भारत का सबसे धनी और संसार के सबसे धनी मंदिरों में आंध्रप्रदेश में तिरूपति नामक स्थान पर भगवान विष्णु (वैंकटेश) का मंदिर है। वैंकटेश भगवान को कलियुग में बालाजी नाम से भी जाना गया है। तमिल भाषा में तिरू अथवा थिरू शब्द का वही अर्थ है जो संस्कृत में श्री है। श्री शब्द, धन-समृद्धि की देवी लक्ष्मी के लिये प्रयुक्त होता है। तीर्थयात्रियों की संख्या की दृष्टि से रोम (वेटिकन), मक्का और जेरूसलम की तीर्थयात्रा करने वाले यात्रियों की तुलना में अधिक संख्या में श्रद्धालु तिरूपति बालाजी की तीर्थयात्रा प्रतिवर्ष करते हैं। तिरूपति देवस्थान बोर्ड में लगभग पच्चीस हजार कर्मचारी नियुक्त हैं। इस मंदिर में सर्वाधिक चढ़ावा आना अपने आपमें व्यक्त करता है कि जनसाधारण की मनोकामनाएं और कष्ट निवारण हेतु इसकी महत्ता स्वयंसिद्ध है। प्रसंगवश भारत में जनआस्था से जु़डे अन्य महत्वपूर्ण स्थान भी हैं जो क्रमश: चार धाम, बारह ज्योतिर्लिग, इक्यावन शक्तिपीठ, राम और कृष्ण की जन्मभूमि अयोध्या तथा मथुरा इत्यादि हैं। इनकी तुलना में चढ़ावा अधिक तिरूपति मंदिर को क्यों चढ़ाया जाता है? पौराणिक गाथाओं और परम्पराओं से जु़डा इतिहास इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करता है। यह पौराणिक संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है-
प्रसिद्ध पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत्न निकले थे। इन रत्नों में से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। लक्ष्मी के भव्य रूप और आकर्षण के फलस्वरूप सारे देवता, दैत्य और मनुष्य उनसे विवाह करने हेतु लालायित थे, किन्तु देवी लक्ष्मी को उन सबमें कोई न कोई कमी लगी। अत: उन्होंने समीप निरपेक्ष भाव से ख़डे हुए विष्णुजी के गले में वरमाला पहना दी। विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को अपने वक्ष पर स्थान दिया। यह रहस्यपूर्ण है कि विष्णुजी ने लक्ष्मीजी को अपने ह्वदय में स्थान क्यों नहीं दिया? महादेव शिवजी की जिस प्रकार पत्नी अथवा अर्द्धाग्नि पार्वती हैं, किन्तु उन्होंने अपने ह्वदयरूपी मानसरोवर में राजहंस राम को बसा रखा था उसी समानांतर आधार पर विष्णु के ह्वदय में संसार के पालन हेतु उत्तरदायित्व छिपा था। उस उत्तरदायित्व में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हो इसलिए संभवतया लक्ष्मीजी का निवास वक्षस्थल बना।
एक बार धरती पर विश्व कल्याण हेतु यज्ञ का आयोजन किया गया। तब समस्या उठी कि यज्ञ का फल ब्रम्हा, विष्णु, महेश में से किसे अर्पित किया जाए। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त का चयन करने हेतु ऋषि भृगु को नियुक्त किया गया। भृगु ऋषि पहले ब्रम्हाजी और तत्पश्चात महेश के पास पहुंचे किन्तु उन्हें यज्ञ फल हेतु अनुपयुक्त पाया। अंत में वे विष्णुलोक पहुंचे। विष्णुजी शेष शय्या पर लेटे हुए थे और उनकी दृष्टि भृगु पर नहीं जा पाई। भृगु ऋषि ने आवेश में आकर विष्णु जी के वक्ष पर ठोकर मार दी। अपेक्षा के विपरीत विष्णु जी ने अत्यंत विनम्र होकर उनका पांव पक़ड लिया और नम्र वचन बोले- हे ऋषिवर! आपके कोमल पांव में चोट तो नहीं आई? विष्णुजी के व्यवहार से प्रसन्न भृगु ऋषि ने यज्ञफल का सर्वाधिक उपयुक्त पात्र विष्णुजी को घोषित किया। उस घटना की साक्षी विष्णुजी की पत्नी लक्ष्मीजी अत्यंत क्रुद्ध हो गई कि विष्णुजी का वक्ष स्थान तो उनका निवास स्थान है और वहां धरतीवासी भृगु को ठोकर लगाने का किसने अधिकार दिया? उन्हें विष्णुजी पर भी क्रोध आया कि उन्होंने भृगु को दंडित करने की अपेक्षा उनसे उल्टी क्षमा क्यों मांगी? परिणामस्वरूप लक्ष्मीजी विष्णुजी को त्याग कर चली गई। विष्णुजी ने उन्हें बहुत ढूंढा किन्तु वे नहीं मिलीं।
लक्ष्मीजी के भृगु ऋषि पर अव्यक्त क्रोध का परिणाम पौराणिक इतिहास से जाना जा सकता है जो कि भृगु के तीन प्रमुख वंशजों का है। यथा दैत्यगुरू शुक्राचार्य एक अवसर पर अपनी एक आंख फु़डवाकर काणे बन गए, ऋषि च्यवन धोखे से अपनी दोनों आंखें फु़डवाकर एक बार अंधे हो गए थे और अवतार परशुरामजी की अवमानना को राजा जनक के दरबार में शिवजी के धनुष भंग के अवसर पर सभी ने देखा था। अंतत: विष्णुजी ने लक्ष्मी को ढूंढते हुए धरती पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया और संयोग से लक्ष्मी ने भी पद्मावती के रूप में जन्म लिया। घटनाचक्र ने उन दोनों का अंतत: परस्पर विवाह करवा दिया। सब देवताओं ने इस विवाह में भाग लिया और भृगु ऋषि ने आकर एक ओर लक्ष्मीजी से क्षमा मांगी तो साथ ही उन दोनों को आशीर्वाद प्रदान किया। लक्ष्मीजी ने भृगु ऋषि को क्षमा कर दिया किन्तु इस विवाह के अवसर पर एक अनहोनी घटना हुई। विवाह के उपलक्ष्य में लक्ष्मीजी को भेंट करने हेतु विष्णुजी ने कुबेर से धन उधार लिया जिसे वे कलियुग के समापन तक ब्याज सहित चुका देंगे। अत: जब भी कोई भक्त तिरूपति बालाजी के दर्शनार्थ जाकर कुछ चढ़ाता है तो वह न केवल अपनी श्रद्धा भक्ति अथवा आर्त प्रार्थना प्रस्तुत करता है अपितु भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर के ऋण को चुकाने में सहायता भी करता है। अत: विष्णुजी अपने ऎसे भक्त को खाली हाथ वापस नहीं जाने देते हैं।
जिस नगर में यह मंदिर बना है उसका नाम तिरूपति है और नगर की जिस पह़ाडी पर मंदिर बना है उसे तिरूमला (श्री+मलय) कहते हैं। तिरूमला को वैंकट पह़ाडी अथवा शेषांचलम भी कहा जाता है। यह पह़ाडी सर्पाकार प्रतीत होती हैं जिसके सात चोटियां हैं जो आदि शेष के फनों की प्रतीक मानी जाती हैं। इन सात चोटियों के नाम क्रमश: शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरू़डाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वैंकटाद्रि हैं। यह मंदिर प्राचीन दक्षिण भारतीय वास्तु का अनुपम उदाहरण है। इस मंदिर को प्राचीनकाल से पल्लव, पांड्या, चोल, विजयनगर और मैसूर के शासकों का संरक्षण प्राप्त हो रहा है। इस मंदिर में प्रतिवर्ष लगभग बीस हजार श्रद्धालु अपने केश कटवाकर भगवान को मनौती हेतु प्रस्तुत करते हैं। तिरूपति के लड्डूप्रसाद विश्व प्रसिद्ध हैं। यहां लगभग पच्चीस हजार श्रद्धालु तीर्थयात्री प्रतिदिन भोजन प्रसाद नि:शुल्क पाते हैं। तिरूपति के समीप अनेक मंदिर, उपासना स्थल तथा पर्यटन स्थल हैं। यथा-संत रामानुजाचार्य द्वारा 1130 ई. में बनवाया श्री गोविंदराज स्वामी मंदिर, कपिलेश्वर स्वामी मंदिर, देवी पदमावती मंदिर, श्री कल्याण वैंकटेश्वर स्वामी मंदिर, श्री कालहस्ती मंदिर और अगस्त्य स्वामी मंदिर इत्यादि हैं। आकाश गंगा, शिला तोरणम, स्वामी पुष्करणी (तालाब) और प्राचीन विजयनगर साम्राज्य की राजधानी चंद्रगिरि के पुरावशेष भी दर्शनीय हैं। मंदिर में दर्शनार्थियों की लंबी कतारें और देवदर्शन का आकर्षण आज भी लाखों श्रद्धालुओं को तिरूपति खींच लाता है।
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Vikas Sharma
Editor
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