झाँसी - दादा ध्यानचंद जिनका जन्मदिन (29 अगस्त) पूरा देश खेल दिवस के रूप में मनाता है ध्यानचंद ने तीन ओलंपिक खेलों [1928], [1932] और [1936] में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा तीनों बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया। आंकड़ों से भी पता चलता है कि वह वास्तव में हाकी के जादूगर थे। भारत ने 1932 में 37 मैच में 338 गोल किए जिसमें 133 गोल ध्यानचंद ने किए थे। ध्यानचंद की अगुवाई में 1947 में भारत की युवा टीम ने पूर्वी अफ्रीका का दौरा किया। असल में तब जो न्यौता दिया गया था उसमें लिखा गया था कि यदि ध्यानचंद नहीं तो कोई टीम नहीं। ध्यानचंद तब 42 साल के थे और उन्होंने 22 मैच में 61 गोल दागे। उसी जादूगर की सबसे प्रिय ‘हॉकी’ आज कितनी दयनीय अवस्था में पहुँच गई है… ध्यानचंद की कर्म स्थली झाँसी में हर वर्ष ध्यानचंद की समाधी स्थल हीरोज फिल्ड पर हाकी एक वार फिर जिन्दा हो जाती है इस दिन झाँसी में मेराथन दोड़ का सुबह आयोजन किया जाता है और जगह जगह स्कूल कालेजो में खेलो का आयोजन किया जाता है……. वही ध्यानचंद के पुत्र अशोक ध्यानचंद देश में होकी के गिरते स्थर के लिए चिंतित है उनका कहना है की होकी के स्थर हो सुधारना है तो खिलाडियों को किरकेट की तर्ज पर शुभिधाओ की अबशाकता है
बताने की जरूरत नहीं है कि हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, लेकिन इस खेल के साथ 14 सालों तक जो खिलवाड़ हुआ , उसी का नतीजा रहा कि 8 स्वर्ण, 1 रजत और2 काँस्य ओलिम्पिक पदक जीतने वाला भारत 80 साल के ओलिम्पिक इतिहास में पहली मर्तबा बाहर था।
दादा ध्यानचंद हॉकी के जादूगर थे और अपने काल में ऐसा नाम कमाया कि ‘क्रिकेट के संत’ माने जाने वाले डॉन ब्रैडमैन भी उनके कायल हो गए थे। हॉकी को उन्होंने भरपूर जीया और देश के लिए तीन ओलिम्पिक (1928 एम्सटर्डम), 1932 लॉस एंजिल्स और 1936 बर्लिन) खेलें और इन तीनों में वे ओलिम्पिक स्वर्ण विजेता टीम का हिस्सा बने। यदि दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध में नहीं झोंकी जाती तो दादा ध्यानचंद के गले में और स्वर्ण पदक लटकते रहते।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाने वालों को कुछ सद्बुद्धि आई और उन्होंने दादा ध्यानचंद को हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा खेल नायक मानकर हर साल 29 अगस्त को देश में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया। बीते कई सालों से इस दिन पूरे देश में हॉकी यकायक जिंदा होती और अगले दिन फिर से मर जाती है। लकड़ी का यह जरा-सा डंडा (हॉकी स्टिक) सिर्फ उन हाथों तक सीमित रहता है, जो नियमित रूप से इसे गले से लगाए हुए हैं।
हिन्दुस्तान की हॉकी की दुर्दशा देखकर हर भारतीय का दु:खी होना लाजिमी है। जो लोग क्रिकेट को पागलों की तरह प्यार करते हैं, उनके दिल में भी राष्ट्रीय खेल के प्रति आस्था है लेकिन हॉकी पर से विश्वास इसलिए कम हो गया, क्योंकि बीते सालों में ऐसी लगातार कामयाबियाँ नहीं मिली, जिस तरह क्रिकेट में मिली।
बेशक यूरोपीय देश बहुमत के साथ अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने तरीके से नियम बनाते चले गए और मैदान पर खेली जाने वाली एशियाई शैली की हॉकी को ‘हिट एंड रन’ वाली शैली में तब्दील करके इसे नाइलोन की घास वाले मैदान तक ले गए, जहाँ घास गर्म होने पर उसे पानी की फुहारों से ठंडा किया जाने लगा। आधुनिक हॉकी एशियाई हॉकी को पूरी तरह लील गई।
जब नियम बनाए जा रहे थे, तब भारत, पाकिस्तान, कोरिया, जापान जैसे ताकतवर एशियाई देशों ने विरोध नहीं किया। एक गलती यह भी है कि यदि नए नियम और एस्ट्रोटर्फ आ गए थे तो क्यों नहीं भारत ने भी इसके लिए तैयारियाँ की? हकीकत यह है कि इस बदलाव में हम काफी पिछड़ गए।
यह ठीक वैसी ही स्थिति है जैसे कि गाँवों में मिट्टी पर लड़ने वाले पहलवान को बड़ा होने पर कुश्ती की मैट मिले और सुशील कुमार जैसे कम ही भाग्यशाली पहलवान होते हैं, जो अभाव में पलकर भी ओलिम्पिक से काँसे का पदक ले आते हैं। अब जबकि ‘गुदड़ी के दो लालों’ ने भारत को गरीब खेल माने जाने वाले कुश्ती और बॉक्सिंग में दो ओलिम्पिक पदक दिला दिए हैं तो हो सकता है कि इन खेलों का उद्धार करने पर भारत सरकार ध्यान दें।
1979 में दादा ध्यानचंद की कोमा में जाने के बाद मृत्यु हुई लेकिन जब तक वे होश में रहे, भारतीय हॉकी के प्रति चिंतित रहे। बेटे अशोक से हमेशा कहते थे कि मेरा यही सपना है कि भारतीय हॉकी एक बार फिर स्वर्णिम युग में पहुँचे। अब मेरे बूढ़े शरीर में भले ही दम नहीं रहा हो लेकिन मैं भारत की हॉकी को सम्मानजनक स्थिति में देखना चाहता हूँ ताकि खुद को जवान महसूस कर सकूँ।
इसमें कोई दो मत नहीं कि दादा ध्यानचंद की आत्मा आज जहाँ भी होगी, वह इस बदहाली पर आँसू बहा रही होगी। जिस शख्स ने हॉकी में भारत की पहचान स्थापित की, आज उनकी ही कर्म स्थति झाँसी के साथ देश भी हॉकी से अनाथ हो गया है।
परिचय -हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद का जन्म प्रयाग (उत्तरप्रदेश) के राजपूत घराने में 29 अगस्त 1905 को हुआ था। उनके पिता सामेश्वर दत्त सिंह भारतीय फौज में सूबेदार थे। सेना में रहते हुए उन्होंने भी खूब हॉकी में अपने जौहर दिखाए। मूलसिंह और रूपसिंह ध्यानचंद के दो भाई थे। ध्यानचंद की तरह रूपसिंह का भी हॉकी का जाना-माना चेहरा थे। पिता के तबादले के कारण ध्यानचंद ढंग से किताबों में मन नहीं लगा सके। यही वजह थी कि छठी कक्षा के बाद ही उन्हें पढ़ाई को अलविदा कहना पड़ा। कालांतर में पूरा परिवार झाँसी आकर बस गया।
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Vikas Sharma
Editor
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