उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूं से जलते है ये चिराग-ए-वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।
परतन्त्रता की बेड़ीयों से मुक्त कराने के लिये बुन्देलखण्ड के रणबाकुरे स्वतंत्रता सेनानियों ने इन्दौर, इलाहाबाद, कानपुर, लाहौर और अण्डमान निकोबार द्वीप की जेलों में यातनाऐं सहकर आजादी की दीप शिखा को जलाये रखा। इन्दौर में होलकर के खिलाफ प्रजा मण्डल के माध्यम से जंग-ऐ-आजादी की लड़ार्इ ललितपुर जनपद के ननौरा ग्राम के निवासी पंडित बालकृष्ण अगिनहोत्री एवं उनके छोटे भार्इ प्रेम नारायण ने लड़ी तो पंडित परमानन्द ने राठ से चलकर अण्डमान की जेलों तक आजादी का बिगुल फूका लेकिन इन्ही सबके बीच एक सहयोगी की भूमिका निभाने वाला ललितपुर का परमानन्द मोदी जीवन के अनितम पड़ाव पर अपनी पहचान के लिये दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर है। स्वधीनता सेनानियों ने अपना खून पसीना बहाकर आजादी तो दिलार्इ लेकिन इस आजादी ने स्वधीनता सेनानियों को ही भूला दिया। आजादी की लड़ार्इ में जिले के परमानंद स्वधीनता सेनानी का दर्जा तक नही दिया गया। उम्र के अनितम दौर पर पहुंच चुके स्वाधीनता सेनानी ने अंतत: हताश होकर राष्ट्रपति को मर्म स्पर्शी प्रार्थना पत्र भेजकर अपनी व्यथा को बताया है।
किराये के घर में रहकर आर्थिक तंगी के थपेड़े झेल रहे स्वधीनता सेनानी परमानंद मोदी की कड़क आवाज से अब भी उनके जोश का अंदाजा लग जाता है, लेकिन जिस आजादी की खातिर उन्होंने न्यौछावर कर दिया उस आजादी ने उन्हें स्वधीनता सेनानी तक का दर्जा नही दिया। गृह मंत्रालय के एक पत्र ने उनके सपनों को तार-तार कर दिया। वाकया पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर 1985 मेें विज्ञापित हुए एक विज्ञापन से जुड़ा है। जिसके द्वारा किन्ही कारणों से स्वधीनता संग्राम सेनानी होने का दर्जा पाने से वंचित करने का मौका दिया गया था। आवेदन की अंतिम तिथि 30 जून 1985 मुकर्रर की गयी थी। सेनानी ने अपना आवेदन 18 जून को ही रजिस्डर्ड डाक द्वारा भेज दिया था, जो गृह मंत्रालय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डिवीजन गृह मंत्रलाय में 25 जून को ही पहुंच गया था। इसके उपरांत भारत सरकार के सचिव ने पत्रांक नम्बर 32882455-एन 2 के माध्यम से बताया कि 28 जुलार्इ 85 को प्राप्त आवेदन पत्र में स्वधीनता संग्राम सेनानी की मान्यता का सपना झूलता रह गया। स्वधीनता सेनानी का तो यहां तक कहना है कि उनसे एक कार्यालय मेंं धन की मांग की गयी थी। पूरा कर पाने मंें असमर्थ रह पाने के चलते ही उनकी आखिरी ख्वाहिश अपूर्ण रह गयी।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परमानंद मोदी पुत्र नंदलाल मोदी हाल निवासी सरदारपुरा ललितपुर किसी परिचय के मोहताज नही है। वह जिस उम्र में आजादी की लड़ार्इ में कूदे थे, उस उम्र मेंं बच्चे खेलने कूदने मेंं ही व्यस्त रहते है। मोदी ने पहले गांधी के आंदोलनों में काम किया, इसके बाद वह नेताजी सुभाष चंद बोस की आजादी हिंद फौज मेंं जुट गये। सन 1942 मेंं बनारस युनीवर्सिटी बंद हो गयी थी। वहां से गुलाबचंद ललितपुर मेंं आये थे। उन्होेंने आंदोलन को गति देने के उददेश्य से परमानंद मोदी को डाकखाना जलाने का काम सौंपा था। अलावा इंगलैण्ड में निर्मित कपड़े को बेचने वाले दुकानदार की दुकान में भी आग लगाने का काम मोदी ने किया था। जो भी दायित्व सौंपा गया वह एक पर एक दायित्व निभाते चले गये। रात मेंं पैम्फलेट छपवाने मेंें सहयोग के अलावा चिपकाने का कार्य भी परमानंद मोदी के जिम्मे था। मोदी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथगोला बनाकर कोतवाली ललितपुर पर फेका था। इस सम्बंध मेंं वह दो बार पकड़े गये। इतनी पिटार्इ हुर्इ कि वह बेहोश तक हो गये थे। बाद में वरिष्ठ साथियों के सुझाव के चलते वह एक वर्ष के लिए भूमिगत हो गये। लगातार जंगलों मेंं खाक छानते रहे, फिर भी आजादी का जज्बा नहीं गंवाया। वह आजादी के लिए स्वधीनता संग्राम सेनानियों तक संदेश पहुंचाने का कार्य करते रहे। 1942 में ही कमिश्नरी झांसी पर तिरंगा झण्डा चढ़ाने वाले सेनानी को अंग्रेजों ने गोली मार दी थी। इस गोली ने झण्डा फहराने वाले सेनानी को मौत की नीद सुला दिया था। वहीं छर्रे निकलकर परमानंद मोदी के बाये पैर मंें भी लगे थे। जिनके चिन्ह आज भी उनके पांव मेंं बने हुए है। उस समय चिकित्सालय मंें दाखिल होकर इलाज कराना सम्भव नहीं था। इस वजह से मोदी अपनी रिश्तेदारी मेंं भाग गये। देशी इलाज के द्वारा उनके पाव ठीक हुए परमानंद मोदी ने राष्ट्रपति को भेजे ज्ञापन मेंं बताया कि उन्होंने कभी भी सरकार के ऊपर अतिरिक्त बोझ रखने का निर्णय नहीं लिया। यही वजह है कि वह स्वधीनता संग्राम मेंं अहम भूमिका निभाते रहे। इसके बावजूद भी इस कार्य के बदले किसी किस्म का लाभ हासिल करना उन्होंने मुनासिब नही समझा। लेकिन जब 1985 मेंं विज्ञापन प्रकाशित हुआ तब मोदी को लगा कि उम्र के पड़ाव को देखते हुए आवेदन करना ही उचित है, लेकिन सरकारी मशीनरी की खराबी के चलते उनका आखिरी सपना भी टूटकर बिखर गया। हर जगह उन्हें अपने स्वधीनता संग्राम सेनानी होने की पहचान बतानी पड़ रही है।उनके पास केवल स्मृतियां व फिरंगियाें द्वारा शरीर दिये गये जख्म ही शेष रह गये है। इसके अलावा कुछ भी साथ नही है। परमानंद मोदी के पास आजादी हिंद फौज द्वारा जारी 15 अगस्त 1947 का वह सिक्का भी है जो केवल आजाद हिंद फौज के सिपाहियां को ही दिया गया था। इस सिक्के मेंं अविभाज्य भारत का नक्शा बना हुआ है। परमानंद मोदी को स्वधीनता सेनानी होने के किसी साक्ष्य की जरूरत नही है, लेकिन जिस तरह की जरूरतें सरकारी मशीन द्वारा बतायी जा रही है, उनकी सुन-सुनकर बूढ़े मन को काफी ठेस पहुंचती है। वह बोझिल मन से कहते है कि इस तरह के राज्य की तो उन्होेंने कल्पना तक नहीं की थी। जिस आजादी के लिए उन्हाेंने दिन रात भूखे प्यासे रहकर संघर्ष किया, उस आजादी ने उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहंुंचने के पश्चात भी ठुकराने का कार्य किया। वह बताते है कि स्वधीनता संग्राम से जुड़ी निशानियों को अपने साथ रखेंगे। मोदी के अधिकांश साथी दिवंगत हो चुके है, वह भी मोदी को स्वधीनता सेनानियों के समान दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे, लेकिन कही से भी कोर्इ उम्मीद की किरण दिखायी नही पड़ी। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बृजनंदन किलेदार, अहमद खां, बृजनंदन शर्मा, मथुरा प्रसाद वैध के अलावा हरीकृष्ण देवलिया ने भी मोदी के स्वधीनता संग्राम सेनानी होने का प्रमाण पत्र दिया है।
वक्त ने किये इतने सितम।
हमदम न रहे ।
बात करे तो किससे करें।
अपने ही जब हो बेरहम।।
एक आंख मोतियाबिंद के कारण कमजोर हो गयी है। सेनानी ने लिखा कि कमाना हिम्मत से बाहर है। भीख मांगना भी बस की बात नही है। उन्होंने बताया कि वह हर तरफ से निराश हो चुके है। पिछले एक माह से लगातार बीमार है। भोजन की व्यवस्था भी बड़ी मुशिकल से हो पाती है। इस हाल मेंं वह क्या करें, राष्ट्रपति ही सही मार्ग बताकर उनकी बोझिल बन चुकी जिदंगी को उम्मीद की किरणें दिखायें यह सोच-सोच कर अपने दिन काट रहे है।
-सुरेन्द्र अगिनहोत्री
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