जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव-2014 नजदीक आता जा रहा है भारतीय राजनीति मंडी के शेयर उछाल भर रहे हैं। कभी खाद्य सुरक्षा बिल अध्यादेश के द्वारा तो कभी मनरेगा के दिहाडि़यों को मुफ्त मोबाइल देने का फैसला, कभी अल्पसंख्यकों (सिर्फ मुस्लिमों को ही) को अपने पाले में लाने के लिए असंवैधानिक कुकृत्यों का सहारा लेकर आर्थिक व दीनी सहायता देने का अराष्ट्रीय फैसलों से देश का राष्ट्रीय शेयर उतार-चढ़ाव के भयानक हिचकोले खा रहा है। अपने जन्म काल से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अति महत्वाकांक्षी नेताओं ने स्वहित के लिए राष्ट्रहित का बलि देता आया है, जिसका खामियाजा आज देश भुगत रहा है। वर्ष 1947 में इस देश का एक रुपया एक डाॅलर के बराबर था यानि सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद भी यह देश विश्व में अपना आर्थिक दबदबा बनाए रखा किंतु तथाकथित आजादी के बाद इस देश में नेहरुवादी विकास माॅडल की प्रेत छाया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्वहितवादी क्रूर नीतियां देश को दीमक की तरह चाटता गया और आज भारत भय, भूख और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। वर्ष 1947 का आर्थिक ढांचा नेहरु की गलत अदूरदर्शी और स्वहित परिवारवादी नीतियों के कारण महज 67 वर्ष में आज एक डाॅलर 61 रुपये के बराबर हो गया।
कांग्रेस की राजनीतिक मंशा कभी देशहित में नहीं रहा है। इसका ज्वलंत उदाहरण अभी-अभी ‘तेलांगना’ नामक नये राज्य के गठन की घोषणा से है। आंध्र प्रदेश का विभाजन करके अलग राज्य तेलांगना की जो घोषणा की गई उसे राज्यहित में नहीं अपितु राजनीतिक लाभ-हानि देखकर उछाला गया। अपने प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होने के बावजूद यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है। आंध्र प्रदेश के 10 सबसे अति पिछड़ा जिला प्राकृतिक संपदाओं से धनी इसी तेलांगना क्षेत्र में आते हैं। वर्ष 2009 में ही तेलांगना के गठन पर तत्कालीन गृहमंत्री श्री पी. चिदम्बरम् ने हामी भर दी थी किंतु उसके बाद यह ठंढे बस्ते में डाल दिया गया। भला हो गुजरात के मुख्यमंत्री और देश के लोकप्रिय नेता श्री नरेन्द्र मोदी का जिनके आंध्र प्रदेश के दौरे ने कांग्रेस को इस ब्रह्मास्त्र को प्रयोग करने को प्रोत्साहित किया। वर्ष 2004 की लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को आंध्र प्रदेश से 29 तथा वर्ष 2009 में ये बढ़कर 33 सीटें मिली थी। राजनीतिक नफा-नुकसान की चैसर पर कांग्रेस हमेशा अपने विरोधियों को पछाड़ने के लिए हर प्रकार का हथकंडा प्रयोग करती रही है। इसका ध्येय होता है-‘देश बंटे पर सत्ता न जाए।’
विकास और प्रगति के लिए छोटे राज्यों का गठन होना चाहिए किंतु क्षेत्रीय दलों की सिद्धांतविहीन संघीय व राजनीतिक नीति, संघीय ढांचा के लिए खतरनाक होता है। वास्तव में यदि राजनीति दूरदृष्टि का परिचायक इस देश के नेता हो तो छोटे राज्यों का गठन में पहली प्राथमिकता ‘जम्मू-कश्मीर’ राज्य को कश्मीर, जम्मू एवं लद्दाख जैसे तीन राज्यों में गठन कर देते। जम्मू-कश्मीर राज्य से सारे संसाधनों पर सिर्फ कश्मीर घाटी के लोगों का वर्चस्व है। लद्दाख और जम्मू का जिस प्रकार से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं वैयक्तिक शोषण किया जा रहा है वैसा तो किसी गुलाम के साथ भी नहीं होता होगा। अतः इस देश के सरकार एवं राजनीतिक दल को सबसे पहले जम्मू-कश्मीर पर ध्यान देना चाहिए। आखिर क्यों होना चाहिए जम्मू, कश्मीर और लद्दाख ये तीन अलग-अलग भारतीय राज्य इसके अनेक कारण हैं। भारतीय संविधान के प्रति उपेक्षा और अलगाववाद के लिए कुख्यात जम्मू-कश्मीर में सिर्फ कुल क्षेत्रफल का 14 प्रतिशत भाग जो कश्मीर घाटी में है के चार जिले-बारामुला, श्रीनगर, पुलवामा अनन्तनाग और शोपियां जिले तक सीमित है किंतु बदनामी जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के निवासी को भी मिलती है। गुज्जर, शिया, पहाड़ी, सिक्ख, पंडित, लद्दाखी, डोगरा, बौद्ध जैसे समूहों ने ना तो कभी जम्मू कश्मीर को भारत से अलग करने का आंदोलन और ना ही कभी देश के संवेदनशील सैनिकों पर पत्थरबाजी किया। ये घटनायें सिर्फ कश्मीर घाटी के जिलों में ही होती है।
जम्मू जिसका कुल क्षेत्रफल 36,315 वर्ग कि.मी. है जिसका 26 हजार वर्ग कि.मी. ही भारत के पास है, यहां 67 प्रतिशत हिन्दू है,यहां कि मुख्य भाषा डोगरी और पहाड़ी है।वहीं लद्दाख जिसका कुल क्षेत्रफल 1,01,000 वर्ग कि.मी. जिसका भारत के पास 59 हजार वर्ग कि.मी. है यह बौद्ध बाहुल्य तथा यहां कि मूल भाषा भोटिया है। वहीं कश्मीर जिसका कुल क्षेत्रफल 22 हजार वर्ग कि.मी. है, जिसमें लगभग 16 हजार वर्ग कि.मी. भारत के पास है अब मुस्लिम बाहुल्य है, इसका मुख्य भाषा पहाड़ी व डोगरी है। जम्मू कश्मीर की बिडम्बना है कि इस्लामी देशों के सहयोग से चलने वाले अनेक आतंकी संगठनों का आका पाकिस्तान द्वारा इस राज्य को हमेशा अस्थिर रखने का प्रयास किया गया और इसमें कुछ कश्मीरियों का भी योगदान रहा। रही-सही कसर इस देश की नेहरुवादी नीति ने पूरा कर दिया था। तभी तो उर्दू इस राज्य के किसी भी भाग के मूल निवासियों की भाषा नहीं किंतु बलपूर्वक एक इस्लामी साजिश के तहत ‘उर्दू’ थोपा गया है। वर्ष 2008 का आंकड़ा बताता है कि केन्द्र सरकार जम्मू कश्मीर को प्रति व्यक्ति 9,754/- रुपये जबकि बिहार जैसे राज्य को 876/- रुपये प्रति व्यक्ति दिया जाता है। इतना ही नहीं जम्मू कश्मीर को इस राशि से 90 प्रतिशत अनुदान और 10 प्रतिशत वापसी जबकि शेष राज्यों के लिए 30 प्रतिशत अनुदान और 70 प्रतिशत वापसी करना होता है। फिर भी जम्मू व लद्दाख के लोगों का जीवन टेंटों में गुजर रहा है और कश्मीर के लोग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। जम्मू में वर्ष 2002 में 26 हजार वर्ग कि.मी. के क्षेत्रफल में 30,59,986 मतदाता है किंतु विधानसभा में 37 और लोकसभा में सिर्फ दो सदस्य चुने जाते हैं। वहीं कश्मीर घाटी का क्षेत्रफल 15,953 वर्ग कि.मी. में 29 लाख मतदाता किंतु विधानसभा के लिए 46 तथा लोकसभा के लिए तीन सदस्य चुने जाते हैं। आखिर क्यों ऐसी संरचना का दंश जम्मू झेल रहा है। इतना ही नहीं वर्ष 1997-98 में के.ए.एस. और के.पी.एस. अधिकारियों की भर्ती के लिए राज्य लोक सेवा आयोग जो परीक्षा ली, उसमें 1 ईसाई, 3 मुस्लिम तथा 23 बौद्ध परीक्षोतीर्ण हुए जिसमें 1 ईसाई, 3 मुस्लिम और 1 बौद्ध को नियुक्ति दी गई शेष 22 बौद्धों को नहीं आखिर ऐसा विद्वेष क्यों हुआ? इतना हीं नहीं वर्ष 2010-11 तक के आंकड़े जम्मू कश्मीर सचिवालय काॅडर के कुल 3,500 कर्मचारियों में एक भी बौद्ध कर्मचारी नहीं है।
पिछले 52 वर्षों से सचिवालय में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों में एक भी बौद्ध नहीं, आखिर क्यों? फारुक अब्दुल्ला के मुख्यमंत्रीत्व काल में कुल 1.04 लाख कर्मचारियों की भर्ती हुई, इसमें महज 319 यानि कुल 0.31 प्रतिशत लद्दाख क्षेत्र से थे। सार्वजनिक क्षेत्रों में कार्यरत लगभग 21,206 कर्मचारियों में केवल 3 बौद्ध राज्य परिवहन निगम में कार्यरत हैं। राज्य के 8 सार्वजनिक उपक्रमों में भी बौद्ध नहीं है। वर्ष 1997 में 24 पटवारी की भर्ती जिसमें 23 मुस्लिम और 1 बौद्ध। वर्ष 1998 में राज्य शिक्षा विभाग में चतुर्थ श्रेणी के कुल 40 कर्मचारियों में 1 को छोड़कर शेष 39 मुस्लिम कर्मचारियों की नियुक्ति हुई। इतना हीं नहीं कश्मीर की कश्मिरीयत ईस्लाम के कब्र में दफन हो चुका है।
1950 के आसपास अमेरिका के सह पर शेख अब्दुल्ला के मन में स्वतंत्र कश्मीर की चाहत उभरी थी जिसे पाकिस्तानी सरकार और उसके कुख्यात जल्लाद आई. एस.आई. ने कुछ भारतीय सेकुलरवादियों के सहयोग से कश्मीर में इस्लाम की, जो आग लगाई,वह मानवाधिकार का सबसे विद्रुप चेहरा विश्व में उभरा किंतु इस देश का दुर्भाग्य है कि इस इस्लामी आग में झुलसने वाला गैर इस्लामी लोग हैं, जिनका ना कोई हक होता ना कोई हकूक होता है। कश्मीर घाटी के अलावे इस इस्लामी आग जम्मू के डोडा, किश्तवाड़, रामबन, उधमपुर, रियासी, पुंछ, राजौरी और कुठुआ जैसे मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में फैला, जहां से अब तक लगभग 8 लाख गैर इस्लामी लोग अपना सब कुछ छोड़ धर्म बचाकर पलायन किया और अपने ही देश में वैसा शरणार्थी बना है, जहां नागरिकता के सभी अधिकारों सहित किसी भी प्रकार के अधिकार से वह बंचित है। इस्लामी दरिंदों द्वारा नियंत्रित कश्मीर और उसके दलालों की सरकार जम्मू और लद्दाख क्षेत्रों में जिस प्रकार का अघोषित शरीयत लागू कर रखा है वैसे जलालत जिंदगी से मरना अच्छा है। वैसे लोगों के लिए जम्मू कश्मीर का विभाजन अत्यंत आवश्यक है।
लद्दाख अत्यंत शुष्क एवं कठोर जलवायु क्षेत्र वाला प्रदेष है। सिंधु यहां की मुख्य नदी है। आज अपने संस्कृति और संस्कार की रक्षा के लिए संघर्षरत है। लद्दाख की ‘भोटी’ भाषा एक समृद्ध भाषा रही है। आज भी जो गं्रथ संस्कृत में मूल रूप में नहीं है वह ‘भोटी’ भाषा में उपलब्ध है। किंतु इस्लाम नियंत्रित राज्य सरकार की उर्दू की अनिवार्यता के कारण लद्दाखी बच्चे या तो राज्य से बाहर या नहीं पढ़ने को विवश है।
इतने भयावह परिस्थितियों एवं मानव अधिकारों के हनन के बाद भी भारत सरकार राष्ट्रवादी जम्मू-लद्दाख एवं कश्मीर के निवासियों को प्रोत्साहन ना देकर चंद इस्लामी आतातायियों जो डाॅलरों पर बिके आई.एस.आई. के भारतीय सर जमीन पर गुंडे हैं, उसकी बातों को सुनता रहा है। अलगाववादियों का गढ कश्मीर घाटी कभी शांति का परिचायक ना है ना रहेगा क्योंकि यहां के कुछ गिने लोगों के आगे भारत सरकार और राज्य सरकार की गलत नीतियों के कारण जो राष्ट्रवादी ना हैं ना होगे को प्रोत्साहन मिलता रहा है । फलतः इस राज्य के देषभक्त नागरिक मौन है। वैसे में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नेहरु से लेकर आज तक की गई पापों को प्रायश्चित करने का सबसे अच्छा समय है कि जम्मू कश्मीर राज्य को तीन कश्मीर, जम्मू और लद्दाख के रूप में अलग राज्य गठन कर अपने पापों का प्रायश्चित कर अपने ही देश में बने शरणार्थियों की रक्षा करे। इस मानवीय राष्ट्रीय कार्य में देश का हर नागरिक, राजनीतिक दलों का सहयोग करेगा, चाहे वो कश्मीर का हो या कन्याकुमारी का।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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