रात्रि होते ही पर्वतीय घाटियों से एक मधुर तथा सामूहिक ध्वनि गूंजने लगती है । झुमैलो………………………….झुमैलो
एक वेदना भरा स्वर जो अनायास ही अपनी ओर खींच लेता है और पहाड़ की नारी के कठोर जीवन के उस दर्द को व्यक्त करता है जिसे वह हृदय के किसी कोने में दबाये रखती है जिसे वह किसी से व्यक्त नहीं कर सकती वही अभिव्यक्ति है “झुमैलो´´।
बसन्त ऋतु के आते ही गढवाल की धरती में प्रकृति एक नवविवाहिता की तरह सज उठती है, चारों ओर रंग बिरंगे फूल वातावरण को मनमोहक बना देते है, ऐसे सुखद वातावरण में माइके बिहिन स्त्रियों के हृदय में एक टीस उठती है, कि काश वो भी अपने माइके जाकर इस प्रकृति की तरह उल्लसित हो सकती जो अपने माइके पहुंच जाती है। वो ससुराल के दुखों को प्रकट करने के लिए अपनी व्यथा प्रकट करती है।
फेर बौडीगे स्यौ झुमैलो, फूला सगरौन्द ब्वै झुमैलो
दी गन्दा बूरौस झुमैलो। डोला सी गच्छैनी झुमैलो
मैकु बारामास ब्वै झुमैलो, एिक्क रिवु रैगे ब्वै झुमैलो
ग्वरू की बाशुली ब्वै झुमैलो, तू व ना बाज ब्वै झुमैलो
मेरी जिकुड़ी मा -झुमैलो, क्यापणी होद रै झुमैलो।
निरमैव्या धियाण हवै झुमैलो बणु बणु ब्याली ब्वै झुमैलो,
आयी पंचमी ब्वै झुमैलो……………झुमैलो
अर्थात सरसों व राड़े के पौधों पर फूल खिल गये हैं, बुरौश के फूलों से डालियां डोली की तरह सजने लगी है। झुमैलो बसन्त आ गया है। परन्तु मेरे लिए तो बारों महीने सावन की ही ऋतु है। फूल संक्रान्ति लौट आयी है मैं ससुराल में पड़ी हूं, हे चरवाहों की मूरली तू न बज, तुझे सुनकर मेरे हृदय में अजीब सी टीस उठती है। जिनका कोई होगा तो मिलने आऐगा, मैं तो माईके विहिन हूं, बनो बनों में भटकूंगी काश मेरा भी कोयी होता बंसत पंचमी आ गई है, पर मुझे लेने कोई नहीं आया।
झुमैलो नृत्य गीत बसन्त पंचमी से प्रारम्भ होकर विशुवत संक्रान्ति तक चलते हैं। इन गीतों में माइके की स्मृति तथा प्राकृति सौन्दर्य का वर्णन होता है। झुमैलो झूम झूम
कुसुम भट्ट