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प्रगति का बाधक: मुसलमानों की आक्रामक प्रवृत्ति

Posted on 22 May 2013 by admin

edited-sanjay-kumar-azadसंजय कुमार आजाद
भारत के गृहमंत्री आजकल भारत के जेलों में बन्द मुसलमानों के प्रति ज्यादा संवेदनषील हो रहें है।होना भी चाहिए आखिर लोकसभा चुनाव सिर पर है ऐसे में जेलों में बन्द मतदाताओं (सिर्फ मुसलमान हीं) के प्रति एवं उन अपराधी प्रवृति के लोगों के प्रति यदि देष का गृहमंत्री संवेदनषील नही होगा तो कौन होगा? भले देष की राजधानी में चार साल की मासुम सुरक्षित नही वो भी तब जब वहां की तारनहार महिला मुख्यमंत्री एवं देष के प्रधानमंत्री को निर्देषित करती यूपीए की चेयरपर्सन भी महिला हों ऐसे में देष में सबसे ज्यादा असुरक्षित महिला हीं हैं उसकी चिन्ता देष के प्रधनमंत्री या गृहमंत्री को कतई नही है। किन्तु मुसलमानों पर लगे आरोप का त्वरित फैसला हो यानि यदि अपराधी हिन्दू है तो जांच दस साल भी चले तो कोई बात नही किन्तु यदि अपराधी मुसलमान है तो फैसला दस महीने से भी कम समय में हो ऐसा सोच भारत के गृहमंत्री सुषील कुमार षिन्दे का है। गृहमंत्री सुषील कुमार षिन्दे का यह दुष्प्रचार कि भारत के जेलों में बन्द मुसलमान उनके नजर में बेकसुर है? भारत की सम्प्रभुता के लिये खतरा है। मुहम्मद मुजीब ने वल्र्ड हिस्ट्री: अवर हेरिटेज ;न्यूयार्क 1960 ई. के पृष्ठ 257 पर मुसलमानों के संदर्भ में लिखते है-‘‘वह (मुसलमान) अपने मजहब के बिना तैरना के मजहब के साथ डूबना पसन्द करेगा।’’ स्पष्ट है कि इस्लामी विश्वासों के प्रति अंधभक्ति के कारण मुस्लिम नेताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा या राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को स्वीकार करना कठिन होता है तब जब भारत (तथाकथित) सेक्यूलरिज्म की सत्ता से सुसज्जित है किन्तु राष्ट्रीय समस्याओं से मुस्लिम समुदाय का दूरी आज भी यथावत् है। दुनिया के मुस्लिमों से ज्यादा यहां के मुस्लिम मजहबी फोबिया से त्रस्त है। इस संदर्भ में भारतरत्न बाबा साहब अम्बेडकर का कथन समीचीन है-‘‘मुसलमान सुधार-विरोधी मनोवृति के लोग हैं जनतंत्र का प्रभाव उनके स्वभाव में तिलभर भी नहीं है। इनके लिये इनका मजहब की सर्वोच्चता है। इनकी राजनीति के लिए भी उसी की प्रेरणा है। किसी भी प्रकार के समाज सुधार का मुसलमान कड़ा विरोध करेंगे। सारी दुनिया में सभी जगह उनकी प्रगति विरोधी प्रवृति है। उनकी दृष्टि में सबके लिये, सभी कालों में, सभी परिस्थितियों में योग्य धर्म केवल इस्लाम है। इस्लाम का बन्धुत्व दुनिया में और किसी के साथ नहीं बल्कि केवल मुसलमानों के लिए सीमित है। गैर मुसलमानों के प्रति द्वेष और तिरस्कार के सिवा उन्हें और कुछ मालूम नहीं। एक मुसलमान की निष्ठा मुसलमानों के शासन वाले राष्ट्र पर ही रहेगी। शासन यदि मुसलमान नहीं है तो उनकी दृष्टि में वह दुश्मनों का राज्य है। सच्चे मुसलमान के लिए भारत को अपनी मातृभूमि मानने, हिन्दू को अपना भाई-बन्धु मानने का इस्लाम में कोई मौका नहीं। आक्रामक मनोवृति मुसलमानों की प्रवृति में ही विद्यमान है।’’ मुहम्मद अली जिन्ना ने तो साफ कहा था कि-‘‘मुसलमान और हिन्दू दो अलग-अलग राष्ट्र है। हिन्दू-मुसलमान कभी साथ नहीं रह सकते और कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।’’ फिर भी हम उस विचारधारा के सहारे भारत को (तथाकथित) सेक्यूलर बनाने पर तुले हैं। शाह बलीउल्लाह,सैयद बरेलवी, सर इकबाल, अली बन्ध्ुा, सैयद अहमद से लेकर आजतक के अनेक मुस्लिम रहनुमा भारतीय राष्ट्रवाद को सिरे से खारिज करता रहा है। अलम्मा इकबाल ने लिखा है-
‘‘इन ताजा खुदाओं में सबसे बड़ा वतन है,
जो पैरहन है, उसका वो मजहब का कफन है।’’
जहां ईश्वर का एकमात्र पैगम्बर कहलाने का अधिकार केवल एक को मिला हो, जहां धर्मग्रंथ का पद केवल एक ही पुस्तक को मिला हो, जो इस्लाम के अनुयायी को और शेष को काफिर मानता है उस कौम से भाईचारा की उम्मीद इतिहास को नकारना और भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपराओं को नेस्तनाबुद कराना है। स्मरण हो कि ईश्वर के सन्दर्भ में सामी धारणा कूटनीति और गणित का प्रयोग अधिक करती है तथा अध्यात्म का बहुत कम। यह धरणा किसी प्रकार से जीत हासिल करना एवं अनुयायियों का संख्या बढ़ाने को सर्वोपरि मानता है। उनके आचरण ये नरसंहार, बीभत्स विध्वंस लीला, पराजीत जनता का मानमर्दन, बलात्कार धर्मांतरण एवं साम्राज्यवादी शोषण है और वैसे सामी धारणा भारत की संस्कृति को आत्मसात करे यह सिर्फ कोरी कल्पना है। वे जब तक संख्या बल में कम है, तब तक ही सह अस्तित्व की कल्पना करता है।  खण्डित तथाकथित डोमिनियन राज्य के रूप में मिली आजादी के बाद भी हमने इतिहास से सबक नहीं लिया और इस कौम से शांति और सद्भाव की कोरी कल्पना में जीते रहे। शाहबानो प्रकरण हो या भारतीय संसद पर हमला करने वाले को मृत्यु दंड की सजा, इस पर इस्लामी अनुयायियों के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, नेताओं, प्रोफेसरों, पत्रकारों, मानवाधिकारवादियों एवं स्वयंसेवी संगठनों ने जो हाय-तोबा मचाया, क्या किसी सम्प्रभु राष्ट्र के लिये स्वस्थ व्यवस्था हो सकती है? देश के बौद्धिक-राजनीतिक वर्ग की मूढ़ता व स्वार्थपरकता के कारण हजारों जवानों के साथ-साथ सीमावर्ती प्रदेश के नागरिकों की जानें जाती रही है और हमारे नेता वोट वैंक की फिक्र में शहीदों को भी नहीं बखस्ते ? वर्ष 2006 में अमेरिका के तात्कालिन राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश की भारत यात्रा के दौरान या डेनमार्क में मुहम्मद साहेब के कार्टून बनाने पर, इस्रायल के संबंध में या फिर किसी मस्जिद से मुबारक बाल का गुम होने पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया भारत में कैसी रहती है ?उसका खामियाजा भारत की सरकारी सम्पति और बहुसंख्यक हिन्दू समाज को झेलना पड़ता है।
देश के न्यायालयों के समानान्तर शरीयत अदालतों की मौन स्वीकृति, दिसम्बर 2004 में सेना/प्रशासन में मुस्लिमों के भर्ती के विशेष आदेश, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को विशेष अधिकार देना भारत को कट्टर इस्लामी राज्य की ओर धकेलता है। इस देश में जहां मुसलमानों की घनी आबादी है वहां प्रशासन जाने से कतराती है यदि जाती है तो उनपर हमला तक होता है वैसी स्थिति में मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में मुसलमान दारोगा की नियुक्ति देश के लिए अत्यंत घातक नीति है। जब प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर अफगानिस्तान के हमले की सुरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की, तो कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों से पूछा कि ‘‘यदि कोई मुस्लिम हमलावार भारत पर हमला कर दे तो वे किसका साथ देंगे। उन्हें कोई संतोष जनक उत्तर नहीं मिला। (टाइम्स आॅपफ इंडिया 18 अप्रैल 1924)। अमातुल्ला खुमैनी, सदाम हुसैन, ओसामा बिन लादेन या अफगानिस्तान में तालिबान पर  हुए कारवाई का  भारत के मुसलमानों की प्रवृति जाने या अनजाने देश विरोधी प्रवृति रही है। इसका ताजा प्रमाण मुम्बई के आजाद मैदान में अमर शहीद स्मारक पर भी देखा गया जहां 11 अगस्त को आजाद मैदान में अमर जवान ज्योति की बेहुरमती के अपराध में पकड़ा गया राष्ट्रद्रोही के लिए राज्य के मुख्य सचिव अप्रसन्नता जाहिर करते हों क्योंकि वह मुसलमान है आखिर क्यों? तथाकथित सेक्यूलरवादी बुद्धिजीवि, पत्रकार व नेताओं का वर्तमान चाटूकारिता की नीति और वास्तविकता से कतराने की नीति एक आत्मघाती भुलावा है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-‘‘हिन्दुओं में एक बड़ा दोष आपस में ही एक-दूसरे को सुधारने की जिद का है। इस कारण प्रायः वे अपना कर्तव्य पूरा करने के स्थान पर अपने बन्धुओं को ही उपदेश देते रहते हैं या उनके पैर खींचने में लगे रहते हैं। इस प्रवकृति ने हिन्दू समाज को बड़ी हानि पहुंचायी है।’’ इसका ज्वलंत उदाहरण मुलायमजी, लालूजी, दिग्विजयजी, स्वामी अग्निवेश जैसे लोग हैं जो ओसामा बिन लादेन को आदर्श मानकर देश की सतानत संस्कृति को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं।
वर्तमान राजनीति परिदृश्य का सबसे बड़ा दुश्मन यदि कोई है तो वह है देश के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाले संगठन? जो सेवा, स्वाभिमान,देशभक्ति व समर्पण से इस पवित्र भूमि को भोग भूमि के बजाय मातृभूमि मानता है। यदि भारत की भारतीयता को समृद्ध, संगठित व विकसित करना है तो समाज को भारत के संविधन की मूल भावना ‘‘समान-नागरिक-संहिता’’ देश में लागू करना ही होगा। वोटों की राजनीति से ऊपर उठकर देश की एकता, समानता और बन्धुत्व को बढ़ावा देने वाली नीतियों का पालन करना ही होगा। हमने परायी-बाहरी सभ्यताओं, मजहबों, विचारों-दर्शनों, संगठनों उनके स्वभाव व रणनीति-कुटनीति का व्यवस्थित अध्ययन कभी नहीं किया। किन्तु हमने आत्मवत सर्वभूतेषु की भावना में अपने जैसा सबको मान लिया, जिसका प्रतिफल भारतीय समाज भुगत रहा है। संविधन की भावना के विपरीत शासक वर्ग लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाकर सिर्फ देश को अस्थिर करने वाली नीतियों का संरक्षक बन रही है। वास्तव में भारत के नेताओं व बुद्धिजीवियों में हिन्दुत्व के प्रति एक दुःख, उपेक्षा और हीनता का भाव आखिर क्या दर्शाता है? तक जबकि मुसलमान या ईसाई अपने आपको मुसलमान या ईसाई कहने में संकोच नहीं करता, उनके हितों (जायज एवं नाजायज दोनों) के समर्थन में वे राजनीति से उपर उठ खड़े होते हैं । वहीं हिन्दू वर्ग अपने आपको जब हिन्दू कहने में ही शर्म महसुस करता है तो उससे हिन्दू हितों की बातें करते सुनना तो बेमानी ही है। तभी तो इस देश में शंकराचार्य को दीपावली के दिन पुलिस गिरफ्रतार करती है लेकिन जामा मस्जिद से जुड़े सैयद अहमद बुखारी पर अनेकों गैर जमानती वारंट होने के बावजूद वो सीना ठोककर कहता है ‘‘हाँ मैं आई.एस.आई’’ का एजेंट हूँ और हमारे शासक उसके तलवे सहलाते हुए उसके स्वागत में हाथ जोड़े रहता है। ऐसा न्याय और ऐसी कानून कभी भारत को (तथाकथित) सेकुलर नहीं बना सकता है। प्रसिद्ध साहित्यकार ‘अज्ञेय’ के शब्दों में-‘‘आधुनिक राष्ट्र बनने के लिए सांस्कृतिक अस्मिता और ऐतिहासिक दृष्टि खो देना एक प्रकार से किस्तों में आत्मघात है। सांस्कृतिक अस्मिता नकल से नहीं बनती, अपनी ही सही पहचान से बनती है।’’ अरबीयन संस्कृति के संस्कार कभी सह अस्तित्व को समर्थन नहीं देता है। इस्लामी जगत खुदको जिस दिन विचार-विमर्श की जमीन पर खड़ा होकर सहअस्तित्व व जिओ और जीने दो की अंर्तमन से दीन, देश, दुनिया और समाज को देखना आरंभ करेगा, उसी दिन भारत (तथाकथित) सेक्यूलर देश बन सकता है।आखिर इस देष के नेता हिन्दू संस्कार और संस्कृति के प्रति जो विष-वमन करते हैं यदि उसकी प्रतिक्रियात्मक हिन्दु समाज ने देना प्रारंभ किया तो ऐसे गृहमंत्री या हिन्दूविरोधी नेता का हश्र सद्दाम हुसैन या ओसामा विन लादेन की तरह हीं होगी और उसका जिम्मेवार वे स्वयं होगे।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री
agnihotri1966@gmail.com
sa@upnewslive.com

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