शिक्षक समाज के वास्तविक निर्माता:-
5 सितम्बर को एक बार फिर सारा देश भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्मदिवस ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाने जा रहा है। सारा देश मानता है कि वे एक विद्वान दार्शनिक, महान शिक्षक, भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकार तो थे ही साथ ही एक सफल राजनयिक के रूप में भी उनकी उपलब्धियों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। डाॅ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमत्तापूर्ण व्याख्याओं, आनंदमयी अभिव्यक्ति और हँसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को प्रेरित करने के साथ ही साथ उन्हें अच्छा मार्गदर्शन भी दिया करते थे। ये छात्रों को लगातार प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। इस प्रकार किसी भी देश के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं और एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल देश व विश्व के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रबल समर्थक थे डाॅ. राधाकृष्णन:-
डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये गये अपने व्याख्यान में कहा था कि ‘‘मानव को एक होना चाहिए।……अब देशों की नीतियों का आधार विश्व शांति की स्थापना का प्रयत्न करना होना चाहिए।’’ वास्तव में डाॅ. राधाकृष्णन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा को मानने वाले थे। पूरे विश्व को एक इकाई के रूप में रखकर शैक्षिक प्रबंधन के पक्षधर डाॅ. राधाकृष्णन अपने ओजस्वी एवं बुद्धिमत्ता पूर्ण व्याख्यानों से छात्रों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय थे। अतः अब वह समय आ गया है कि हमें विश्व भर के बच्चों की शिक्षा का एक सा पाठयक्रम बनाकर उन्हें विश्व शांति एवं विश्व एकता की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाये। संसार भर के बच्चों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि हम समस्त संसार वासियों का ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा सम्पूर्ण मानव जाति एक ही परमात्मा की संतान है। यह सारी धरती एक कुटुम्ब तथा एक देश है और हम सब इसके नागरिक हैं।
एक प्रिन्सपल का अपने शिक्षकों के नाम पत्र:-
द्वितीय विश्व युद्ध के समय हिटलर के यातना शिविर से जान बचाकर लौटे हुए एक अमेरिकी स्कूल के प्रिन्सिपल ने अपने शिक्षकों के नाम पत्र लिखकर बताया था कि उसने यातना शिविरों में जो कुछ अपनी आँखों से देखा, उससे शिक्षा को लेकर उसका मन संदेह से भर गया। प्रिन्सिपल ने पत्र में लिखा:
‘‘प्यारें शिक्षकों, मैं एक यातना शिविर से जैसे-तैसे जीवित बचकर आने वाला व्यक्ति हूँ। वहाँ मैंने जो कुछ देखा, वह किसी को नहीं देखना चाहिए। वहाँ के गैस चैंबर्स विद्वान इंजीनियरों ने बनाए थे। बच्चों को जहर देने वाले लोग सुशिक्षित चिकित्सक थे। महिलाओं और बच्चों को गोलियों से भूनने वाले काॅलेज में उच्च शिक्षा प्राप्त स्नातक थे। इसलिए, मैं शिक्षा को संदेह की नजरों से देखने लगा हूँ। आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप अपने छात्रों को ‘मनुष्य’ बनाने में सहायक बनें। आपके प्रयास ऐसे हो कि कोई भी विद्यार्थी दानव नहीं बनें। पढ़ना-लिखना और गिनना तभी तक सार्थक है, जब तक वे हमारें बच्चों को ‘अच्छा मनुष्य’ बनाने में सहायता करते हैं।’’
शिक्षा सामाजिक बुराइयों को दूर करने का सबसे कारगर उपाय:-
डाॅ. राधाकृष्णन सामाजिक बुराइयों को हटाने के लिए शिक्षा को ही कारगर मानते थे। डाॅ. राधाकृष्णन केवल किताबी ज्ञान एवं जानकारियों को ही शिक्षा न मानते हुए व्यक्ति के बौद्धिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक विकास को भी शिक्षा का अभिन्न अंग मानते थे। वे कहते थे कि शिक्षा का मुख्य कार्य प्रत्येक नागरिक के मन में लोकतांत्रिक भावना व सामाजिक मूल्यों की स्थापना करना है। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास करना है। हमारा मानना है कि प्रत्येक बच्चे को सर्वोत्तम भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ उसे एक सभ्य समाज में रहने के लिए सर्वोत्तम सामाजिक शिक्षा तथा एक सुन्दर एवं सुरक्षित समाज के निर्माण के लिए बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने के लिए सर्वोत्तम आध्यात्मिक शिक्षा की भी आवश्यकता होती है क्योंकि सामाजिक ज्ञान के अभाव में जहाँ एक ओर बच्चा समाज को सही दिशा देने में असमर्थ रहता है तो वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में वह गलत निर्णय लेकर अपने साथ ही अपने परिवार, समाज, देश तथा विश्व को भी विनाश की ओर ले जाने का कारण भी बन जाता है।
विद्यालय: बौद्धिक जीवन के देवालय:-
डाॅ. राधाकृष्णन कहते थे कि विद्यालय गंगा-यमुना के संगम की तरह शिक्षकों और छात्रों के पवित्र संगम की तरह है। उनका कहना था कि बड़े-बड़े भवन और साधन सामग्री उतने महत्वपूर्ण नहीं होते, जितने कि शिक्षक। वे कहते थे कि विद्यालय जानकारी बेचने की दुकान नहीं बल्कि ऐसे तीर्थस्थल हैं जिनमें स्नान करने से व्यक्ति की बुद्धि, इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है। उनके अनुसार विद्यालय बौद्धिक जीवन के देवालय हैं। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी व उद्देश्यपूर्ण शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए एक शिल्पकार एवं कुम्हार की भाँति ही स्कूलों एवं उसके शिक्षकों का यह प्रथम दायित्व एवं कत्र्तव्य है कि वह अपने यहाँ अध्ययनरत् सभी बच्चों को इस प्रकार से संवारे और सजाये कि उनके द्वारा शिक्षित किये गये सभी बच्चे ‘विश्व का प्रकाश’ बनकर सारे विश्व को अपनी रोशनी से प्रकाशित करें।
शिक्षकों के श्रेष्ठ मार्गदर्शन द्वारा ही धरती पर ईश्वरीय सभ्यता की स्थापना संभव:-
डाॅ. राधाकृष्णन सन् 1962 में भारत के राष्ट्रपति बनें। उस समय राष्ट्रपति का वेतन 10 हजार रूपये मासिक था लेकिन उन्होंने भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद के गौरवशाली परम्परा को कायम रखते हुए केवल 2,500 रूपये ही प्रतिमाह वेतन लेकर शेष राशि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में जमा करते रहे। इस प्रकार भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक गुणों से ओतप्रोत शिक्षकों के द्वारा ही समाज में व्याप्त बुराईयों को समाप्त करके एक सुन्दर, सभ्य एवं सुसंस्कारित समाज का निर्माण किया जा सकता है। सर्वपल्ली डा0 राधाकृष्णन ऐसे ही महान शिक्षक थे जिन्होंने अपने मन, वचन और कर्म के द्वारा सारे समाज को बदलने की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत की। अतः आइये, शिक्षक दिवस के अवसर पर हम सभी डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को शत्-शत् नमन करते हुए उनकी शिक्षाओं, उनके आदर्शों एवं जीवन-मूल्यों को अपने जीवन में आत्मसात् करके एक सुन्दर, सभ्य, सुसंस्कारित एवं शांतिपूर्ण समाज के निर्माण के लिए प्रत्येक बालक को टोटल क्वालिटी पर्सन बनाने का संकल्प लें।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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