न तो डंडे रंगें गये न चने भिगोये गये
………फिर भी गुडि़या मना ली गयी
न तो डंडे रंगें गये न चने भिगोये गये न अखाड़े खोदे गये न तो दांव लगाये फिर भी गुडि़या मना ली गयी। बेचारी गुडि़या का श्रृंगार ही नहीं हुआ तो वह पिटती कहां से। चने और उड़द की दाल बाजार से आयी नहीं तो वह पिसती कहां से। गुलगुले और ठोकसा भी कड़ाही में नाचने को तरस गये। बेचारे नाग देवता को गाय का दूध ही कहां से मिले जब घर के दरवाजे से नाॅंद व खूंटे ही गायब हैं? गाय के गोबर से घरों की लिपाई अब किस्से कहानी में ही होगी।
‘गुडि़या’ अर्थात नाग पंचमी भारतीय संस्कृति के संवाहक पर्वों की श्रंखला का प्रथम सोपान है।
जिस दिन आये नाग
उस दिन गायें फाग
यानी नाग से फाग तक की अटूट श्रृंखला में पर्व हमारे संस्कारों को सहेजनें का काम करते थे। अब धीरे-धीरे सभी तीज त्योहार केवल रस्म अदायगी भर रह गये हैं। नाग पंचम के दिन सुबह से गुडि़यों का श्रृंगार शुरू हो जाता। बच्चे अपने डंडे रंगने में व्यस्त रहते। बड़े लोग अखाड़े खोदने व कबड्डी के पाले बनाने में लग जाते और बूढ़े दांव की बारीकी बताते। यह सब घर के आंगन के बाहर की बात थी। भीतर मातायें कोने-कोने की सफाई व दरवाजे को गोबर से लिपाई करने के बाद प्रत्येक कमरों में गाय का दूध छिड़कती।कटोरी भर कर दूध और चावल नाबदान के पास रखा जाता था। मान्यता है कि नाग देव प्रत्येक घरों में नाबदान के रास्ते आंगन तक आकर दूध पीते हैं। चने की दाल व उड़द की दाल पीसने के लिए अलग सिल बट्टे धाये जाते थे। घरों से पकवान बनने की भीनी सुगन्ध से पूरा वातावरण भर जाता था। खीर, पूड़ी, कचैड़ी, बरा, कढ़ी, चावल, गुलगुला, ठोकवा, दालपूरी, सब्जी तैयार होते-होते दोपहर हो जाती। इस बीच लड़कियों का झुण्ड तालाबों की ओर गीत गाती हुई अपनी-अपनी गुडि़यों की विदाई के लिए चल पड़ती तो पीछे-पीछे बच्चों का झुण्ड भी रंग बिरंगे डंडे लहराता अपनी ‘वीरता’ को आतुर होकर चलता। गुडि़या तालाब के किनारे दोनों पक्ष एकत्र हो जाते तब गुडि़यों की विदाई हेाती। उन्हें तालाब में प्रवाहित किया जाता और बच्चे डंडे लेकर तालाब में कूद पड़ते। गुडि़यों की निर्ममता से पिटाई ‘विदाई’ होती। बाहर निकलकर बहनों के हाथ से चने का प्रसाद व दक्षिणा ‘दो आने/चार आने’ लेकर डंडोुं को भी तालाब में फेंककर चले आते फिर वे अखाड़ों व खेल के मैदान में देर तक बने रहते। घर में बने विविध व्यंजन बूढ़ों की प्रतीक्षा करते।शाम ढलने से पूर्व ही दरवाजे पर लगी नीम की डालें इठलाने लगती। उन पर झूले पड़ जाते और कजरी गीतों की धुन से गांव की गलियां, झंकृत हो उठती। इस बीच नाई, धोबी, लुहार, कुम्हार, धरिकार व हलवाहों का परिवार अपने-अपने किसान के घर बायन के लिए जाता उनकी खूब आवाभगत होती और घर में बने सभ्ीा व्यंजन उन्हें सम्मान पूर्वक परोसे जाते। सामाजिक समरसता व परस्पर भाई चारे की यह संास्कृतिक विरासत अब लुप्त हो गयी है। घरों के सामने से नीम क्या गायब हो गई अन्य पेड़ों की डालें भी झूले के लिए तरस रही हैं।‘बायन’ की प्रथा खत्म हो गयी। अखाड़ों से दांव गांव से बाहर हो गये। सावनी गीतों की धुन में घुन लग गया। माताओं बहनों को अब केवल टी.वी. पर ही सुनकर संतोष कर लेना पड़ता है। ग्रामीण खेलों की शुरूआत भी नागपंचमी से ही होती थी जो अब बीते दिनों की बात हो गयी है। जितने अधिक ‘राजनैतिक दल’ बनते जा रहे हैं ‘गांव’ उतने ही भागों में बंटता जा रहा है। गांव से ‘पायलागी’ और ‘जैरमी’ पूरी तरह गायब हो गयी है। अब हमने विकास जरूर कर लिया है किन्तु मानवीय मूल्यों और रिश्तों की विरासत खो चुके हैं।
अल्हैत और लठैत गांव से गुम हो गये। अब गांवों में आल्हा की धुन कहीं सुनने को नहीं मिलती। आल्हा-उदल की कथा वीरता की पर्याय मानी जाती है जिसे सुनने के लिए अब केवल कैसेटों का सहारा लिया जाता है। तीन-चार दशक पूर्व तक आल्हा की पुस्तकें गांव के मेलों में भ्ीा बिकती थी। अब न केवल आल्हा गीत बल्कि अनेक लोक गीतों की परम्परा भी लुप्त होती जारही है। लोकगीतों के लेखकों व गायकों का बहुत सम्मान था किन्तु अब ऐसा नहीं है।
-डा0 भगवान प्रसाद उपाध्याय
9455324157
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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