15 अप्रैल । सुलतानपुर जिला मुख्यालय से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित लोहरामऊ देवी धाम का बना प्राचीन भव्य एवं विशाल मंदिर इन दिनों श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र बना हुआ है। मंदिर की ख्याति पहले से ही थी किन्तु मन्दिर के जीर्णीद्धार के समय दुर्गा माॅं की प्रतिमा के पीछे लगाने जाने वाले मार्बल पत्थर पर जो आकृति स्वयं उभर उठी लोग उसे देखकर आज भी आश्चर्यचकित रह रहते हैं। आकृति के उभार के बाद से इस धाम की ख्याति और बढ़ गयी। नवरात्रि में लाखों श्रद्धांलु मां के प्राचीन रूपों का दर्षन करने आते हैं और अपनी मन्नतों के पूरा होने पर हलुआ-पूड़ी चढ़ाते हैं।
उल्लेखनीय है कि माँ भगवती लोहरामऊ देवी का मंदिर सहस्त्रांे वर्ष पुराना है। इस स्थान पर मां भगवती का स्वयं प्रादुर्भाव हुआ हैं जिनके सम्मुख एक दूसरी प्रतिमा स्थापित व सुसज्जित हैं। इस स्थान पर पुराने जमाने से ही सावन महीने मे नागपंचमी और रक्षा बंधन के बीच पड़ने वाले शुक्रवार एंव सोमवार को मेला लगता रहा है। साल में दो बार पड़ने वाले नवरात्रि को भी लाखों श्रद्धालु दर्षन कर मां भगवती से मन्नते मागते हैं। इस मंदिर पर सन् 19७८ में पुजारी के तौर पर लोहरामऊ निवासी पं0 सरयू प्रसाद मिश्र आये। इसके उपरान्त इन्होंने सन् 19८३ में गर्भगृह मंदिर के जीर्णोद्धार की बात सोची। जिसके सहायक पं. लालता प्रसाद तिवारी धर्मदासपुर बने, तत्पश्चात अप्रैल 19८३ में गर्भ गृह मंदिर का जीर्णोद्धार सम्पन्न हुआ। वयोवृद्ध द्वय ने जनपद के तत्कालीन अपर जिलाधिकारी पं0 रमाकान्त द्विवेदी को उत्सव में आमंत्रित किया। जिसमें उन्होंने लखनऊ-वाराणसी राजमार्ग से निकले मंदिर के रास्ते को पिच कराया। उत्साह बढ़ा विशाल बने गुम्बद व पूरे मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए दोनो बुजुर्गो ने कमर कस ली। सन् 1991 मे स्वामी पीताम्बरदेव जी महराज हडि़या बाबा के कर कमलांे द्वारा जीर्णोद्धार का शिलान्यास किया गया। इसके बाद भक्तो की जागृति व सहयोग से मंदिर को एक विशाल रूप दिया गया जो प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। लोग अपनी मन्नतें पूरी होने पर यहां पूड़ी-लपसी (आटे का गीला हलुआ) चढ़ाते हैं। बच्चों के मुण्डन संस्कार भी होते हैं।
ज्ञात हो कि इस मां भगवती के पुराने मंदिर के जीर्णोद्धार के समय ऐसी वास्तुकला पायी गयी। जिसमंे एक इंच भी लोहा नही लगा हुआ हुआ था और ईटे भी लगभग 10 किलो वजन की पाई गई तथा यज्ञ इत्यादि करने के लिए यज्ञ शाला की आवश्यकता थी। इसी बीच इस इच्छा को लिए पं0 लालता प्रसाद तिवारी बीमारी के कारण विस्तर पर पडे रहे और पुजारी सरयू प्रसाद मिश्र को बुलाया और कहा कि लगता है कि यह कार्य अधूरा रह जायेगा पुजारी ने आश्वासन दिया इसी बीच पं0 लालता प्रसाद का देहावसान हो गया। जिसके पश्चात सन् 1997 में ६०० वर्ग फीट की यज्ञ शाला का निर्माण हुआ तथा गर्भगृह में एक भक्त ने मार्वल पत्थर लगाने का काम षुरू हुआ। पत्थर की सफाई के दौरान पुरानी मूर्ति के शीर्ष पर मार्बल पत्थर में ही मां भगवती का अद्भुद आकार स्वंय बन गया। लोगो ने आशंका जाहिर किया कि यह बनवाया गया है बिहारी कारीगर सुरेन्द्र यादव से भी लोगों ने पूछ-तांछ कि कहीं पुजारी ने तो नही बनवाया जिस पर उस कारीगर ने लोगो को बताया कि न ही बनवाया गया है और न मैने ही बनाया है यह मां भगवती की असीम कृपा है। इस चमत्कार को श्रद्धालु जगतजननी के स्वंय सिद्ध स्थान और प्रभाव का महत्व मानते हैं। ठीक इसी तरह पुजारी के बैठने के स्थान पर चार-चार चैको के संयोग से बनी हुई फर्श पर मृग चर्म का निशान आज भी दृष्टब्य है।
इसी बीच मंदिर के पुजारी रहे पं0 सरयू प्रसाद मिश्र का देहावसान हो गया। जिसके बाद उनके साथ रह रहे उनके पुत्र पं. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ने मंदिर को दायित्व संभाला। मंदिर के पुजारी पं. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ने बताया कि २६-२७ वर्ष की अवधि मे इस स्थल से तमाम तरह के चमत्कार होते रहे है जिनका उल्लेख करना सामान्य लोगो की दृष्टि में हास्यास्पद समझा जायेगा। इसके लिए सिर्फ मां भगवती की कृपा मान लेना ही श्रेयस्कर होगा। मंदिर के मुख्य द्वार पर स्थित कुंए के बारे में किवदंतियां है कि लोहरामऊ गांव उस दौरान किसी राजा के अधीन नहीं था। तत्कालीन भदैयां नरेश रुस्तम सिंह ने रात्रि में लोहरामऊ गावं पर धावा बोला। मां भगवती ने गांववासियो को स्वप्न में इसकी जानकारी दी। लोग विहवलता से उठे और बात को सत्य पाया। लोगो ने देखा कि एक स्त्री लड़ते हुए आगे-आगे जा रही है उस दौरान अचानक एक बवंडर सा आया और रुस्तम सिंह का सिर धड से अलग हो गया और स्त्री विलुप्त हो गयी। तब इस बात से दुःखी होकर भदैयां की रानी नाराज हो गयी और निश्चय किया कि इस गांव में कहीं पानी नही ग्रहण करुंगी। इसके उपरांत भदैयां रानी मां देवी की शरण में आयी और मन्दिर के सामने एक कुएं का निर्माण करवाया। जहां पर आकर वह अपने ही बनवाए हुए कुएं से जल को ग्रहण करती थी।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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