कुछ लोगों के बारे में कहा जाता है कि ना इनकी दोस्ती अच्छी, ना इनकी दुश्मनी अच्छी’। दोनों ही रूप में ये कष्ट देते है। इसी तर्ज पर संप्रग सरकार के बारे में कहा जा सकता है- ‘‘ना इनकी सुस्ती अच्छी, ना इनकी तेजी अच्छी।’ दोनों ही रूप कष्टप्रद है। बताया जाता है कि सरकार अपने ऊपर लगाने वाले निष्क्रियता के आरोप से परेशान थी। देश से लेकर परदेश तक उस पर ऐसे आरोप लग रहे थे। कई विदेशी पत्र-पत्रिकाएं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘उम्मीदो से कम ’ और असफल बता रही थी। यहां तक गनीमत थी। मनमोहन सिंह ऐसी भीतर-बाहर की आलोचनाओं से ऊपर रहते है। वह निर्लिप्त रहते है। निन्दा को गम्भीरता से लेते तो इतने वर्षो तक पद पर रहना मुश्किल हो जाता। लेकिन हद तो तब हुई जब ऐसी ही विदेशी पत्रिका ने वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की भी आलोचना शुरू कर दी। उसने कांग्रेस महासचिव की निर्णय क्षमता पर प्रश्न उठाए।
इसके फौरान बाद सरकार ने सक्रियता दिखाई। वह निष्क्रियता के आरोप से मुक्त होने के कदम उठाने लगी। नीतिगत निर्णय लेने लगी। विपक्ष की बात अलग, सहयोगियों से विचार -विमर्श के बिना उसने रिटेल में एफ.डी. आई. को मंजूरी दी। डीजल के दाम बढ़ाए। रसोई गैस सिलेण्डर की सब्सिडी समाप्त करने की दिशा में कदम उठाए। सब्सिडी युक्त सिर्फ छः सिलेण्डर देने का फरमान जारी किया। यह उसकी सक्रियता थी। कष्टप्रद साबित हुई। निष्क्रिय रहती है, तब भ्रष्टाचार का आरोप लगता है। कोयला आवंटन में भारी घोटाला होता रहा। मंत्रियों के सगे -’संबंधी हाथ साफ करते रहे, सरकार शान्त भाव से देखती रही थी। रसूखदार लोग सैकड़ो की संख्या में सिलेण्डर लेते रहे। सब्सिडी का भरपूर फायदा धनी लोग शुरू से उठाते रहे। मंहगी गाडि़यों में डीजल की खपत होती रही। यह सब सरकार की जानकारी में था। किसी भी प्रकार की सब्सिडी इस वर्ग के लिए नहीं थी। नहीं होनी चाहिए। समय रहते इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने की आवश्यकता थी। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। फिर जब निर्णय किया तो गरीब , अमीर औश्र जरूरतमंद किसान सभी को एक पड़ले में रखा गया। सभी के लिए एक ही नीति। निश्चित ही सरकार की नीति में संवेदनशीलता का अभाव था। उसे अपनी सक्रियता दिखानी थी। यह संदेश देना था कि वह नीतिगत निर्णय कर सकती है। लेकिन ऐसा करते समय वह सामाजिक न्याय नहीं कर सकी। सरकार ने व्यवहारिकता का परिचय नहीं दिया।
रिटेल में एफ.डी. आई. की मंजूरी का परिणाम सरकार पहले भी देख चुके थी। फिर व्यापक विचार-विमर्श के बाद इसे पुनः मंजूर करने का क्या औचित्य था। मल्टी ब्रंाड रिटेल में इक्यावन प्रतिशत नागरिक उड्डयन में उन्यास, ब्राडकास्ंिटग में चैहत्तर, टी. वी. चैनल व एफएम रेडियो में छब्बीस व सिंगल ब्रांड रिटेल में शत प्रतिशत विदेशी पंूजी निवेश भारत की अर्थव्यवस्था, स्वायत्तता ही नहीं संस्कृति पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। वालमार्ट, कैरफोर, टेस्कों आदि का इतिहास निराशाजनक है। ये कहीं भी किसानों या खुदरा व्यापारियों का हित नहीं कर सकी। सरकार को इससे सबक लेना चाहिए। इस नीति का सड़क पर विरोध करने वाले तथा संसद में सरकार को बचाने, प्रोत्साहन देने वाले दल भी भविष्य में जवाब देह होंगे।
सरकार को एफ. डी. आई. पर होने वाले व्यापक विरोध का पहले ही अनुभव हो चुका है। तब सरकार ने अपने निर्णय पर रोलबैक किया था। तात्कालीन वित्त मंत्री ने संसद में आश्वासन दिया था कि राज्यों की सहमति के बिना इसे लागू नहीं किया जाएगा। ऐसे में दुबारा इस आग से खेलने का क्या औचित्य था। राज्यांे व विपक्षी दलों से विचार -विमर्श की बात अलग, सरकार ने अपने सहयोगियों को भी विश्वास में नहीं लिया। तणमूल कांग्रेस के कदम से यह बात स्पष्ट हो चुकी है। उसने सरकार पर गलत बयानी व झूठ बोलने का आरोप लगाया है। एफ. डी. आई. को दुबारा मंजूर करने पर सरकार अन्य पक्षों के साथ सहमति बनाने का प्रयास नहीं कर रही थी। देश में कोयला घोटालें का मामला गर्म था। दूसरी तरफ विदेशी विदेशी पत्रिका मनमोहन सिंह और राहुल गांधी पर नाकामी और किंकर्तव्यविमूढ़ होने की रेंटिग बना रही थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार ने अपनी समझ में एक तीर से दो निशाने साधने का प्रयास किया है। तीर एक एफ. डी. आई. की मंजूरी । निशाने दो -एक तो कोयला घोटाले की आग दब गई। दूसरा- अमेरिका को संदेश दिया गया कि उसके यहां से प्रकाशित टाइम पत्रिका का आकलन गलत है। सरकार के मुखिया, मंत्री व कांग्रेस हाईकमान निर्णय लेने में समर्थ है। खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को मंजूर किया। कई अन्य क्षेत्रों के द्वार खोल दिए। अब तो मानों कि सरकार नकारा नहीं है। यदि सक्रियता प्रदर्शित करने के ये कारण थे, तो उसकी सार्थकता पर विचार करना चाहिए। कोयले के दाग मिटना असम्भव है। टू-जी की भांति ये भी सप्रंग के दामन पर स्थायी रूप से रहेंगे। केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने भी माना है कि उन्होंने कोयले के दाग मिटने की बात हंसी में कही थी। इसी प्रकार वालमार्ट के बल पर विकास का सब्जबाग दिखाना भी बेमानी है। इसके द्वारा किसानों की उन्नति , उघोगों का विकास, रोजगार में बढ़ोत्तरी के सभी दावे छलावा है। खुदरा में विदेशी पूंजी निवेश करने वाले विदेशी व्यापारी अपना हित ही पूरा करेंगे। प्रारम्भ में वह लोगों को आर्कषित करने के लिए छूट दे सकते है। लेकिन एकाधिकार बढ़ाने के साथ ही वह असली रंग दिखाने लगेंगे। उन्हें विश्व में जहां से सस्ता सामान मिलेगा। वही से लाकर भारत कांे गोदाम बनाऐगे। यहां डीजल आदि महंगे हो रहे है। खेती की लागत बढ़ रही है। खाद की किल्लत रहती है। सिंचाई सुविधापर्याप्त नहीं। बाढ़ा राहत में व्यापक भ्रष्टाचार है। किसानों की बदहाली बालमार्ट दूर नहीं कर सकते। चीन का सस्ता सामान ही वह भारत में लाऐगा। भारत को उघोगो पर इसका बहुत प्रतिकूल प्रभाव होगा। वालमार्ट पूरे विश्व में अब तक मात्र बीस लाख लोगों को रोजगार दे सका। भारत में करोड़ों को रोजगार कहां से देगा। जो सरकार दावा कर रही है। उल्टे असंगठित क्षेत्र में लगे करोड़ो खुदरा व्यापारी बेरोजगारों की श्रेणी में आ जाएगे।
इस प्रकार के निर्णय देश और समाज के हित में नहीं है। सरकार सोच सकती है कि उसने अन्य समस्याओं से ध्यान हटाया है। लेकिन उसकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी। सरकार में चैदह मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोप है। ले दे कर तणमूल के नेता बेदाग थे। वह फिर भी बाहर हुए। सरकार में किस प्रकार के लोग बचे है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आय से अधिक सम्पति के आरोप पर सी. बी. आई. जांच का सामना कर रहे लोग सरकार को बचाने का काम करेंगे। सरकार बच सकती है, लेकिन जन सामान्य के प्रति सत्ता की सवंेदनशीलता नहीं बचा सकी। सरकार सुरक्षित रह सकती है, लेकिन उसके निर्णय से राष्ट्रीय हित सुरक्षित रहेंगे, इस पर सन्देह है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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