Posted on 13 December 2010 by admin
केन्द्र सरकार द्वारा चलायी जा रही महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गांरन्टी योजना मनरेगा पर विजयी होकर आये प्रधानों की नज़रें अब गड़ी हुई हैं। जहां निवार्चित प्रधान इस योजना के बहाने अपनी किस्मत संवारने के चक्कर में अÒी से पड़े हुए हैं वहीं हारे हुए प्रत्याशी अपनी तकदीर को रोते नज़र आ रहे हैं। प्रधान पद को प्राप्त करने के बाद विजयी प्रत्याशी अपने सारे खर्चे वसूल करने के लिए वििÒé योजनाओं का धन कागजी खाना पूर्ति करने के बाद अपने पाकेट के हवाले करने को आतुर हैं इसमें केन्द्र की मनरेगा योजना पर सÒी के दान्त गड़ गये हैं।
केन्द्र सरकार इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत जाब कार्ड धारक गरीब मजदूरों को 100 दिन का रोजगार गांव में ही उनलब्ध कराने का प्रावधान है। जिससे मजदूरों का पलायन शहर की ओर जाने से रोका जा सके। लेकिन पूर्व प्रधानों के क्रिया कलापों प नज़र डाला जाय तो सरकार की इस योजना का Òðा बैठाने में प्रधानों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इन प्रधानों सांठ गांठ कर प र्जी जाब कार्ड बनवाकर पुचायत अधिकारियों की मदद से आधे अधूरे कार्यो का सम्यापन कराके पूरा धन हड़प लिया। जबकि सरकार द्वारा यह योजना गारबों के उत्थान और Òलाई के लिए चलायी जा रही है। लेकिन मनरेगा से गरीबों का कम प्रधानों की Òलाई ज्यादा होती नज़र आती है। प्रत्येक वित्तीय वर्ष में जाब कार्ड धारक को सौ दिन का काम मिलना चाहिए। लेकिन प्रधान व अन्य अधिकारियों की मिली Òगत से कागजों में कार्य पूर्ण दिखाकर धन की निकासी कर ली जाती है। नवनिर्वाचित प्रधानों ने चुनाव से पहले गांव के विकास का जो वादा किया था। उसका कितना लाÒ आम जनता को मिलता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस सरकारी योजना का लाÒ किस प्रकार लिया जाय प्रधान इसके जुगत में अÒी से हैं। हकीकत यह है कि इस योजना में ग्राम विकास अधिकारी,ब्लाकों के अवर अिÒयन्ता, खण्ड विकास अधिकारी तथा विÒाग के जिलास्तरीय अधिकारी Òी अपना कमीशन बाकायदा वसूलते हैं और सबसे अधिक बदनाम प्रधान होते हैं। गांवों तथा गरीबों का उत्थान सरकारी विÒागों में ब्याप्त Ò्रष्टाचार के कारण नहीं हो पा रहा है। सरकार अनेक प्रकार की योजनाओं के माध्यम से करोड़ों रूपया खर्च करती हे लेकिन उसका लाÒ अन्य सक्षम लोग उठाते और मौज करते दिखाई देते है। मनरेगा से नतो मजदूरों का शहरों की ओर पलायन रूका है तथा न उनके जीवन स्तर में ही सुधार हों सका है।
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
मो0 9415508695
upnewslive.com
Posted on 21 April 2010 by admin
भूख से मौत और रोजीरोटी के लिए पलायन। ऐसा तब होता है जब लोगों के पास कोई काम नहीं होता। यकीनन गरीबी का यह सबसे भयानक रुप है। इससे निपटने के लिए भारत सरकार के पास ‘‘हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम’’ देने वाली ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना’ है। यह योजना लोगों को उनके गांवों में ही काम देने की गांरटी भी देती है। योजना में श्रम पर आधारित कई तरह के कामों का ब्यौरा दिया गया है। इन्हीं में से बहुत सारे कामों से विकलांग साथियों को जोड़ा जा सकता है और उन्हें विकास के रास्ते पर साथ लाया जा सकता है। कैसे, नरेगा का यह तजुर्बा सामने है:
एक आदमी गरीब है, आदिवासी समुदाय से है, और विकलांग है तो उसका हाल आप समझ सकते हैं। उसे उसके हाल से उभारने के लिए आजीविका का कोई मुनासिब जरिया होना जरूरी है। इसलिए दिल्ली में जब गरीबी दूर करने के लिए नरेगा (अब मनरेगा) की बात उठी थी तो मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले बड़वानी के ‘आशा ग्राम ट्रस्ट’ ने विकलांग साथियों का ध्यान रखा था और उन्हे रोजगार की गांरटी योजना से जोड़ने की पहल की थी। जहां तय हुआ था कि नरेगा में विकलांग साथियों को उनकी क्षमता और कार्यकुशलता के हिसाब से किस तरह के कामों में और किस तरीके से शामिल जा सकता है।
इसके लिए ब्लाक-स्तर पर एक चरणबद्ध योजना बनायी गई थी। योजना में विकलांग साथियों को न केवल भागीदार बनाया गया था बल्कि उन्हें निर्णायक मंडल में भी रखा गया। उन्होंने एक कार्यशाला के जरिए सबसे पहले वो सूची तैयार की जो बताती थी कि विकलांग साथी कौन-कौन से कामों को कर सकते हैं और कैसे-कैसे। इस सूची में कुल 25 प्रकार के कामों और उनके तरीकों को सुझाया गया था। बाद में सभी 25 प्रकार के कामों को वगीकृत किया गया और सूची को ‘वगीकृत कार्यों वाली सूची’ कहा गया। अब इस सूची की कई फोटोकापियों को ग्राम-स्तर पर संगठित विकलांग साथी समूहों तक पहुंचाया गया। इसके बाद विकलांग साथियों के लिए ‘जाब-कार्ड बनाओ आवेदन करो’ अभियान छेड़ा गया। दूसरी तरफ, इस अभियान में जन-प्रतिनिधियों की सहभागिता बढ़ाने के लिए ‘गांव-गांव की बैठक’ का सिलसिला भी चलाया गया। इसी दौरान विकलांग साथियों ने अपने जैसे कई और साथियों की पहचान करने के लिए एक सर्वे कार्यक्रम भी चलाया था। इससे जहां बड़ी तादाद में विकलांग साथियों की संख्या ज्ञात हो सकी, वहीं उन्हें जाब-कार्ड बनाने और आवेदन भरने के लिए प्रोत्साहित भी किया जा सका। नतीजन, अकेले बड़वानी ब्लाक के 30 गांवों में 100 से ज्यादा विकलांग साथियों को नरेगा से जोड़ा जा सका। तब यहां के विकलांग कार्यकर्ताओं ने कार्य-स्थलों पर घूम घूमके नरेगा की गतिविधियों का मूल्यांकन भी किया था। आज इन्हीं कार्यकर्ताओं द्वारा जिलेभर के हजारों विकलांग साथियों को नरेगा से जोड़ने का काम प्रगति पर है।
रोजगार के लिए विकलांग कार्यकर्ताओं के सामने बाधाएं तो आज भी आती हैं। मगर ऐसी तमाम बाधाओं से पार पाने के लिए इनके पास जो रणनीति है, उसके खास बिन्दु इस तरह से हैं: (1) रोजगार गारंटी योजना के जरिए ज्यादा से ज्यादा विकलांग साथियों को काम दिलाना। (2) पंचायत स्तर पर सरपंच और सचिवों को संवेदनशील बनाना। (3) जन जागरण कार्यक्रमों को बढावा देना। (4) निगरानी तंत्र को त्रि-स्तरीय याने जिला, ब्लाक और पंचायत स्तर पर मजबूत बनाना। (5) लोक-शिकायत की प्रक्रिया को पारदर्शी और त्वरित कार्यवाही के लिए प्रोत्साहित करना। यह तर्जुबा बताता है कि जब एक छोटे से इलाके के विकलांग साथी नरेगा के रास्ते अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं, तो प्रदेश या देश भर के विकलांग साथी भी यही क्रम दोहरा सकते हैं।
शिरीष खरे
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शिरीष खरे ‘चाईल्ड राईटस एण्ड यू’ के ‘संचार-विभाग’ से जुड़े हैं।
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Vikas Sharma
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