हे बाबू 1मई मजदूर दिवस काव आय ? कइसे मनावा जा थै ? इस तरह के अनेको प्रश्न है जिनके उत्त्तर की तलाश में है गांव देहात की गरीब महिलाएं व बच्चे। जहां एक ओर सरकार कागजों पर १ मई को मजदूर दिवस के रुप में मना रही है वहीं हकीकत इससे कही परे है। हजारों नही बल्कि कई कई लाख लोगों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती।
१ मई को सरकार मजदूर दिवस के रुप मे भले ही मनाती चली आ रही हो परन्तु शायद गांव देहात मे रहने वाले और और हाड़ तोड़ मेहनत कर अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ करने वाले लोगो को इस बात की जानकारी ही नही है कि आखिर यह मजदूर दिवस क्या है और क्यों मनाया जाता है।
मझिला, बड़का, महरानी, चमेला जैसी अनेक महिलाएं और इनके छोटे छोटे बच्चे सुबह से लेकर शाम तक जीजान से जुटे रहते है ताकि उन्हे शाम को रोटी नसीब हो सके। जहां गांव देहात के लोग कई प्रकार के काम धंधे करके अपना पेट पालने की जुगत मे रहते है वही तराई के इलाको मे लोग बाध बनाकर रोजी रोटी की व्यवस्था करते है।
नदी के किनारे बसे गांवो के लोग तपती दोपहरी में अपने बीबी बच्चो के साथ साइकिल का पहिया जमीन मे गाड़कर बॅाध बनाते हुए बड़ी आसानी से देखे जा सकते है। गांव मे बाॅध बनाकर ये लोग जनपद के मुख्यालय और कुछ छोटी बड़ी बाजारो मे जाकर बेचते है और उससे मिलने वाले पैसे से अपना गुजारा करते है।
मजदूर दिवस होने के बावजूद भी हजारो के संख्या मे वे बच्चे जिनकी अभी स्कूल जाने की उम्र है, रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन, होटलो, चाय की दुकानों पर कप प्लेट धोते और चाय का गिलास लेकर बाबू बाबू करते आसानी से देखे जा सकते है।
यहां तक ही नही बल्कि ये छोटे छोटे बच्चे जिनके कंधो पर किताब कापियो से भरा बस्ता होना चाहिए। कूड़े का बोरा अपनी पीठ पर लादकर उसमे कागज के टुकड़े, रददी, शीशे की बोतले भरे हुए दिखाई पड़ते है।
भोर में उठकर पूरा दिन जगह जगह के चक्कर काटना और कूड़े का बोरा पीठ पर लादना शायद इनकी नियति बन चुका है। मुफलिसी में जीवन जीने वाले इन मजदूरो और नौनिहालो को आखिर कब समझ आयेगा बाल दिवस और मजदूर दिवस का मायने।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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