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पुरुषार्थ,प्रार्थना तथा प्रतीक्षा पूर्ण जीवन के सूत्र - नरेन्द्र सिंह राणा

Posted on 17 March 2011 by admin

जीवन अमृत है बस जीना आना चाहिए। जहर भी अमृत है भगवान शंकर व परम् भक्त मीरा की तरह पीना आना चाहिए। आदिकाल से लेकर आज तक जितने भी महापुरूष हुए सब के जीवन में पुरूषार्थ, प्रार्थना तथा प्रतीक्षा का महामन्त्र मूल आधार है। जिसप्रकार सुबह, दोपहर, शाम को मिलाकर पूरा दिन बनता है उसी प्रकार उपरोक्त तीनों गुणों को मिलाकर मानव का पूर्ण जीवन खिलता है। यहां पुरूषार्थ बीज है उसको बोने के लिए भूमि को जोतना पड़ता है, सींचना पड़ता है, पथरीली, कंकरीली जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए कठोर परिश्रम करना होता है। प्रार्थना वृक्ष रूप है, बीज जमीन के अन्दर बो दिया जाता है, उसके पौधे के रूप में बाहर आने और विशाल वृक्ष बनने तक अपना काम करती है। प्रतीक्षा वृक्ष पर फल आना व उसका पकना है। सतयुग, त्रैता, द्वापर और कलिकाल में तीनों महान् गुणों से युक्त जीवन जीने वाले महापुरूषों के अनेक उदाहरण हैं। ऋषि मतंग ने मॉं शबरी, ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र ने अहिल्या और श्री हनुमान जी महाराज ने बानर राज सुग्रीव को प्रतीक्षा, धैर्य कर भरोसा रखना बताया जिसके परिणामस्वरूप ही स्वयं प्रभु श्री राम प्रतीक्षार्थीयों के पास गये और उनका उद्धार किया। दानव और देवता दोनों परम पुरूषार्थी और प्रार्थना करने वाले माने गए हैं। अनेकों बार देवाअसुर संग्राम हुए दैत्यों ने देवताओं को हराया भी परन्तु उनका राज कभी यशस्वी नहीं रहा वहीं देवताओं ने भगवत कृपा पाई और अखण्ड राज किया। दोनों में तुलना करने पर यह सहज समझ में आता है कि देवता प्रतीक्षा रूपी गुण के माहिर थे और दैत्य इस गुण से सदा विहीन थे। पुरूषार्थी व्यक्ति अधीर होता है। पुरूषार्थी यह सोचते है कि सफलता तो मेरे पुरूषार्थ पर निर्भर हैं, जितना जल्दी करूंगा उतनी जल्दी सफलता मिलेगी। जो प्रतिक्षा करता है वह धीर होता है। जो कृपा चाहेगा उसे धैर्य पूर्वक प्रतीक्षा करनी होगी। सूत्र यही है कि पुरूषार्थ में सक्रियता है और कृपा में प्रतिक्षा है। प्रार्थना की शक्ति अपरम्पार होती है। श्री हनुमान जी महाराज के चरित्र में हम पुरूषार्थ, प्रार्थना और प्रतिक्षा का समग्र रूप एक साथ देखना चाहे तो सहज ही देख सकते हैें।  हम देखते हैं कि सचमुच श्री हनुमान जी का प्रभु से मिलन होता है। हनुमान जी ने जब प्रभु श्रीराम से सुग्रीव को मिलाया तो प्रतिक्षा के मार्ग से मिलवाया। श्री राम ने हनुमान को हृदय से लगा लिया। श्री हनुमान जी ने प्रतिक्षारत सुग्रीव के बारे में प्रभु से यही कहा ´´ नाथ सैल पर कपिपति रहई-सो सुग्रीव दास तव अहई´ तेहि सन नाथ मेैत्री कीजे- दीन जानि तेहि अभय करीजे´´ यानि वानरराज सुग्रीव यहां पर्वत पर रहते हैं आप चलकर उनसे मित्रता कीजिए। कितनी मीठी बात है। साधन का स्वयं चलकर आना अति शुभ होता है। हनुमान जी सुग्रीव को भी आने के लिए कह सकते थे पर धन्य हैं, पुरूषार्थ के पुञ्ज हैं, प्रभु के पास भी है, उन्हें प्रतिक्षा (कृपा) की प्रतीति पर इतनी आस्था है कि उन्होंने प्रभु से प्रार्थना करते हुए यही संकेत किया कि प्रभु जब आप जीव पर कृपा करने के लिए श्री अयोध्यावासी से यहां तक आ गए तो अब इतनी दूर भी जीव को क्यों चलाते हैं। यह जीव तो भागते-2 थक गया है, यहां तक आने में समर्थ नहीं है। प्रार्थना के बल (समर्पण) से श्री हनुमान ने प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण जी को अपने कधों पर बैठा लिया और सुग्रीव से मिला दिया। प्रतीक्षा (कृपा) के मार्ग से श्री हनुमान जी ने परम  पुरूषार्थ होते हुए भी प्रभु का दर्शन कराया तथा मित्रता करा दी। श्री हनुमान जी के बल के बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। परमपूज्य महान् सन्त रामचरितमानस के रचियता गोस्वामी तुलसीदास जी ने उनके बारे में लिखा ´´अतुलितबलधामम्´´ उनके समग्र बल को तोलना असम्भव है फिर भी कहा गया है कि दस हजार हाथियों का बल स्वर्ग के राज इन्द्र के ऐरावत हाथी में है और यदि दस हजार एरावत हाथियों के बल को एकत्र कर दिया जाए तो उतना बल श्री हनुमान जी को कनिष्का उंगली में है। हनुमान जी विलक्षण पुरूषार्थी, प्रार्थनार्थी और प्रतिक्षार्थी है। चाहते तो बाली और रावण को स्वयं हरा सकते थे और मार भी सकते थे। इतने बड़े पराक्रमी होते हुए भी उन्होंने न हराया न मारा। प्रभु के राज्याभिषेक के समय महषिZ अगस्त दर्शन के लिए पधारे प्रभु ने ऋषिवर का पूजन किया । महषिZ अगस्त ने प्रभु से कहा कि इतिहास में हनुमान के समान बलवान न हुआ है न हो सकता है। प्राणी मात्र हनुमान जी के जीवन चरित्र से कुछ सिखें कि हमें अपने गुणों को छिपाना चाहिए।  हम अभिमान में न रहे तो हमारा जीवन धन्य हो सकता है। हम सबके जीवनमें दो वस्तुएं है स्मृति और विस्मृति। हमारा दुर्भाग्य यह है कि जिसकी हमें विस्मृति होनी चाहिए उसका हम स्मृर्ति कर रहे हैं और जिसकी स्मृति होनी चाहिए उसको विस्मृत कर बैठे हैं। रामायण की अनोखी भाषा में भगवान ने हमें यह जो विस्मरण दिया है सदा चिन्तन करने योग्य है। रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ ने वरदान पाया भगवान विष्णु, हनुमान जी, नल व नील को श्राप मिला। हमारे आदर्श वरदानी नहीं श्रापित हैं। राक्षसी वृति तो मिले वरदान को श्राप बना देती है वही वरदान की वृति हो तो हम श्राप को भी वरदान बना सकते है। घनीभूत विश्वास प्रतिक्षा की खान श्री हनुमान जी ने अपने चरित्र के द्वारा दिखा दी। मारना और बचाना दोनों प्रभु जी का काम है। मोह मारेगा तो हरि इच्छा से और जीव की रक्षा होगी तो प्रभु आश्रय से। गोस्वामी जी ने विनय पत्रिकाओं में कहा कि हम धन को भी उतना नहीं छिपाते है, जितना किए गए पापों को गहराई से छिपाते हैं। दूसरे की संगति से ´´ संग बस किये सुभ सुना ये सकल लोकनिहारी´´ जो कुछ अच्छा कार्य हो गया सबको दिखलाते फिरते है। यह बाली और रावण की वृत्ति है। दोनों  म्प्रभु के बाण से मारे गए।

´´महषिZ विश्वामित्र जी ने प्रतिक्षा (धीर) का बहुत सुन्दर अर्थ किया है। ´´गौतम नारी श्राप बस उपल देह धरि धीर´´  पुरूषार्थी व्यक्ति अधीर होता है पर जो कृपा चाहता है  उसे धीर (प्रतीक्षारत) होना पड़ेगा। अहिल्या को परम धेैर्यशालिनी (प्रतीक्षारत) बताते हुए श्रीराम से कहा कि यह कब से आपके आने का मार्ग देख रही है। सन्त की यही विशेषता है कि वे विशेषता निकाल लेते हैं। वेद व्यास जी कहते है ´´भुज्जानएवात्मकृतं विपाकम´´  जीवन की प्रतिकुलता, कष्ठ, रोग, संकट तथा विपति मेरे किसी पाप का व प्रारब्ध का परिणाम है, अत: इसे भोग लेना ही अच्छा है। ´´पुरूषार्थ बीज है उसे बोने के लिए भूमि को जोतना पड़ता है, सींचना पड़ता है, पथरीली, कंकरीली जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है बीज जमीन के अन्दर बोया जाता है। प्रार्थना है उसका पौधे के रूप में बाहर आना तथा वृक्ष बनना।  प्रतिक्षा है वृक्ष पर फल आना उनका पकना। तीनों में सामञ्जस्य होना मानव का सम्पूर्ण जीवन कहलाता है। यह सब गुरू महाराज का प्रसाद है।

लेखक- पावरलििफ्टंग के अन्तर्राष्ट्रीय कोच रहे हैं
वर्तमान मेंउ0प्र0 भाजपा के मीडिया प्रभारी हैं।
लखनऊ, मो0 9415013300

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सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com

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