अपराधियों को उसकी मनोदशा, उसका मानसिक स्थिति जब अबोधावस्था की हो, मंद बुद्धि का हो तब वह बाल सुधार गृह के लिए उपयुक्त सजा हो सकती है। किंतु बलात्कार जैसी जघन्यता के लिए नहीं। किसी की हत्या के लिए नाबालिग को उसकी मानसिक विकास एवं बौद्धिक दक्ष्ता क्रम मानकर उसे बाल अपराधी कहा जा सकता है। बलात्कार जैसे अमानवीय प्रवृति किसी भी दशा में बाल अपराध नहीं हो सकता है और इस विकसित और बददिमागी प्रवृति पर कठोर से कठोरतम यहां तक की (बाल/वयस्क दोनों दशा में) फांसी की सजा भी कम है। मानसून सत्र में अनेक घोषणाओं का पिटारा संसद में लाया गया। कुछ विधेयक भी लाए गए। किंतु महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराध एवं तथाकथित बाल किशोर अपराधियों के प्रति संसद कठोर कानून नहीं बना पाया। एक कानून बना भी ‘‘पास्को’’ जो बलात्कार या महिलाओं के प्रति हो रहे व्यभिचार, छेड़छाड़ या अन्य मामलों में सिर्फ उम्र के आधार पर ही सजा देने का प्रावधान रखा है। जबकि तथाकथित बाल-किशोर अपराधियों का अपराध इस सामाजिक क्षेत्र में सुरसा की तरह बढ़ रही है। किंतु इस सरकार से महिलाओं की सुरक्षा की आशा करना बालू से तेल निकालने के जैसा है। समाज को विष्वास था कि श्रीमती सोनिया गांधी अपने पति एवं पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा वर्ष 1985 में किया गया पाप का प्रायश्चित इस बहाने कर सकेगी ताकि श्री राजीव गांधी की आत्मा को सुकून मिले और महिलाओं के प्रति उनका सामन्ती सोच का दाग धुल सके। देश को स्मरण होगा कि 60 वर्षीय मुस्लिम महिला शाहबानो ने अपने पति से तलाक के बाद अपना जीवन निर्वाह के लिए गुजारा भत्ता की मांग की थी। वह साहसिक मुस्लिम महिला सुप्रीम कोर्ट तक गयी और सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय कानून संहिता 125 ब्तच्ब के तहत फैसला शाहबानो के पक्ष में दिया किंतु उस महिलाओं को मिला यह अधिकार स्वतंत्र भारत के सामन्ती सोच का पार्टी कांग्रेस (ई) और उस वक्त के प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने शाहबानो की जिंदगी के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी को बद से बदतर बनाने एवं उसे दर-दर की ठोकरे खाने या अपने अस्मत तक बेचने को मजबूर कर जीने के लिए छोड़ दिया। उस अधिकार से वंचित करने के लिए तत्काल लोकसभा में डॅच्त्क्.।बज 1986 ;डनेसपउ ॅवउमद ।तवजमबजपवद व ित्पहीजे वद क्पअवतबम ।बज 1986द्ध लाया और पास कराकर उसे शाहबानों मामले में भी लागू कराया। संविधान की मूल भावना के विपरीत यह अराष्ट्रीय कानून लोकतंत्र की आड़ में बनाई गयी और देश की महिला भारतीय के नाते नहीं अपितु मत, पंथ और समुदाय के तराजू में तौली जाने लगी। आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत की महिला अपने समानता के अधिकार को प्राप्त करने से वंचित है। आखिर देश के वोट बैंक के सौदागर अपनी वोट की लालच में कब तक महिलाओं के हक और हकूक का सौदा कर मुगलिया स्वप्न में डूबे रहेंगे। इस देश की आधी आबादी को पंथ व समुदाय से उपर उठकर आगे आने होगा। अपना हक इस पुरुष प्रधान समाज से उसे छिनने के लिए बगावत करना हो या जन क्रांति करना हो, उसे करना ही चाहिए। कोई भी पीडि़ता अपने प्रति किये अपराध को मत, पंथ या समुदाय की चश्मे से अपने उपर किये अपराध को नहीं देखती, अपराधी का उम्र, मत, पंथ से उसका कुकृत्य नहीं देखा जाता है। फिर भारत की लोकतंत्र ऐसा अमानवीय, घृणित, असंवैधानिक कुकृत्य को उम्र की तराजू से क्यों तौल रहा है। बलात्कार जैसे अमानवीय कृत्य जीते जी महिलाओं को ना घर का छोड़ती है ना बाहर का। इस घटना के उपरांत जीवित महिलाओं के आत्मबल एवं उसके साहस को भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को शुक्रगुजार होना चाहिए कि ईश्वर प्रदत्त जीने का अधिकार के सहारे वह इस पाश्विक पुरुष के समाज के बीच जिंदा है और वह समाज को दिशा देने में भी सक्षम है। ऐसे में भारत सरकार एवं अन्य स्वयंसेवी संगठन भी जुवेलाईल एक्ट जैसा अलोकतांत्रिक व घृणित एक्ट से भारत को मुक्त कराने का सार्थक प्रयास करे। जुबेनाइल एक्ट बाल मनोविज्ञान की प्रवृति के उलट इन अपराधों में है यह समाज को अधोगति पर ले जाने का प्रमुख कारक है। बाल सुधार गृहों का मकसद बाल अपराधियों में पुर्नवासित कर मुख्य धारा में शामिल होने लायक बनाना है किंतु आंकड़े बताते हैं कि नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के वर्ष 2011 के आंकड़े के अनुसार बाल अपराधियों में से 64 प्रतिशत 16 से 18 वर्ष के आयु वर्ग के बाल अपराधी हैं। ऐसी परिस्थिति में यह जुबेनाइल एक्ट समाज में बाल अपराध को बढ़ावा और संरक्षक के रूप में कार्यशील है। जिसका सर्वाधिक शिकार इस देश की महिला बन रही है।पुरूष प्रधान भारतीय समाज और विष्व का परिपक्व विषाल लोकतंत्र की गरिमा इस गैरकानूनी जुबेनाइल एक्ट को समाप्त करने में ही है। —————-    संजय कुमार आजाद

ईमेल-   azad4sk@gmail.com

दूरभाष-  9431162589

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

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