- स्टेट री-आर्गनाइजेशन कमीशन की बात, कांग्रेस का पुनर्गठन के लिए कार्रवाई न करने का बहाना
- बी0जे0पी0 व सपा ने हमेशा छोटे राज्यों के गठन का विरोध किया
- फैसले को आगामी विधानसभा आम चुनाव से जोड़ना बेबुनियाद
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने कहा है कि प्रदेश को चार नये राज्यों में पुनर्गठित करने के लिए उनकी सरकार को मंत्रिपरिषद अथवा विधानमण्डल में कोई प्रस्ताव पारित कराने की संवैधानिक बाध्यता नहीं थी, क्योंकि भारत के संविधान के मुताबिक ऐसा विधेयक लाने का अधिकार पूरी तरह से केन्द्र सरकार के पास ही है।
मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि कांगे्रस पार्टी के नेतृत्व वाली केन्द्र की यू0पी0ए0 सरकार यदि प्रदेश का विकास चाहती तो वह संवैधानिक प्रक्रिया को अपनाकर केन्द्रीय कैबिनेट से इस आशय के विधेयक का मसौदा पारित करवाकर उसे महामहिम राष्ट्रपति जी को भेजती तथा विधेयक को संसद में प्रस्तुत किये जाने की संस्तुति भी उनसे प्राप्त करती।
मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि भारतीय संविधान में ऐसा कोई प्राविधान नहीं है जिसके तहत राज्य के पुनर्गठन की कार्रवाई प्रारम्भ करने के लिए सम्बन्धित विधान मण्डल का प्रस्ताव आवश्यक हो। बल्कि संविधान के अनुच्छेद-3 में यह व्यवस्था है कि संसद में प्रस्तुत किये जाने से पहले महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा पुनर्गठन विधेयक पर सम्बन्धित राज्य के विधान मण्डल की राय निर्धारित समयावधि में प्राप्त कर ली जायेगी।
केन्द्र द्वारा इस दिशा में कोई कार्रवाई न किये जाने पर अफसोस जताते हुए माननीया मुख्यमंत्री जी ने कहा कि मई, 2007 में बी0एस0पी0 की सरकार बनने के फौरन बाद वे माननीय प्रधानमंत्री जी से प्रदेश का पुनर्गठन करने के लिए लगातार लिखित अनुरोध करती रही थीं। केन्द्र सरकार द्वारा साढ़े चार वर्ष से भी अधिक अवधि बीत जाने के बावजूद जब कोई कार्रवाई नहीं की गयी तो फिर, माननीया मुख्यमंत्री जी की पहल पर केन्द्र सरकार पर दबाव डालने के लिए प्रदेश सरकार ने पुनर्गठन सम्बन्धी प्रस्ताव को राज्य विधानमण्डल में 21 नवम्बर, 2011 को रखने का फैसला मजबूरीवश लिया।
पुनर्गठन संबंधी अपनी सरकार के फैसले पर विपक्षी पार्टियों के रवैये को पूरी तरह गलत एवं विकास विरोधी बताते हुए माननीया मुख्यमंत्री जी ने कहा कि इसे आगामी विधान सभा चुनाव से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि प्रस्ताव कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है। विधान मण्डल का प्रस्ताव केन्द्र सरकार पर दबाव डालने में मददगार साबित होगा। इसलिए विपक्षी पार्टियों द्वारा राज्य सरकार के इस फैसले को आगामी विधानसभा चुनाव से जुड़कर देखना पूरी तरह गलत है और इस मामले में विपक्षी नेताओं के सभी आरोप बेबुनियाद हैं।
मुख्यमंत्री ने कहा कि श्री दिग्विजय सिंह द्वारा दिया गया बयान कि कांग्रेस पार्टी पुनर्गठन का स्वागत करती है और उनके द्वारा यह भी कहा जाना कि वे केन्द्र सरकार से अनुरोध करेंगे कि स्टेट री-आर्गनाइजेशन कमीशन बनाये, साफ कर देता है कि कांग्रेस की कथनी और करनी में काफी अन्तर है और यह पार्टी राज्य के पुनर्गठन को लेकर बहानेबाजी कर रही है। उन्होंने कहा कि श्री सिंह का स्वागत सम्बन्धी बयान पूरी तरह भ्रामक है, क्योंकि स्टेट री-आर्गनाइजेशन कमीशन की इस मामले में न तो कोई आवश्यकता है, और न ही संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 के तहत कोई कानूनी बाध्यता। उन्होंने कहा कि इस तरह की बात कहने वालों कोThe Uttar Pradesh Reorganisation Act, 2000 को पारित कराने से पहले केन्द्र सरकार द्वारा अपनायी गयी प्रक्रिया का संज्ञान अवश्य लेना चाहिए, जिसके तहत उत्तराखण्ड राज्य के गठन में स्टेट री-आर्गनाइजेशन कमीशन की कोई भूमिका नहीं थी।
मुख्यमंत्री ने कहा कि स्टेट री-आर्गनाइजेशन कमीशन की बात करके श्री दिग्विजय सिंह ने स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस पार्टी की मानसिकता उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के विपरीत है और वह तेलंगाना राज्य ही की तरह इस मामले को भी लटकाना चाहती है। कांग्रेस पार्टी किसी भी प्रकार से यह नहीं चाहती कि उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड, पूर्वांचल, अवध या पश्चिम के भागों में किसी भी प्रकार की तरक्की हो।
प्रदेश के पुनर्गठन को लेकर बी0जे0पी0 व समाजवादी पार्टी के रवैये की निंदा करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि यह दोनों पार्टियां हमेशा छोटे राज्यों के गठन का विरोध करती रहीं हैं। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड राज्य के गठन की मांग को लेकर दिल्ली में धरना-प्रदर्शन करने के लिए जा रहे, लोगों पर 1/2 अक्टूबर, 1994 की रात में रामपुर तिराहे (मुजफ्फरनगर) पर की गयी पुलिस फायरिंग में अनेक निर्दोष लोग मारे गये थे। उस समय उत्तर प्रदेश में सपा नेता श्री मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। इसके विपरीत बी0एस0पी0 पहली पार्टी थी, जिसने उत्तराखण्ड राज्य के गठन के प्रस्ताव का सबसे पहले समर्थन किया था।
प्रदेश के पुनर्गठन सम्बन्धी राज्य सरकार के फैसले को चुनावी स्टंट बताये जाने पर माननीया मुख्यमंत्री जी ने सख्त ऐतराज जताते हुए कहा कि उन्होंने 09 अक्टूबर, 2007 को लखनऊ में आयोजित एक विशाल जनसभा में उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन कर अलग राज्यों-पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गठन का सार्वजनिक रूप से प्रबल समर्थन किया था। इसके बाद 31 अक्टूबर, 2007 को उनकी सरकार ने राज्य विधानसभा में यह मत व्यक्त किया था कि संविधान के अनुच्छेद-3 के तहत राज्यों के पुनर्गठन का का अधिकार संसद को है।
मुख्यमंत्री ने कहा कि 15 मार्च, 2008 को उन्होंने आदरणीय प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखकर उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन कर पूर्वांचल, बुन्देलखण्ड एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थापना हेतु केन्द्र सरकार से संवैधानिक रूप से विहित प्रक्रिया के अनुसार कार्रवाई करने का अनुरोध किया था। केन्द्र द्वारा कोई रूचि न लिए जाने पर माननीया मुख्यमंत्री जी ने मा0 प्रधानमंत्री जी को अनुस्मारक भी भेजे। उन्होेंने कहा कि परम् पूज्य बाबा साहेब डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर की सोच के मुताबिक उनकी पार्टी व सरकार छोटे राज्यों के गठन की हमेशा प्रबल समर्थक रही है। यही कारण है कि उनकी सरकार ने प्रदेश का पुनर्गठन किये जाने के लिए हर सम्भव कार्रवाई की।
मुख्यमंत्री ने पुनः स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 3 क (A)अनुच्छेद अ के तहत संसद को कानून बनाकर किसी राज्य का विभाजन कर नये राज्य बनाने की शक्ति प्रदान की गयी है। इसी अनुच्छेद Provisoके उप अनुच्छेद (e) में किसी प्रदेश का नाम बदलने का अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 3 के परन्तुक Article के प्राविधान के तहत यदि किसी प्रदेश के क्षेत्र, सीमा या नाम बदलने का सुझाव है तो ऐसे बिल को राष्ट्रपति संसद में भेजने से पहले सम्बन्धित राज्य के विधानमंडल को भेजकर निश्चित समय सीमा के अन्दर राय देने को कहेंगे और यदि उस समय सीमा के अन्दर राय नहीं दी जाती है तो यह मान लिया जाएगा कि बिल के बारे में कोई विरोध नहीं है।
संविधान के अनुच्छेद 4 के उप अनुच्छेद 2 में स्पष्ट है कि कोई भी कानून जो राज्यों के पुनर्गठन/विभाजन के सम्बन्ध में बनाया जाएगा, उसे संविधान का संशोधन नहीं माना जाएगा। परिणामस्वरूप राज्य के पुनर्गठन/विभाजन की कार्रवाई प्रारम्भ करने के लिए संबंधित राज्य के विधान मण्डल द्वारा प्रस्ताव पारित किया जाना आवश्यक नहीं है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने निर्णयों द्वारा यह स्पष्ट किया है कि यदि राष्ट्रपति कोई बिल राज्य सरकार की विधान मण्डल को उसकी राय जानने के लिए भेजते हैं और उक्त राज्य के विधानमण्डल की राय अगर विपरीत होती है तो भी वह राष्ट्रपति के ऊपर बाध्य नहीं होगा। विपरीत राय के बाद भी संसद अपना कानून अनुच्छेद 3 के तहत बना सकता है जो कि राज्य सरकार पर बाध्य होगा। (2009(12) सुप्रीम कोर्ट केसेस पेज 248 प्रदीप चैधरी बनाम यूनियन आफ इण्डिया)।
मुख्यमंत्री ने कहा कि इन तथ्यों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि पुनर्गठन केे मामलें में मंत्रिपरिषद अथवा विधानमण्डल से कोई प्रस्ताव पारित करवाना राज्य सरकार के लिए संवैधानिक रूप से बाध्यकारी नहीं था, क्योंकि इस तरह का विधेयक लाने का अधिकार पूरी तरह से केन्द्र सरकार के पास ही है। प्रदेश सरकार की समस्त कार्रवाई का उद्देश्य केन्द्र सरकार पर दबाव बनाना है। इसलिए विपक्षी पार्टियों का यह आरोप कि राज्य सरकार ने विधान सभा आम चुनाव को ध्यान मंे रखते हुए पुनर्गठन के प्रस्ताव का फैसला लिया, पूरी तरह बेबुनियाद है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
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