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कहीं पृथ्वी डूब न जाए

Posted on 03 June 2012 by admin

मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर संबंध काफी पुरना और गहरा है। मानव की उत्पत्ति प्रकृति की गोद में हुई और मानव, माँ प्रकृति का दोहन करने लगा या यूँ कहे उस पर निर्भर रहकर विकसित होने लगा। जंगल के फल, फूल, पत्ते व जीव जंतु उसके जीवन के आधार बने। मानव संस्कृति के विकास एवं अस्तित्व के लिए पर्यावरण या प्रकृति का संरक्षण कितना अवश्यक है, अब दुनिया को समझ में आने लगा है। पर्यावरण ठीक है तो हम है।
आने वाले 30-40 सालें में हो सकता है कि अंटार्कटिका के ऊपर कई किलोमीटर बर्फ की ग्लेशियर पिघल कर समुद्र में आ जाए, तो समुद्र की सतह कई मीटर ऊंची हो जाएगी, फिर दुनिया में हाहाकार मच जाएगा। कलकत्ता, मुंबई और बांग्लादेश डूब जाएंगे, लेकिन यह सब कुछ इतना जल्दी नही होगा और न ही इन सब घटनाक्रमों की गारंटी दी जा सकती है। घटनाक्रम का रूख बदल सकते हैं। यह मानना है जाने-माने वैज्ञानिक और नेशनल रिसर्चर प्रोफेसर यशपाल का। पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता के भयावह परिणाम दिनो दिन बढ़ता तापमान, आंधी-तूफान और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदा की बड़ती संख्या हमें चेतावनी दे रही है, ग्लोबल वार्मिग के सवाल पर वैज्ञानिक में मतभेद है। जहां कुछ का मानना है कि तापमान बढ़ रहा है, वही कुंछ का कहना है कि यदि 4-5 डिग्री सेंटीगे्रड तापमान बढ़ा भी हो तो इससे ग्लोबल वार्मिंग का कयास नही लगाया जा सकता, क्योंकि पृथ्वी के दीर्घकालिक इतिहास मंे 4-5 डि.सें. टेम्परेचर बढ़ना भूविज्ञानियों की निगाह बहुत कुछ आकलन नही किया जा सकता । प्रो. यशपाल का तर्क है कि इतिहास के आइने में पृथ्वी को देखें, तो हजारों साल में पृथ्वी का तापमान इधर से उधर नही हुआ, जबकि ज्वालामुखी का विस्फोट भी हुआ लेकिन जब से मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन शुरू किया, तब से प्राकृतिक संतुलन प्रभावित हुआ। पिछले 60 वर्षो में जितनी तेजी से औद्योगिकरण हुआ है, उतनी ही तेजी से कार्बन डाई-आक्साइड की मात्रा में भी वृद्धि हुई है। यह अजीब विडम्बना है कि भारत में जहां 30 प्रतिशत भू-भाग पर वन होना चाहिए, वहां मात्र 15 प्रतिशत भू-भाग पर ही वन है। इनमें भी बहुत से वन दिनों-दिन साफ होते जा रहे है। ऐसी हालत में तापमान का बढ़ना कोई आश्चर्य की बात नही है।
प्रो. यशपाल की तरह भारतीय सूचना तकनीकी संस्थान (इलाहाबाद) के अध्यक्ष रहे पद्मभूषण प्रो. अजीत राम वर्मा भी मानते है कि कोयला और पेट्रोल के अधिकाधिक उपयोग करने से वायुमंडल में कार्बन डाई-आक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है, जिसके कारण पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि हो रही है। प्रो. वर्मा के अनुसार वायुमंडल में कार्बन डाई-आक्साइड की मात्रा में वृद्धि होने से पृथ्वी का तापमान घटेगा। यदि वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा 0.3 से कम होती, तो पृथ्वी का तापमान अधिका होता। वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा 0.3 प्रतिशत है और इसी कारण मानव जीवन के लिए 20 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान संभव हो सकता है। प्रकृति की रची हुई पृथ्वी के चारों तरफ का वायुमंडल अद्भुत है। इस वायुमंडल की एक महत्वपूर्ण गैर ओजोन है, जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को सोख लेती है, लेकिन इसकी भी हालत अच्छी नही है। प्रो. वर्मा के अनुसार मनुष्य द्वारा एयर कंडीशनर व पलास्टिक उद्योग में उपयोग किए जाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन के लीक होने से ओजोन परत का लगातार क्षरण हो रहा है। श्री वर्मा  के अनुसार प्रकृति द्वारा बनाए गए ओजोन परत के क्षरण से सौर मंडल से खतरनाक पराबैंगनी किरणों पृथ्वी पर पहुचने लगेंगी, जिससे त्वचा कैंसर व कई अन्य बीमारियां फैलेंगी। श्री वर्मा का मानना है कि आने वाली पीढ़ी के भविष्य के लिए मनुष्य को चाहिए कि प्रकृति द्वारा बनाए वायुमंडल से छेड़छाड़ न करें व इसे अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास करें, तभी पृथ्वी पर मानव जीवन कायम रह सकेगा।
पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना अपनी मौत का इंतजाम खुद करने के बराबर है। जानकार मानते है कि जलवायु परिवर्तन से मानवता को उतना ही खतरा है, जितना कि परमाणु हथियारों की बढ़ती होड़ से हो सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के असर से सालाना करीब तीन लाख लोग मर रहे है। इनमें से ज्यादातर विकासशील देशों के होते है। ग्लोबल हा्रमैनिटेरियन फोरम की रिपोर्ट मंे आगाह किया गया है कि धरती के तापमान में लगातार वृद्धि होने से 30 करोड़ लोग प्रभावित वृद्धि होने से 30 करोड़ लोग प्रभावित वृद्धि होने से 30 करोड़ लोग प्रभावित है। 2030 तक यह संख्या दोगुनी हो सकती है। पर्यावरण को नुकसान से मानवता को खतरे पर यह पहली विस्तृत रिपोर्ट है। फोरम के अध्यक्ष और संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने दुनिया के सभी देशों से इस ओर ध्यान देने की अपील की हा्रूमन इंपैक्ट रिपोर्ट क्लाइमेेट चेंज- द एनाटमी आफ ए साइलेंट क्रइसिस नाम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि फिलहाल जिस देश को जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा है, वह है आस्ट्रेलिया। रिपोर्ट के आंकड़े चैकाने वाले है। इसके मुताबिक 10?906 से 2005 के बीच धरती का तापमान 0.74 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। हाल के दशकों में यह बढ़ोत्तरी उल्लेखनीय रही है। वर्ष 2100 तक तापमान न्यूनतम दो डिग्री सेल्सियस बढ़ने के आसार है। इतनी वृद्धि सुनने में भले मामूली लगती हो, पर असल में यह बेहद विनाशकारी होगी। रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल मरने वाले तीन लाख लोगांे में 99 फीसदी विकासशील देशों के होते है। दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में इनका योगदान महज एक फीसदी है। रिपोर्ट में चेताया गया कि जलवायु परिवर्तन से इस सहस्राब्दी क ेलिए तय आठ विकास लक्ष्य (मिलोनियम गोल्स) भी प्रभावित हो सकते है। इन लक्ष्यों में 2015 तक गरीबी खत्म करना, भूखमरी मिटाना, शिशुओं की मृत्यु दर को घटाना और एड्स सहित तमाम जानलेवा बीमारियों को फैलने से रोकना शामिल है।
तमाम विकसित देशों में आस्ट्रेलिया पर जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर पड़ने की आशंका व्यक्त की गई है। बीते 15 सालों में बढ़तें तापमान और बारिश में कमी से यहां भीषण सूखा पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक हर साल जलवायु परिवर्तन के कारण करीब 125 अरब डालर का वित्तीय नुकसान होता है। दुनिया पर मंडरा रहे जलवायु परितर्वन के खतरे से निपटने के लिए राज्य में कागजी घोड़े दौड़ रहे है। पर अमल जुम्मेदरी एक दूसरी पर टालते रहने की परम्परा का परिणाम है कि प्रदूषण के मामले में हमेशा ही हम गच्चा खाते रहे है। देश की लाईफ लाईन गंगा नदी की हालत बताती है कि आने वाले कल कैसा होगा?
वर्ष 2006 में सपा सरकार द्वारा सूबे की आब-ओ-हवा को दुरूस्त करने की गरज से राज्य की पहली पर्यावरण नीति का मसौदा तैयार किया गया था। सरकार गई तो पर्यावरण नीति का मसौदा तैयार किया गया था। सरकार गई तो पर्यावरण नीति को भी ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया गया। अब जबकि पुनः सपा की सरकार है और पर्यावरण मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का पसंदीदा विषय है। यही नही विभाग के मुखिया भी वही है। ऐसे मंे सवाल यह है कि क्या पर्यावरण नीति को हरी झंडी मिल पाएगी ?
पर्यावरण नीति लागू होने के बाद विभागों के लिए यह जरूरी होगा कि वह बजट का कुछ अंश पर्यावरण के लिए खर्च करें। यही नही विभागीय योजनाओं को पर्यावरण संगत बनाया जाए। विकास योजनाओं में प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब इस्तेमाल पर रोक लगे।
केवल गंगा ही नही रिपोर्ट के अनुसार वाराणसी में वरूणा 44.6 वीओडी और 1.34 लाख जीवाणुओं सहित गंगा मंे मिल रही है। मेरठ मंे काली व हिंडन प्रदेश की सर्वाधिक प्रदूषित नदियां है। इनमें घुलित आॅक्सीजन की मात्रा जीरो है। पानी में पुलिस आक्सीजन उसकी गुणवत्ता का संकेत है। काली में बीओडी 90.7 मिलीग्राम के खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है, जबकि जीवाणु 2.77 लाख मिले है। हिंडन में भी बीओडी 39 मिलीग्राम पाया गया है। सहारनपुर में हिंडन का बीओडी 18.2 और नोयडा में 34.5 के स्तर में दर्ज किया गया है। यहां जीवाणुओं की संख्या भी लाखों में पाई गई है, जबकि नदी जल में आक्सीजन शून्य है।  प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक और अनमोल वस्तु इस दुनिया में उपलब्ध होता है जिसे जल के नाम से जाना जाता है। जल के बिना जीवन संभवन नही है। इसीलिए तो कहा जाता है कि जल ही जीवन है।
‘गंगे व यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिम् कुरू।।’
अनादिकाल से मनुष्य के जीवन में नदियों के जल का महत्व रहा है। विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारें ही विकसित हुई है। भारत में सिधु घाटी की सभ्यता इसका ज्वलंत उदाहरण है। भारत का प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मला नदियों के तट के इतिहास से जुड़ हुआ है। माना जाता है कि सरस्वती नदी के तट पर वेदों की ऋचाएँ रची गई है। तमसा नदी के तट पर क्रौंच वध की घटना ने रमणीयता नदियों के किनारे पनपी और नगर सभ्यता का वैभव नदियों के किनारे ही बढ़ा। बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान नदियों के पास करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है।

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-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन- 120/132
बेलदारी लेन, लालबाग, लखनऊ।
मो0ः 9415508695

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