Û ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों का पहले उपयोग फिर तिरस्कार बसपा को महंगा पड़ेगा।
Û ब्राह्मण वर्ग राष्ट्रवाद और धर्म पर आघात करने वाली भ्रष्ट ताकतों को बर्दाश्त नहीं करता।
Û भारतीय संस्कृति में ब्राह्मणों को समाज का मुख कहा गया है परन्तु उन्हंे समझ में आ गया है कि बसपा के लिये ये मुख नहीं केवल मुखौटे हैं।
Û बसपा एवं उसके सहयोगी साहित्य में सवर्णों के लिये ही नहीं बल्कि देवी-देवताओं के लिये भी अपमानजनक टिप्पणियां आज भी पढ़ाई जाती हैं।
उत्तर प्रदेश के चुनावी समर पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं। 2014 के भावी लोकसभा चुनाव की बानगी साबित होगा यह चुनाव। प्रदेश का चुनावी परिदृश्य काफी दिलचस्प है। जातीय समीकरणों की चर्चा जरूरत से ज्यादा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, पंजाबी, खत्री, कायस्थ आदि सवर्ण जाति के मतदाताओं को भी जाति आधारित खांचों में देखा जा रहा है।
उ.प्र. की सत्ता पर सवार होते ही बसपा की मुख्यमंत्री मायावती ने भाषा बदली, भाव नहीं। उन्होंने पहले ब्राह्मणों का साथ लेकर सत्ता हथियाई और फिर ब्राह्मणों को अपमानित करना शुरू कर दिया। मायावती ने पहले ब्राह्मणों को लालबत्ती देकर अपने को ब्राह्मणों का हितैषी साबित किया। फिर धीरे-धीरे ब्राह्मणों का विरोध ही नहीं अपमानित करने में भी उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। ब्राह्मणों को कम मंत्री पद दिये, जिन्हें दिये उन्हें हटा दिया, चाहे वह रंगनाथ मिश्र हों या राकेशधर त्रिपाठी या अनन्त कुमार मिश्र।
ब्राह्मणों को पहले पदारूढ़ करना और फिर पद्दलित करना बसपा की सियासत है। आईएएस अधिकारियों मंे भी बसपा ने पहले उनका उपयोग किया फिर चुन-चुनकर ब्राह्मण अधिकारियों को अपमानित किया, जिसमें वी.एस. पाण्डेय जैसे कई उदाहरण हैं। और बाद में बसपा के सबसे बड़े ब्राह्मण मुखौटे सतीश चन्द्र मिश्र भी मुख्यमंत्री के चहेते अधिकारियों के आगे बेबस नजर आये। ब्राह्मण विरोधी बसपा की राजनीति देखकर ब्राह्मण मतों का झुकाव भाजपा की ओर हो गया है।
पूरा हिन्दुस्तान जानता है कि ‘स्टेट गेस्ट हाउस काण्ड’ जिसमें अगर भाजपा नेता स्व. ब्रह्मदत्त द्विवेदी न पहुंचते तो मुलायम समर्थक सपा के गुण्डों द्वारा मायावती को जान बचाना मुश्किल हो जाता। मायावती और उनकी सरकार स्व. द्विवेदी को सत्तामद में भूल गयी। मायावती ने द्विवेदी के पुत्र के साथ भी सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया।
ब्राह्मणवाद का दावा करने वाली बसपा ने 2007 की अपेक्षा इस बार के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों को टिकट भी कम दिये हैं। कांग्रेस ने भी ब्राह्मणों को मात्र 35 टिकट दिये जबकि भाजपा ने 78 टिकट ब्राह्मणों को और 74 टिकट क्षत्रिय नेताओं को दिये। क्षत्रिय नेताओं के प्रति भी बसपा का रवैया हमेशा से ही घनघोर विरोधी रहा है।
भाजपा सांस्कृतिक मुद्दों को उठाने वाली लोकतांत्रिक पार्टी होने के कारण ब्राह्मण और अन्य सवर्ण वर्ग की पहली पसंद है। भाजपा के दिग्गज नेता पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र, केसरीनाथ त्रिपाठी, रमापतिराम त्रिपाठी जैसे आदि ब्राह्मण नेताओं ने कभी भी जातीय राजनीति को तरजीह नहीं दिया। इन नेताओं ने ब्राह्मणों सहित सभी वर्गों को सम्मान देते हुए हमेशा राष्ट्र की मुख्यधारा मंे जोड़ने की सियासी पहल की। हरिजनवाद, मुस्लिमवाद, यादववाद आदि वादों का विरोध किया है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों सहित सभी वर्गों को सपा, बसपा की जाति उन्मादी अल्पसंख्यकवाद की राजनीति बुरी लगी। पिछड़ों का हक मारा गया। राजनाथ सिंह सरकार ने अतिदलित, अतिपिछड़ों को वास्तविक आरक्षण का कानून दिया। बसपा ने खारिज किया। यह बात ब्राह्मणों, क्षत्रियों व वैश्यों को भी बुरी लगी है। सरकार की ओर से किसी भी वर्ग और अन्य सवर्णों को किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिला। कांग्रेस ने कई वर्षों तक सत्ता का लाभ उठाया। जाति उन्माद की गाड़ी पर सवार सपा ने भी सत्ता का लाभ उठाया।
बसपा का कोई सिद्धांत नहीं। उसने कमजोर वर्गों को अपने पाले में करने के लिए तिलक, तराजू और तलवार-इनको मारो जूते चार’ की नारेबाजी की। तिलक को ब्राह्मणों का, तराजू को वैश्यों का व तलवार को क्षत्रियों का प्रतीक जाना गया। बसपा ने तीनों के विरुद्ध अभियान चलाया। उसने निर्दोष दलितों को गोलबंद करने की जाति उन्मादी राजनीति चलाई। चुनावी राजनीति के लिए एक अधिवक्ता को ब्राह्मण चेहरा बनाया। उन्हीं के अनेक रिश्तेदारों को सत्ता के पद दिए गये। लेकिन भ्रष्टाचार के कारण बसपा की साख गिरती रही तो उसने अल्पसंख्यकों की हितैषी बनने का शिगूफा छोड़ा। 2012 के विधानसभा चुनाव मंे बसपा अपने नये चेहरे के साथ चुनाव मैदान में है। सामान्य वर्ग का मतदाता पूरी तौर पर बसपा से छिटक गया है।
ब्राह्मणों की हितैषी होने का दावा करने के बाद भी आज तक मायावती ने ईश्वर के नाम की न शपथ नहीं ली और न ही मंदिर मंे जाकर मत्था टेका। जासूसी के लिये विख्यात ‘विकीलिक्स’ ने इस बात का दावा किया था कि किसी विदेशी राजनयिक से श्री सतीश चन्द्र मिश्र ने स्वयं कहा था कि ‘मुख्यमंत्री भ्रष्ट और निरंकुश हैं। ऐसी बातें लाख दाबी जायं, दबती नहीं हैं। बसपा सरकार का चरित्र सबके सामने आया। दलित एक्ट के फर्जी मुकदमों की बाढ़ आई। अगड़े पिछड़े फर्जी मुकदमों का शिकार हुए। दलित एक्ट के सही मुकदमें दर्ज नहीं हुए। बसपा ने दौलत के अलावा किसी भी वर्ग पर गौर ही नहीं किया।
श्रीराम जन्मभूमि मंदिर व राष्ट्रवाद सवर्णों को प्रिय है। इस बार कांग्रेस के मजहबी आरक्षणवाद का गुस्सा है। बसपा-सपा द्वारा केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार को खुला समर्थन दिया जा रहा है। लेकिन उ.प्र. में नूराकुश्ती है। मतदाताओं को केन्द्र में तीनों का साथ साफ दिखाई पड़ रहा है।
भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबी केन्द्र की कांग्रेसी एवं राज्य की बसपा सरकार से प्रदेश का युवा वर्ग भी चिढ़ा बैठा है। युवा वर्ग को
मताधिकार तो प्राप्त हो गया है लेकिन रोजी-रोजगार का अधिकार बसपा और कांग्रेस ने नहीं दिया। इस बार युवाओं का बढ़ा मत बसपा के लिये मारक साबित होगा। युवाओं की बात करने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी हैरान हैं। सपा के अखिलेश यादव की बात कोई सुनने को तैयार नहीं। यह वर्ग भाजपा से ही उम्मीद कर जुड़ता जा रहा है।
पढ़ा-लिखा युवा शहरी मध्य वर्ग अैर सवर्ण जातियां भ्रष्टाचार को लेकर आज आक्रोशित हैं। सपा एवं बसपा के मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के मामलों मंे चार्जशीटेड हैं एवं कांग्रेस के अनेक मंत्रियों पर मुकदमें चल रहे हैं। 2जी मामले पर जांच करने वाली संसदीय कमेटी की रिपोर्ट रुकवाने के लिये जिस बेशर्मी से सपा-बसपा ने कांग्रेस का समर्थन किया था उस कारण से युवा एवं सवर्ण वर्ग इन तीनों से काफी नाराज है। अतः भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये युवा वर्ग, शिक्षित वर्ग, सवर्ण एवं विशेषकर ब्राह्मणों मंे भाजपा की तरफ एक गहरा रुझान दिख रहा है।
कांग्रेस ने भी इस बार ब्राह्मणों के टिकट आधे और मुसलमानों के टिकट डेढ़ गुने कर दिये हैं यानी ब्राह्मणों का हिस्सा मुसलमानों को दिया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग बदलाव के पक्ष में है ताकि सूबे से जातिवादी, मजहबी राजनीति और भ्रष्टाचार समाप्त हो।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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