किसी भी समस्या का हल हिंसा नहीं हो सकता ना ही हिंसा को हिंसा से खत्म की जा सकती है। विशेषकर भारतीय लोकतंत्र में तो हिंसा का कोई स्थान ही नहीं है, जहाँ हर कोई को चुनकर यहाँ तक कि विदेशी नागरिक (एम. सुब्बा राव, असम ?) भी इस लोकतंत्र में संसद का सिरमौर बन बैठता, फिर भारत के लोगों को क्या कहना। फिर भी कुछ लोगों ने इस्लाम की भांति तलवार के बल पर अपना बर्चस्व फैलाने का जो ध्येय बनाया वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। तथाकथित नक्सली हिंसा आज जिस मुकाम पर है वह सर्वहारा वर्ग का आन्दोलन नहीं रक्तपिपासु देशद्रोहियों का देश के प्रति गद्दारी है, जिसे किसी भी सभ्य देश या समाज से मान्यता नहीं मिल सकती है। देश का दुर्भाग्य है कि मुगलों और अंग्रेजों के जाने के बाद भी देश का आम नागरिक राष्ट्रीय उतरदायित्व के प्रति संवेदनषील नही हुआ है। वह देश की सम्प्रभुता से विद्रोह और संविधान के प्रति संदेह जताता है, यहाँ तक कि इस लोकतंत्र से भी आजादी का सपना देखता है और इस लोकतंत्र को लहुलुहान कर रहा है। जिसका मूल समस्या इस देश की शैक्षणिक व्यवस्था से है। शिक्षा का जिस रूप का प्रयोग भारत वर्ष में आजादी के पूर्व और बाद हुआ, वस्तुतः वह क्षेत्रीय एवं अराष्ट्रीय तत्वों को उभारा। कभी पंथ के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर तो कभी व्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर और अब आंतकियों और देशद्रोहियों के गिरोह के प्रबंधक मानवाधिकारों के नाम पर जो कर रहे हैं, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस नक्सली हिंसा की वकालत जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ एवं गैर सरकारी संगठनों के स्वनाम धन्य अराष्ट्रीय तत्वों ने किया, उसका परिणाम इस देश के लिए और यहाँ की संविधान के लिए घातक साबित हो रहा है। 2 मार्च 1967 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में फूटा चिंगारी आज जिस विभत्स रूप को आकार किया, वह मानवता के लिए कलंक है। 18 मई 1967 को कानू सान्याल के नेतृत्व में जमींदारों के लिए संघर्ष का आह्वान हुआ, जो 24 मई 1967 को जंगल संथाल के द्वारा जमींदार पर आक्रमण कर आगाज किया। एक लोकतांत्रित व्यवस्था का सड़ांघ के प्रतिफल ही इस दौर में पहला वर्ग संघर्ष का हिंसात्मक रूप प्रारंभ हुआ था। किसान आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ नक्सल संघर्ष आज देश की एकता व सम्प्रभुता के लिए खतरा बना हुआ है। इस तथाकथित नक्सली हिंसा को चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल जैसे देशों से परोक्ष समर्थन और भारत के कुछ तथाकथित राजनीतिक दलों का आर्शीवाद भी प्राप्त है। इस देश के कुछ बुद्धिजीवि पत्रकार, शिक्षण संस्थाओं और मानवाधिकार की बातें करने वाले देशद्रोही तत्वों का समर्थन मिलता है और हमारी सरकार हाथ पर हाथ धर कर बैठी रहती है। हमारे अर्द्धसैनिक बलों को हाथ बांधकर उन दुर्दान्त रक्त पिपासुओं से लड़ने को भेजा जाता है। पशुपति से तिरुपति तक बना ‘रेड-कारिडोर’ उन रक्त पिपासुओं का जमावड़ा है, जिसे भारत की संविधान पर विश्वास नहीं है। उसे सिर्फ हिंसा और हिंसा पर विश्वास है। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ के सुकमा घाटी में नक्सली हिंसा का जो विभत्स रूप देश के लोगों के सामने आया, वह अत्यंत घृणित व निन्दनीय है। इस नक्सली हिंसा या इसके घृणित विचारों को कभी भी इस देश के नागरिकों का समर्थन नहीं मिला है। कभी भी इस देश के आम नागरिक ऐसी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया, भले ही इस देश की सरकार अपनी नाकामी को छिपाने के लिए भोले-भाले जनजातियों को इसका समर्थक बता देती है। इन जनजाति बंधुओं का दुर्भाग्य है कि वे कुछ ना करते हुए भी दोनों के गोलियों का शिकार होते हैं। चूंकि नक्सली उन्हें डराकर आतंक का माहौल पैदा करते हैं और देश के सुरक्षा बलों को इन देशद्रोही नक्सलियों के सफाए करने का आदेश नहीं है? बैलेट के बजाए बुलेट में विश्वास करने वाले इन नक्सली आतंकवादियों का जिसमें महिलायें भी बढ़ चढ़कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। भारत का बिखरता परिवार का प्रतिफल है। जिस नृशंसता का विभत्स रूप इन महिलाओं ने 25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ के सुकमा घाटी में दिखाया, वह इस देश की संस्कार और संस्कृति का गिरता रूप है। श्री महेन्द्र कर्मा जैसे जाबांज को ना तो इस देश के शासक ना विपक्ष और ना ही यहाँ के न्याय ने संरक्षण दिया। 2005 में श्री महेन्द्र कर्मा ने इन नक्सलियों के विरोध में ‘सलवा जुड़ूम’ आन्दोलन चलाया। हालांकि लोकतांत्रिक परम्पराओं में सलवा जुड़ूम की मान्यता नहीं दी जा सकती, किन्तु आत्म रक्षार्थ इसे नैतिक समर्थक समाज के लोगों ने दिया। अपने जुझारू चरित्र के कारण ही बस्तर टाइगर के नाम से विख्यात श्री महेन्द्र बैठा नक्सलियों के साथ-साथ अपने हीं राजनीतिक दल के आंखों के किरकिरी बन गये थे। श्री महेन्द्र कर्मा ने इन नक्सली आतंकियों से मुकाबला कर जिस लहजे में सामाजिक चेतना को जागृत कर उन पीडि़त शोषित लोगों में आत्मबल को जाग्रत किया, उससे नक्सलियों के साथ वोट की राजनीति करने वाले दलों ने भी अपने लिए भयावह माना। फलतः 25 मई 2013 को श्री महेन्द्र कर्मा को नक्सलियों और राजनीतिक साथियों के बिछाए जाल में फंसकर अपने लोगों को बचाने हेतु शहीद होना पड़ा और उनके शरीर को 78 बार चाकुओं से गोंदा गया। 56 गोलियाँ उन्हें दागी गयी। हद तो तब हो गयी जब उन रक्त पिपासु भेडि़यों ने उनके मृत शरीर पर नृत्य किया। क्या यह किसी विचारधारा का रूप था? कदापि नहीं? एक आतंकवादी के मौत पर इस देश में जो तांडव मचता है, मानवाधिकार के नाम पर जो हाय-तौब्बा मचती है, उससे देश- विदेशों में भारत का सिर नीचा होता है। ऐसे गिरोह श्री महेन्द्र बैठा पर हुए अमानवीय घृणित रूप पर किस बिल में दुबके हैं? कहाँ उनकी मर्दानगी छिपी है? देशद्रोहियों के मौत पर विलाप करने वाला वह भांड-चारण और विदेशी दल्लों के इस गिरोह का कोई अता-पता नहीं, आखिर क्यों? अंततः भारत के नागरिकों को इन मानवाधिकारवादियों को देश का दुश्मन ही मानना चाहिए। ये इस देश के संसाधनों का भक्षण कर संविधान का क्षरण करनेवालों का रक्त पिपासु गिरोह है जो लोकतंत्र के लिए घातक है। ये देश के लिए सबसबे बड़ शत्रु हैं, इसमें कोई संशय नहीं? ये नक्सली देश के सुरक्षा बलों, नेताओं, नागरिकों पर हमला करते हैं, लाशों का विभत्स रूप देते, शहीद लोगों के पेटों को चीरकर बम रखते हैं, और वैसे विचार के लोगों के साथ संवेदना रखने वाले देशद्रोही उनसे भी ज्यादा भयंकर है। जब देश के पूर्वोत्तर और कश्मीर जैसे भूभाग पर आतंकियों से समाज की रक्षा करने हेतु हमारी सेना लगाई जा सकती है। खालिस्तानी हिंसा से रक्षा करने आपरेशन ब्लू स्टार करबाई जा सकती है तो इन खुंखार रक्त पिपासुओं के विरुद्ध सेना नहीं उतराने की जो वकालत कर रहे हैं, वह देश को और समाज को रक्त पिपासुओं के आगे डालना चाहते है। वर्ष 2011 में 1760, वर्ष 2012 में 1412 बारदात इन नक्सलियों ने किया, जिनमें क्रमशः 469 एवं 300 नागरिक तथा 142 एवं 114 सुरक्षाबल इन भेडि़यों के हाथों शहीद हुए। ऐसे में भी यदि इन भेडि़यों के प्रति कोई सहानुभूति है तो वह देशद्रोह से कम नहीं है। इन लोगों के प्रति नरमी भारतीय लोकतंत्र और संविधान के प्रति गद्दारी एवं यहाँ के नागरिकों के प्रति विश्वासघात है। माओवादियों ने जिस घृष्टता का परिचय दिया, वह किसी असंवेदनशील देश की सरकार ही सह सकती है। इतने सुरक्षा बलों और नागरिकों के हताहत होने के बाद भी इस देश की सरकारी मशीनरी हाथ पर हाथ धरे बैठा है। जांच के नाम पर करोड़ों का बारे-न्यारे होंगे। क्या यही इस देश का भाग्य है। हमारे अर्द्धसैनिक बल या पुलिस सिर्फ आत्मबल की कमी और राजनीतिक बेडि़यों के कारण सुरसा की भांति फैलता यह खूनी खेल का शिकार बनती आ रही है। हिंसा, फिरौती, अपहरण, लेबी बसूलने वाले,नसबन्दी कर स्त्रियों को भोग करने वाले ए दण्डकारण्य में मारीचि सुबाहु और ताड़का जैसे दानवी दुराचारियों का यह वंशज बातचीत या पैकेज से नहीं बल्कि विश्वामित्र जैसे गुरू के संरक्षण में श्रीराम जैसों की सर के संधान से ही काबू किया जा सकता है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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